जीवों के संरक्षण के लिए बेहद मददगार हो सकता है उनकी आदतों और संस्कृति को समझना

इंसानों की तरह ही हाथी, चिंपांज़ी और व्हेल जैसी प्रजातियां एक दूसरे से सीखती हैं, और अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी तक अर्जित ज्ञान को पहुंचाती हैं। इसका अध्ययन इनके संरक्षण का हथियार बन सकता है।
जीवों के संरक्षण के लिए बेहद मददगार हो सकता है उनकी आदतों और संस्कृति को समझना
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आज जिस तरह से जीव-जंतुओं की आबादी घट रही है, वो एक बड़ी समस्या है जिसका प्रभाव पूरे पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ रहा है। यदि संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी आंकड़ों से पता चला है कि 10 लाख से भी ज्यादा जानवरों और पौधों की प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। अनुमान है कि40 फीसदी उभयचर, 33 फीसदी कोरल्स और समुद्र में रहने वाले एक तिहाई स्तनधारी जीवों पर संकट मंडरा रहा है। जिनके लिए हम मनुष्य ही जिम्मेवार हैं। करीब तीन चौथाई जमीनी पर्यावरण और 66 फीसदी समुद्री परिवेश इंसानी हस्तक्षेप के कारण प्रभावित हो चुका है।

ऐसे में इन जीवों को बचाने की जिम्मेवारी भी हम इंसानों की ही है। इनके संरक्षण को लेकर अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के एक दल द्वारा किए शोध से पता चला है कि जीवों को बचाने के लिए उनकी आदतों और संस्कृति को भी समझना जरुरी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि दुनिया की सबसे ज्यादा संकटग्रस्त प्रजातियों में से कुछ के संरक्षण के लिए उन जानवरों के सांस्कृतिक ज्ञान को ध्यान में रखना आवश्यक है, इसकी मदद से इन जीवों को बचाया जा सकता है। ऑकलैंड विश्वविद्यालय द्वारा किया यह शोध जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित हुआ है।

हम इंसानों की तरह ही हाथी, चिंपांज़ी और व्हेल जैसी प्रजातियां एक दूसरे से सीखती हैं, और अपने बच्चों और आने वाली पीढ़ी तक अर्जित ज्ञान को पहुंचाती हैं।  उदाहरण के लिए मीरकैट के बच्चे अपने बड़ों की नक़ल करके बिच्छुओं का शिकार करना सीखते हैं। व्हेल अपनी माता-पिता से प्रवासी मार्ग सीखती हैं। इसी तरह हाथी साल दर साल पानी की तलाश में पलायन करते हैं। समय के साथ, सीखा यह व्यवहार जानवरों के समूहों के बीच अंतर पैदा कर सकता है। यह उनके भविष्य को निर्धारित करता है वे कैसे बनते हैं, कैसे पलायन और कैसे संवाद करते हैं। यह जीवों का ऐसा व्यवहार है जो उनकी संस्कृति का हिस्सा बन चुका है, जो उनकों बचाए रखने में मदद करता है।

शोध के अनुसार समूहों के बीच सामाजिक रूप से सीखे गए इन व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर इन समूहों के बीच अंतर किया जा सकता है और इसकी मदद से यह निर्णय लिया जा सकता है कि इनकों बचने के लिए क्या ठीक रहेगा। इनकी मदद से जीवों को बचाव का व्यवहारिक ज्ञान दिया जा सकता है, जैसे की शिकारियों से कैसे बचा जाए। प्रवास के दौरान जिन रास्तों पर चलकर यह जीव जाते हैं उन मार्गों को बनाए रखना।

कैसे प्रजातियों को बचाए रखने में मदद करता है उनका वर्षों में सीखा ज्ञान

इस शोध से जुड़ी शोधकर्ता एमा एल कैरोल बताती है कि इन जीवों और उनके समूहों की सामाजिक रूप से सीखने की क्षमता को बचाए रखना, यह सुनिश्चित कर सकता है कि वो भविष्य में अपने लिए नए भोजन स्रोतों और आवास को ढूंढ सकेंगे। इसके विपरीत कुछ प्रजातियां सांस्कृतिक रूप से रूढ़िवादी होती हैं, जिसका मतलब है कि वो कुछ प्रमुख संसाधनों पर ही ध्यान केंद्रित करती हैं। उदाहरण के लिए कुछ जीव विशेष प्रकार का ही भोजन करते हैं ऐसे में उन्हें संरक्षित करने की जरुरत है।

उदाहरण के लिए, बेलुगा व्हेल जो अपने बड़ों और सामाजिक रूप से सीखे प्रवासी मार्ग को याद रखती हैं उनका यह ज्ञान उन्हें समुद्री बर्फ में फंसने से बचाता है। इसी तरह किस तरह हाथी फसलों पर धावा बोलते हैं और समूह सामाजिक रूप से इस व्यवहार को सीखता है, यह समझना उनके व्यवहारों के प्रबंधन में मदद कर सकता है। आपने बचपन में चतुर कौवे की कहानी सुनी होगी, जो उसकी चतुरता के बारे में बताती है। लेकिन वो सिर्फ कहानी नहीं है उन्हीं की एक प्रजाति न्यू कैलेडोनियन कौवों में तेज दिमाग होता है। इन कौवों को छोटी चीजों को औजार बना कर इस्तेमाल करने में महारत हासिल है। इसी तरह तोतें इन्सानो के बीच रहकर उनकी बोली सीख सकते हैं। इस तरह इन जीवों की सामाजिक शिक्षा की समझ, हमें इनके जल्द मूल्यांकन के लिए अवसर प्रदान कर सकती है।

इस शोध के प्रमुख शोधकर्ता फिलिप ब्रेक्स के अनुसार लम्बे समय से ही संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयास, जेनेटिक्स और पारिस्थितिकी पर निर्भर रहे हैं। जो आंकलन करते हैं कि जानवरों के विभिन्न समूह एक दूसरे से कितने अलग और कितने आपस में जुड़े हुए हैं। इस शोध से पता चलता है कि जीवों के बीच सामजिक शिक्षा और संस्कृति जीव विज्ञान का एक और महत्वपूर्ण पहलु है। जो संरक्षण के लिए प्रभावी रणनीतियां बनाने में मदद कर सकता है।

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