हाथियों के आक्रामक व्यवहार के लिए काफी हद तक दोषी है इंसानी हस्तक्षेप

रिसर्च से पता चला है कि हाथियों के झुंड प्राकृतिक जंगलों की तुलना में मानव-परिवर्तित घास के मैदानों में भोजन के लिए कहीं ज्यादा प्रतिस्पर्धा करते हैं
पश्चिम बंगाल के रिजर्व फॉरेस्ट में विचरण करता हाथियों का एक झुण्ड; फोटो: आईस्टॉक
पश्चिम बंगाल के रिजर्व फॉरेस्ट में विचरण करता हाथियों का एक झुण्ड; फोटो: आईस्टॉक
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जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च (जेएनसीएएसआर) द्वारा किए एक नए अध्ययन से पता चला है कि हाथियों के झुंड प्राकृतिक जंगलों की तुलना में मानव-परिवर्तित घास के मैदानों में भोजन के लिए कहीं अधिक प्रतिस्पर्धा करते हैं, भले ही उनके पास घास के मैदानों में प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध हो।

शोधकर्ताओं के मुताबिक घास के इन मैदानों में अधिक मात्रा में आहार उपलब्ध होने के बावजूद इन विशाल जीवों के बीच भोजन के लिए कहीं ज्यादा संघर्ष होता है। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि कैसे इंसानी गतिविधियां पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित कर सकती हैं और जीवों के सामाजिक व्यवहार को प्रभावित करती हैं।

जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च (जेएनसीएएसआर), भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग का एक स्वायत्त संस्थान है। अपने इस अध्ययन के दौरान इससे जुड़े वैज्ञानिकों ने मादा हाथी के नेतृत्व वाले इनके समूहों के भीतर और उनके बीच भोजन के वितरण के प्रभावों की जांच की है।

एशियाई हाथियों के कई लक्षण हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि वे आपस में कम आक्रामक प्रतिस्पर्धा करते हैं। उनका प्राथमिक आहार स्रोत घास और पौधों के हिस्से होते हैं, जोकि निम्न-गुणवत्ता वाले, बिखरे हुए संसाधन हैं। इनके बिखराव और प्रचुर मात्रा में उपलब्धता के कारण आपसी संघर्ष की आशंका घट जाती है। इनकी एक और खास विशेषता यह है कि यह झुंड जरूरत पड़ने पर छोटे-छोटे समूहों में भी बंट सकते हैं, जिससे स्थिति नियंत्रण में रहती हैं।

कुछ अन्य जानवरों के विपरीत, यह जीव विशिष्ट क्षेत्रों पर अपना दावा नहीं करते, और अक्सर आवास को दूसरे झुंडों के साथ साझा करते हैं। इससे हाथियों के विभिन्न समूहों के मिलने पर उनके बीच संघर्ष और मुठभेड़ की आशंका कम हो जाती है।

एशियाई हाथियों के समूह बड़े विशेष होते हैं जहां मादा झुंड का नेतृत्व करती हैं, जबकि नर अक्सर अकेले रहना पसंद करते हैं। इनके सबसे बड़े पारिवारिक समूह को कबीला कहते हैं। जो एक बड़े परिवार की तरह होता है। वहीं बड़े समूह के सदस्य छोटे-छोटे समूहों में शामिल हो सकते हैं। ऐसे में इनके समूह का आकार और उसके सदस्य कुछ घंटों में बदल सकता है। जो उनके सामाजिक जीवन को दिलचस्प बनाता है।

संसाधनों की बहुतायत के बावजूद क्यों बढ़ रहा संघर्ष

अपने इस अध्ययन में डॉक्टर हंसराज गौतम और प्रोफेसर टीएनसी विद्या ने 2009 से काबिनी हाथी परियोजना के हिस्से के रूप में एकत्र की हाथियों के व्यवहार संबंधी जानकारियों का विश्लेषण किया है। इस दौरान उन्होंने अलग-अलग हाथियों के व्यवहार को देखा और इस बात की जांच की कि क्या हाथियों के कबीले के भीतर शत्रुतापूर्ण विवाद (एगोनिज्म) और विभिन्न समूहों के बीच संघर्ष (एगोनिस्टिक मुठभेड़) मौजूद है।

रिसर्च के मुताबिक यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहां कितनी घास मौजूद है। घास कितने क्षेत्र में फैली है और एक समूह में कितने हाथी हैं। अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने काबिनी घास के मैदान और पास के जंगल में भी मौजूद हाथियों के व्यवहार का अध्ययन किया है। इससे पता चला है कि जंगलों की तुलना में घास के मैदानों में जहां बहुत सारा आहार होता है, वहां हाथियों के झुंड एक-दूसरे के बीच कहीं ज्यादा प्रतिस्पर्धा करते हैं।

यह उस मॉडल से मेल खाता है जिसे महिला सामाजिक संबंधों का पारिस्थितिक मॉडल (ईएमएफएसआर) कहा जाता है। इस मॉडल के मुताबिक खाद्य वितरण मुख्य रूप से समूहों के बीच और भीतर प्रतिस्पर्धा (और शारीरिक संघर्ष) को निर्धारित करता है। रिसर्च के अनुसार जहां प्रचुर मात्रा में भोजन होता है, जिस पर समूहों का या वैयक्तिक एकाधिकार हो सकता है, वहां हाथियों के एक-दूसरे से लड़ने की संभावना भी अधिक होती है।

रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस जर्नल में प्रकाशित इस अध्ययन के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक संसाधनों की उपलब्धता बढ़ने से अपेक्षा से विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं। यह दिलचस्प है क्योंकि अधिक आहार हमेशा चीजों को बेहतर नहीं बनाता है जैसा कि हम सोचते हैं। 

यह महत्वपूर्ण है क्योंकि इनका संबंध इंसानी गतिविधियों के चलते जीवों के प्राकृतिक आवासों में आते बदलावों से जुड़ा है। देखा जाए तो हम इंसान ऐसे बदलाव कर रहे हैं जो इन जीवों के एक साथ रहने के तरीकों और व्यवहार को प्रभावित कर रहा है।

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