
“तीन साल पहले डाबला तालाब की ऐसी हालत थी कि दिन में आने में भी यहां डर लगता था। चारों तरफ सन्नाटे के साथ सफेद धूल उड़ती थी। चूने की खानों के मलबे से समतल जमीन में कई पहाड़ खड़े हो गए थे। ना यहां मोर बचे और ना ही हिरण। बाकी जानवर तो 10-15 साल से दिखाई देने ही बंद हो गए। स्थिति इतनी विकट थी कि हमें यहां बने गुरू जसनाथ मंदिर में भी आने में डर लगता था।”
उत्तमदेसर गांव की शांति देवी जब यह बोल रही थीं, उनकी आंखों में रंज और गुस्सा दिखाई दे रहा था। पशु, पक्षियों और पौधों को हुए नुकसान का हिसाब उनकी आंखें मांग रही थीं, लेकिन इसके बाद उनकी मुस्कान लौटी। आंखों में चमक आई और बोलीं, “अब काफी बदलाव हुआ है। अब यहां हिरण, मोर, लोमड़ी, जंगली सूअर और सेवण जैसी घास भी फिर से उग आई है। गायों के लिए चारा हुआ है। बरसात के दिनों में तो यह इलाका इतना सुंदर हो जाता है कि घर जाने का भी मन नहीं करता।”
शांति देवी बीकानेर जिले से करीब 50 किलोमीटर दूर डाबला तालाब की कहानी हमें बता रही थीं। दरअसल, डाबला तालाब 207 एकड़ में फैला क्षेत्र है, जो इंदिरा गांधी नहर के क्षेत्र में आने से पहले आसपास के करीब 20 गांवों के लिए पानी का बड़ा स्त्रोत था, लेकिन बीते दो दशक से यहां जिप्सम खनन हो रहा था। अत्यधिक दोहन और अवैध खनन से तालाब भी सूखा और यहां का पारिस्थितिकी तंत्र भी पूरी तरह बिगड़ गया। यहां रहने वाले हिरण, जंगली सूअर, मोर, खरगोश पलायन कर गए।
कैसे बदली डाबला तालाब की सूरत?
साल 2022 में जब ग्रामीण जिप्सम के अवैध खनन से परेशान हो गए तब उन्होंने बीकानेर डूंगर कॉलेज में समाजशास्त्र के प्रोफेसर श्यामसुंदर ज्याणी को गांव में बुलाया। ज्याणी पिछले 20 साल से पर्यावरण संरक्षण का काम कर रहे हैं।
ज्याणी डाउन टू अर्थ से कहा, “खनन माफिया से लड़ना आसान काम नहीं है और अकेले तो यह काम हो ही नहीं सकता। इसीलिए मैंने सबसे पहले गांव में रहने वाले जसनाथी समुदाय को एकजुट किया। उन्हें 518 साल पहले हुए गुरू जसनाथ की पर्यावरणीय शिक्षाओं के आधार पर अपने साथ जोड़ा। समुदाय को सामुदायिक भूमि यानी चारागाह, जंगल, जीव-जंतुओं के साथ-साथ पर्यावरण के महत्व को समझाया। इस समझाइश में मैंने समुदाय को बताया कि रेगिस्तान में रेत जरूर है, लेकिन ये मृत नहीं है। जब समुदाय साथ आया तो जून 2022 हमने 104 गांवों में यात्रा की और डाबला तालाब के संरक्षण के लिए चंदा इकठ्ठा किया। इस यात्रा से हमारे पास करीब एक करोड़ रुपये जमा हुए। इस पैसे से सबसे पहले डाबला तालाब के रिकॉर्ड में दर्ज एरिया को निकाला गया और फिर इसकी तारबंदी की गई और इसकी सुरक्षा के लिए ग्रामीणों के साथ-साथ दो लोग भी तैनात किए। इससे क्षेत्र में अवैध खनन बंद हो गया। आज भी इन गांवों के लोग इस मुहिम से जुड़े हुए हैं।”
मानसून में रोपे स्थानीय पौधे और घास, बना दी नर्सरी
खनन बंद हुआ तो ग्रामीणों में एक विश्वास जगा। ज्याणी जोड़ते हैं, “मैंने पारंपरिक पौधरोपण ना करके सस्टेनेबल मॉडल को अपनाया। इसके लिए पारिवारिक वनीकरण (Familial Forestry) अवधारणा से काम शुरू किया। रिजेबुनेशन के इस काम में मेरा समाजशास्त्र का बैकग्राउंड काम आया। मैंने समाजशास्त्री इमाइल दुर्खीम की सामूहिक चेतना की अवधारणा को अपनाते हुए स्थानीय समुदाय को इस मिशन से जोड़ दिया। शुरूआत में थोड़ा समस्या हुई क्योंकि कुछ गांवों के लोगों का रोजगार भी इस खनन से जुड़ा हुआ था, लेकिन बाद में ग्रामीण भी साथ में आए। ग्रामीणों को पारिवारिक वनीकरण मॉडल के तहत परिवारों को पेड़ों को अपने परिवार के सदस्यों के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित किया गया, जिससे वे इन प्राकृतिक संसाधनों से भावनात्मक रूप से जुड़ सकें। पौधरोपण के साथ-साथ रेगिस्तानी इकोलॉजी को सपोर्ट करने वाली घास, स्वदेशी वनस्पतियां उगाई। इसमें खेजड़ी, सहजन, सेवण घास शामिल थीं।”
उत्तमदेसर गांव के रहने वाले भागीरथ मोटसरा (62) बताते हैं कि हमने पहले जमीन को समतल कर पौधे लगाने के लिए कहा, लेकिन प्रो. ज्याणी ने हमें ऐसा करने से रोक लिया। इसका कारण बताते हुए ज्याणी कहते हैं कि जमीन में सुधार करने की खुद की शक्ति होती है। इसीलिए हमने खनन के बाद जो स्थिति थी, उसे वैसा ही बने रहने दिया। आज इसका फायदा दिख रहा है। जिप्सम से बने कचरे के पहाड़ों पर घास उग आई है। उन पहाड़ों में गीदड़ों की गुफाएं हैं। कई प्रजाति के जीवों ने इनमें अपना घर बना लिया है।
समुदाय की मदद से ही जसनाथ मंदिर के पास ही एक नर्सरी बनाई गई है, जिसमें सहजन की पौध तैयार हो रही है। तीन साल में अब तक बीकानेर जिले सहित कई जगहों पर सहजन के 60 हजार से ज्यादा पौधे लोगों के बीच बांटे जा चुके हैं। ज्याणी बताते हैं कि पेड़ बांटने की इस मुहिम को हमने रूंख प्रसाद का नाम दिया है ताकि लोग पेड़ों के प्रति आध्यात्मिक रूप से जुड़ सकें।
भागीरथ बताते हैं कि तालाब क्षेत्र के जीर्णोद्धार के बाद यहां वे जीव-जंतु दिखाई देने लगे हैं जो 20-25 साल पहले दिखाई देते थे। इनमें गीदड़, हिरण, लोमड़ी, नीलगाय, खरगोश, काला तीतर, सांप, जंगली सूअर, उल्लू की प्रजातियां शामिल हैं। साथ ही डाबला तालाब क्षेत्र में काराकल, स्पिनी-टेल्ड लिजार्ड, एफेड्रा फोलियाटा और एशियाई जंगली बिल्ली जैसे संकटग्रस्त प्रजातियां भी यहां देखी गई हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र के मजबूत होने के अलावा खनन से प्रभावित ग्रामीण भी अब अपने-अपने गांवों में कब्जा ली गई या वीरान पड़ी ज़मीनों की सुध लेने लगे हैं। तालाब में जहां पहले खनन होता था, वहां सेवण जैसी दुर्लभ घास लहरा रही है। वहीं, पूरे 335 बीघा क्षेत्र में चंदे की उसी राशि से 12 जल स्त्रोत भी बनाए गए है ताकि जीव-जानवरों को पीने का पानी मिलता रहे। साथ ही पूरे क्षेत्र में छोटे पौधों को पानी देने के लिए रोजाना 50 हजार लीटर पानी उपलब्ध कराया जाता है। पानी के लिए सौर ऊर्जा से चलने वाला बोरवेल लगाया गया है। इन सब संसाधनों का संरक्षण ग्रामीण ही अपने स्तर पर करते हैं।
सस्टेनेबल प्रयासों में सामुदायिक भागीदारी से जलवायु परिवर्तन से लड़ना आसान
ज्याणी कहते हैं कि डाबला तालाब की कहानी यह साबित करती है कि हमें अपने सामुदायिक संसाधनों के संरक्षण के लिए खुद ही आगे आना होगा। यह कहानी सिर्फ पारिस्थितिक पुनरुत्थान की नहीं है, बल्कि यह इस बात का उदाहरण भी है कि सामुदायिक प्रयास पर्यावरणीय क्षरण को रोककर सतत विकास को बढ़ावा दे सकते हैं। संरक्षण के लिए स्थानीय समुदायों को साथ लेना बेहद जरूरी है तभी संरक्षण के प्रयास सफल होंगे।