जंगलों में हजारों वर्षों से निवास करने वाले आदिवासी वहां की जड़ी बूटियों से ही असाध्य रोगों का इलाज करते रहे हैं, लेकिन बदलते वक्त में अब जंगल की उन दुर्लभ जड़ी बूटियों की पहचान करने वाले कम ही लोग बचे हैं। जंगलों पर अधिकार खत्म होने की वजह से मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों में स्थानीय लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ रहा है और इस वजह से नई पीढ़ी के लोग इस ज्ञान से वंचित हो रहे हैं। डाउन टू अर्थ ने सतना जिले के मवासी आदिवासियों की ऐसी ही स्थिति दिखाई थी जिसमें सामने आया कि कभी जड़ी बूटियों पर महारत रखने वाला समाज धीरे-धीरे उस ज्ञान से दूर होता गया। नई पीढ़ी के लोग मजदूरी और पलायन की वजह से जड़ी बूटियों की पहचान नहीं सीख पा रहे और यह ज्ञान बुजुर्गों के साथ ही खत्म होता जा रहा है। इस विषय पर छोटे स्तर पर कई शोध हुए हैं जिसमें पता चला कि आदिवासी सांस की बीमारी जैसे अस्थमा, सर्दी खांसी, सांप के काटने का उपचार काला सिरिस नाम की जड़ी से करते हैं। धवा नाम के पौधे से कैंसर, जले का इलाज तक संभव है। इन जंगल में डायबिटीज, त्वचा रोग, हृदय रोग सहित कई बीमारियों के इलाज के लिए जड़ी बूटियां मिलती है।
हालांकि इन दवाओं की पहचान बरकरार रहे इसके लिए बड़े स्तर पर शोध की जरूरत है। इस जरूरत को समझते हुए मध्यप्रदेश सरकार ने पहल की है। भोपाल स्थित खुशीलाल आयुर्वेदिक कॉलेज के साथ मिलकर सरकार आदिवासी इलाकों में चल रही इलाज पद्धति और उसमें उपयोग होने वाले जड़ी-बूटियों के वैज्ञानिक आधार की पड़ताल कर रही है। इस शोध के दौरान इस बात का पता लगाने की कोशिश की जाएगी कि आदिवासी कौन सी दवा का इस्तेमाल इस बीमारी में करते हैं और यह किस तरह काम करती है।
डाउन टू अर्थ से बातचीत में पंडित खुशीलाल शर्मा आयुर्वेद कॉलेज के प्राचार्य डॉ. उमेश शुक्ला ने बताया कि मध्यप्रदेश सरकार का आदिवासी कल्याण विभाग इस शोध को करवा रहा है। इसकी जिम्मेदारी पंडित खुशीलाल शर्मा आयुर्वेद कॉलेज को मिली है। तीन साल तक चलने वाली इस रिसर्च में करीब छह करोड़ रुपए खर्च होंगे। शहडोल, अनूपपुर, डिंडोरी व मंडला जिले में यह रिसर्च की जाएगी। डॉ. शुक्ला बताते हैं कि इसपर काम शुरू हो गया है और शोध का क्षेत्र चुनने के समय आदिवासी बाहुल्य जिलों को चुना गया है। पहले चरण में वे हर जिले से वैसे लोगों की तलाश कर रहे हैं जो इन जड़ी बूटियों के बारे में जानकारी रखते हैं। इसके बाद कार्यशालाओं के माध्यम से एक एक जड़ी बूटी की पहचान, उसके उपयोग और उसमें मौजूद औषधीय गुणों को जांचा-परखा जाएगा। कॉलेज की रिसर्च लैब में इन दवाओं का गहराई से परीक्षण किया जाएगा। इसके बाद ग्रामीण इलाके के उन मरीजों से भी बातचीत की जाएगी और दवा के प्रयोग के बाद उनपर हुए असर के बारे में भी पूछा जाएगा।
तीन साल तक चलने वाले इस शोध के दौरान इन जड़ी बूटियों पर विस्तृत रिपोर्ट तैयार की जाएगी, जिसे बाद में आयुर्वेद के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया जा सकता है।