आज से 24 साल पहले मैं एक ऐसे गांव में गई जिसने शहरी विकास को लेकर मेरी समझ बदल दी थी। मैं बात कर रही हूं मध्य प्रदेश के बड़वानी जिले से छह किलोमीटर दूर नर्मदा नदी के किनारे बसे छोटी कसरावद गांव की। इस गांव के बारे में मैं कई सालों से सुन रही थी। यह वही गांव है, जहां समाज सेवी स्वर्गीय बाबा आम्टे ने नागपुर के अपने आनंद वन आश्रम से आकर अपनी कुटिया बनाई थी। उन्होंने प्रण किया था कि मैं भी इन आदिवासी गांव वालों के साथ ही सरदार सरोवर बांध में डूब जाऊंगा।
जब मैं बाबा आम्टे से मिली तो वह आराम कर रहे थे। हम सभी जानते हैं कि वह या तो लेट सकते थे या फिर खड़े रह सकते थे। बाबा आम्टे बैठ नहीं सकते थे क्योंकि उनकी रीढ़ की हड्डी में रॉड पड़ी हुई थी। मैं जब उनसे मिली तो उन्होंने पूरी गर्मजोशी से हाथ मिलाया और बोले कि तुम जैसे युवाओं से मिलकर अच्छा लगता है, हमारे देश के नौजवानों में समाज के प्रति कुछ न कुछ करने का जज्बा अभी बना हुआ है। उनकी बातों ने मुझे अपने समाज से जुड़ने और उनके लिए कुछ करने की प्रेरणा दी।
दिल्ली वापसी के बाद मैं अपना लक्ष्य तलाशने लगी? उसके बाद मैं नर्मदा के किनारे बसे लगभग 34 आदिवासी गांवों में गई। वहां मेरे लिए सबसे आश्चर्यजनक था औरत और मर्दों के बीच बराबरी का भाव। विकास की दौड़ में शहरी लोगों ने वो प्राकृतिक समानता खो दी जो प्रकृति के बीच बसे लोगों में थी। मैं उनकी जीवनशैली के साथ जुड़ने लगी। एक बार बाबा आम्टे ने कहा कि फला गांव में चली जाऊं, वहां एक आदिवासी महिला है जो बहुत अच्छी वक्ता है। उसे संदेशा देना कि बाबा ने कहा है कि वह बड़ौदा की एक बैठक में शामिल हो जाए। मैं उस आदिवासी महिला के गांव की ओर जा रही थी तो अपनी उसी संकुचित सोच के साथ थी कि मुझे वहां जाकर उस महिला के पति को बस बाबा का संदेश देना है। इतने भर से मेरा काम हो जाएगा।
मैं उस महिला के घर पहुंची और उसके पति से बोली कि बाबा का यह संदेश है, आप अपनी पत्नी को कल बड़ौदा भेज देना। इतना कहकर अपने कर्तव्य से इतिश्री समझ जैसे ही उसके घर से निकलने को हुई, उसके पति ने कहा, बहन आप यह संदेश मुझे क्यों सुना रही हैं? मेरी पत्नी खेत पर गई है। अभी आ जाएगी तो उसी से पूछ लेना कि वह जाएगी कि नहीं? उसके पति के बोल को सुनकर मुझे काफी अचरज हुआ।
मैं फटी आंखों से उसके पति को देखे जा रही थी और वह था कि मजे से बीड़ी के कश खींचे जा रहा था। आखिर मैंने अपनी उखड़ी हुई सांसों पर काबू पाते हुए कहा कि क्या आप अपनी पत्नी को नहीं कह सकते? इस पर उसने फिर बेलौस अंदाज में कहा कि अरे भाई उसे जाना है कि नहीं जाना है, यह तो वही तय करेगी न, मैं कैसे तय कर सकता हूं?
यह शब्द आज भी जब-तब मेरे कानों में गूंजते हैं। मैं यह सोचकर आश्चर्यचकित हो जाती हूं कि जिन्हें हमारा शहरी समाज या सरकार जंगली कहते हैं वह लोग हम कथित शहरी लोगों के मुकाबले लैंगिक समानता में कितना आगे हैं। औरतों की ऐसी आजादी के उदाहरण मैंने विकसित देशों में भी नहीं देखे थे। यह तो एक उदाहरण था। इसके अलावा मैंने देखा कि आप किसी आदिवासी घर में जब पहली बार जाते हैं तो अपने लिए चाय-पानी के इंतजाम की उम्मीद करते हैं।
लेकिन ऐसा नहीं होता। आदिवासी समाज की सोच है कि जब आप किसी आदिवासी के घर पर गए हैं तो आपका यह अधिकार है कि उसके घर के अंदर जाकर खुद ही घड़े से पानी निकाल लें या खाना बना लें। आदिवासी किसी तरह की छुआछूत नहीं मानते। क्या हम अपने शहरी घरों में इस तरह के माहौल की कल्पना कर सकते हैं?
यह कॉलम डाउन टू अर्थ, हिंदी पत्रिका के जून 2021 अंक में पहले प्रकाशित हो चुका है