राजस्थान में हाल ही में जारी एक अधिसूचना के बाद वन उत्पादों पर आश्रित समुदायों के बीच हड़कंप मच गया है। खासतौर से पश्चिमी राजस्थान में ऐसे समुदाय जो वन आधारित आजिविका चलाते हैं वे इस अधिसूचना के बाद सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे। इस अधिसूचना में राज्य सरकार ने पवित्र उपवन माने वाले जाने वाले ओरण को डीम्ड फॉरेस्ट यानी नामित वन मानने का प्रस्ताव किया है।
एक फरवरी, 2024 को यह अधिसूचना जारी की गई थी, जिसमें कहा गया था कि ओरण और आसपास के क्षेत्र डीम्ड फॉरेस्ट माने जाएंगे। इस अधिसूचना में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार ओरण, देव-वन और रुंध जैसे जंगल की जमीनों को डीम्ड फॉरेस्ट का दर्जा दिया जाएगा। इस अधिसूचना पर 3 मार्च, 2024 तक आपत्ति भी मांगी गई है।
जैसलमेर के सावता गांव में सुमेर सिंह ने डाउन टू अर्थ से कहा कि गौचर ओरण संरक्षक संघ राजसथान संगठन से जुड़े उनके समुदाय के लोग सरकार के इस निर्णय पर अपनी आपत्ति दर्ज करा चुके हैं।
वह कहते हैं कि समुदाय का ओरण के साथ गहरा लगाव है, जिसका सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है। सिंह के मुताबिक "गांव के लोग इस वन क्षेत्र का उपयोग मवेशी चराने, चारागाहों और अपनी आजिविका के लिए करते हैं। हमारे गांव में स्थित डीग्रे ओरण पर कम से कम 5,000 ऊंट और 50,000 भेड़ें निर्भर हैं।"
गांव के लोग इसी ओरण से अपनी आजीविका और दैनिक उपयोग के लिए जैसे गोंद, लकड़ी, वन उपज और जंगली सब्जियां हासिल करते हैं।
सिंह ने डाउन टू अर्थ को बताया कि समुदायों का मानना है कि एक बार ओरण को वन घोषित कर दिए जाने के बाद, वे वन उपज और वन क्षेत्र में झुंडों और भेड़ों तक पहुंच से वंचित हो जाएंगे। उनके कुछ घर ओरण के नजदीक भी स्थित हैं।
सिंह ने बताया कि “अगर राज्य के जरिए वन विभाग ने ओरण पर कब्जा कर लिया तो उनके समुदाय के लोगों को जमीन खाली करनी होगी। जबकि समुदाय के लोग इस ओरण में पूजा, अंतिम संस्कार और धार्मिक कार्यक्रम भी करते हैं।
राज्य सरकार की अधिसूचना के खिलाफ जिला कलेक्टर को सौंपे गए एक पत्र में संगठन ने इस बात पर जोर दिया है कि ओरण भूमि और पड़ोसी गांव आपस में जुड़े हुए हैं और घूमने के लिए उपयोग किए जाते हैं, इसलिए जंगलों में प्रतिबंध से आवाजाही प्रभावित होगी।
सिंह ने आरोप लगाया कि सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने उक्त श्रेणी के तहत इन जमीनों का प्रस्ताव करने से पहले समुदाय के सदस्यों से परामर्श या सुनवाई के लिए संपर्क नहीं किया। उन्होंने 2004 में जारी कपूर समिति की रिपोर्ट और राजस्थान सरकार द्वारा हाल ही में जारी अधिसूचना में विसंगतियों की ओर भी इशारा किया।
सिंह के मुताबिक सरकार ने इन ओराण को डीम्ड वन श्रेणी में चिह्नित किए जाने के बाद दिशानिर्देशों या नियमों के संदर्भ में स्पष्टता जारी नहीं की है। यहां कई मंदिर, पूजा स्थल और अलग-अलग स्वामित्व के तहत पंजीकृत भूमि हैं। इसलिए, अगर 1996 के गोदावर्मन फैसले को लागू भी किया जाए तो भूमि का उपयोग जंगल की परिभाषा के विपरीत होगा।
जिला कलक्टर को भेजी लिखित मांग में ग्रामीणों ने कहा कि ओरण भूमि मुख्यतः रेगिस्तानी इलाकों में आती है, इसलिए जंगल का शब्दकोषीय अर्थ लागू नहीं होता। उन्होंने कहा, "हालांकि वनों के संरक्षण के लिए सुप्रीम कोर्ट के इरादों की सराहना की जाती है, लेकिन ओरण इन मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं।"
सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में प्रैक्टिस करने वाली वकील पारुल गुप्ता ने कहा कि डीम्ड वन वे क्षेत्र हैं जिनमें वनों की विशेषताएं हैं लेकिन उन्हें न तो अधिसूचित किया गया है और न ही सरकार या राजस्व रिकॉर्ड में दर्ज किया गया है।
गुप्ता ने कहा “इस प्रकार ऐसी भूमि को और अधिक क्षरण से बचाने के लिए टीएन गोदावर्मन मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 12 दिसंबर, 1996 के एक आदेश द्वारा राज्य सरकारों को ऐसी भूमि की पहचान करने का निर्देश दिया था और कहा कि वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 की धारा 2 के तहत डीम्ड वनों सहित सभी 'वन' को इसके अंतर्गत कवर किया जाएगा।
गुप्ता गोदावर्मन मामले में एक हस्तक्षेप आवेदन में एक आवेदक का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। धारा 2 के प्रावधान के तहत केंद्र सरकार की अनुमति के बिना ऐसी वन भूमि पर खनन, वनों की कटाई, उत्खनन या बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के निर्माण जैसी गैर-वानिकी गतिविधि पर रोक लगाते हैं। हालांकि, यह कदम किसी भी व्यक्ति या समुदाय को चरने या पूजा करने के लिए जंगल में जाने से नहीं रोकता है।
गुप्ता ने कहा, 3 फरवरी, 2023 को अदालत में सौंपे गए जवाब में आवेदन में कहा गया है कि सूची अधूरी है और राज्य को इन जमीनों के पूरे विवरण और विवरण के साथ एक उचित सूची दाखिल करनी चाहिए। मामला अब 11 मार्च 2024 को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध है।
थिंक टैंक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो और क्लाइमेट एंड इकोसिस्टम टीम के प्रमुख देबादित्यो सिन्हा ने कहा, “लोगों का अपने अधिकारों के बारे में चिंतित होना स्वाभाविक है, खासकर जब सार्वजनिक जानकारी का अभाव है जो यह समझाती है कि "डीम्ड फॉरेस्ट' क्या है और यह उन्हें कैसे प्रभावित करता है।"
सिन्हा ने कहा कि राजस्थान सरकार को लोगों द्वारा उठाई गई चिंताओं को स्पष्ट करना चाहिए और उन्हें आश्वस्त करना चाहिए कि इन पारंपरिक रूप से संरक्षित क्षेत्रों में उनके अधिकार प्रभावित नहीं होंगे।