न कोरोना का भय, न लॉकडाउन का असर, यहां नहीं थमी जिंदगी

झारखंड की अनुसूचित जनजाति की 80 फीसदी आबादी जंगलों में रहती है और इनकी जिंदगी में अभी कोई बदलाव नहीं आया है
झारखंड के जंगलों में रह रहे लोगों का जीवन सामान्य रूप से चल रहा है। फाइल फोटो: विकास चौधरी
झारखंड के जंगलों में रह रहे लोगों का जीवन सामान्य रूप से चल रहा है। फाइल फोटो: विकास चौधरी
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मो. असग़र खान 

राजेश मुंडा चतरा के लावालौंग प्रखंड के मदनडीह गांव से आते हैं। लगभग 350 घर आबादी वाले इस गांव को  समुदायिक पट्टा मिला हुआ है। राजेश मुंडा बताते हैं कि गांव में अधिकतर परिवार वन अधिकार कानून के लाभार्थी हैं। आखिरी बार फरवरी में ग्रामसभा हुई थी। गांव में लोग लॉक का समर्थन दे रहे हैं और बाहरी लोगों की आवाजाही बंद है।

गांव पर आर्थिक असर के सवाल पर कहते हैं, “अभी यहां आर्थिक समस्या ज्यादा नहीं है। कुछ लोगों ने गेहूं काट लिया है, कुछ काट रहे हैं। महुआ चुनने में भी लगे हैं लोग। गांव में अभी कोरोना वायरस का वैसा भय नहीं हैं जैसा शहर में है। यहां के लोग घर और घर से खेत तक ही सीमित है। अभी तक इनका जीवन यापन इसी पर निर्भर है। आगे मुझे नहीं पता क्या होगा, लेकिन अगर ये माहामारी गांव तक फैली तब तो भयानक स्थिति पैदा हो जाएगी।”

2011 की जनगणना के मुताबिक 26 प्रतिशत झारखंड में ट्राईबल (अनुसूचित जनजाति) है। इसे आंकड़ों में देखे तो करीब 79 लाख, जिसका 80 फीसदी हिस्सा जंगलों में निवास करता है। झारखंड वन अधिकार मंच और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आईएसबी) हैदराबाद की एक अध्ययन रिपोर्ट कहती है कि झारखंड में कुल 32,112 गांवों में 14850 गांव जंगलों से लगे हैं। ग्रामीणों का 18,82,429.02 हेक्टेयर वनभूमि पर वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक और व्यक्तिगत हक बनता है, जबकि एक करोड़ से भी अधिक आदिवासी व अन्य वन परंपरागत वन निवासी इसके लाभार्थी हैं। रिपोर्ट के मुताबिक चतरा लोकसभा में करीबन 13-14 लाख लोग वन अधिकार कानून के लाभार्थी हैं।

आदिवासी एवं अन्य परंपरागत वननिवासी फिलहाल खेती और जंगलों में उपजने वाले फसलों से काम चला ले रहे हैं, लेकिन लॉक डाउन लंबा गया तो मुसीबत बढ़ेगी और अगर कोरोना का संक्रमण गांव-कस्बे तक पहुंचा ग्रामीणों पर जान और माल की दोहरी मार पड़ सकती है।

फादर जॉर्ज मोनीपल्ली झारखंड वन अधिकार मंच से जुड़े हैं और पिछले कई साल से वन अधिकार कानून के लाभार्थियों की लड़ाई लड़ रहे हैं। वो कहते हैं, “गांव के लोग जंगलों पर आश्रित पहले भी थे, आज भी हैं। इनकी 90 प्रतिशत जरूरतें गांव में पूरी हो जाती है, लॉकडाउन के कारण बस जंगलों में उपजने वाली चीजों की बिक्री नहीं हो पा रही है, जिससे थोड़ी परेशानी हो रही है।”

उन्होंने बताया कि सामाजिक दूरीकरण का पालन बहुत ज्यादा तो नहीं हो पा रहा है पर गांव में बाहर से किसी को भी प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा है।

फादर लातेहार जिला के चंदवा में रहते हैं। वो कहते हैं कि महुआडांड़ प्रखंड के रुद गांव, चीरो, मुर्तिया, लबरपुर, पहाड़कापू, मिर्गी समेत कई गांव में वो लगातार निगरानी कर रहे हैं।

दुमका के काठीकुंड प्रखंड के रामपुर के चरण कुमार भी अपने गांव का यही हाल बताते हैं। वो कहते हैं, राशन भी दो महीने को मिल चुका है, लेकिन संक्रमण और लॉक डाउन आगे बढ़ेगा तो बाजार, हाट की परेशानी भी बढ़ेगी।

लेखक अश्विनी कुमार चिंता इस बात को लेकर है कि सरकार कोरोना संक्रमण को देखते हुए शहर में जैसी व्यवस्था की है, ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं है। वो कहते हैं, “ग्रामीणों इलाके में सामान्य तौर पर आदिवासी प्राइमरी हेल्थ से वंचित है। कम्युनिकेशन मोड से दूर है। सड़कें नहीं हैं। आवागमन के साधन नहीं हैं। ऐसे समय में उन्हें कोई भी गंभीर समस्या होगी तो सोचिए परेशानी कितनी होगी।”

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