दुनिया में कहीं जंगलों को काटकर खेत बनाए जा रहे हैं, कहीं खेतों को हटाकर इमारतें और सड़कें बनाई जा रही हैं| बरसों से दुनिया में हर जगह भूमि में किसी न किसी रूप से बदलाव किए जा रहे हैं, लेकिन यह बदलाव कितनी जमीन को प्रभावित कर रहे हैं इसपर हाल ही में एक शोध किया गया है, जिससे पता चला है कि पिछले 6 दशकों के दौरान भूमि उपयोग में आ रहे बदलावों के चलते दुनिया की 32 फीसदी जमीन प्रभावित हुई है| यह बदलाव पिछले अनुमान की तुलना में चार गुना ज्यादा है|
शोध के अनुसार 1960 से 2019 के बीच करीब 4.3 करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बदलाव आया है, जिसका मतलब है कि 1960 से लेकर अब तक हर साल औसतन करीब 7.2 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बदलाव किया जाता है| यदि इस बदलाव के विस्तार का अनुमान लगाएं तो यह क्षेत्रफल में जर्मनी से करीब दोगुना बड़ा है|
इस शोध में भूमि उपयोग में आए बदलावों को समझने के लिए उन्हें 6 वर्गों में बांटा गया है, जिमसें शहरीकरण, कृषि, चरागाह, वन भूमि, घास से आच्छादित भूमि और भूमि जहां कोई वनस्पति नहीं है, वर्गों में विभाजित किया है| साथ ही बदलावों को समझने के लिए इस शोध में खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) द्वारा भूमि उपयोग से सम्बंधित आंकड़ों, जिन्हें लम्बी अवधि के दौरान संकलित किया गया है, उनकी मदद ली गई है| इसके साथ ही उपग्रहों से बहुत ही उच्च रिज़ॉल्यूशन पर लिए चित्रों का भी उपयोग किया गया है| शोध से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार विश्व की करीब 17 फीसदी भूमि में 1960 के बाद कम से कम एक बार बदलाव जरूर हुआ है|
इसमें भी स्पष्ट दिखता है उत्तर-दक्षिण का भेद
अनुमान है कि 1960 के बाद से पृथ्वी पर मौजूद कुल वन भूमि में करीब 8 लाख वर्ग किलोमीटर की कमी आई है, जबकि दूसरी तरफ कृषि भूमि में 10 लाख और चरागाहों में 9 लाख वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है| हालांकि यह बदलाव दुनिया के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग है| जहां यूरोप, पूर्वी एशिया, उत्तरी अमेरिका और रूस सहित उत्तर के देशों के वन क्षेत्रों में इसमें बढ़ोतरी हुई हैं वहीं दूसरी तरफ दक्षिण के विकासशील देशों में वन भूमि में कमी दर्ज की गई है| इसी तरह कृषि भूमि में भी यह भिन्नता साफ दिखाई देती है उत्तर के देशों में जहां कृषि भूमि में कमी आ रही है दक्षिण में इसमें बढ़ोतरी हो रही है|
शोधकर्ताओं के अनुसार उष्णकटिबंधीय जंगलों में कमी आने का सबसे बड़ा कारण वस्तुओं की बढ़ती मांग है| ब्राज़ील में अमेज़न के जंगलों को अभी भी मीट, सोयाबीन, पाम आयल और गन्नों की खेती के लिए अभी भी बड़ी मात्रा में काटा जा रहा है| इसी तरह नाइजीरिया और कैमरून में कोको के लिए जंगलों को नष्ट किया जा रहा है| इसी तरह तेल की बढ़ती कीमतों के चलते बड़ी मात्रा में जंगलों को बायोएनर्जी पैदा करने वाली फसलों के लिए काटा गया है|
भूमि उपयोग में जो बदलाव आए हैं उनमें से 38 फीसदी बदलाव पहली बार हुए हैं इस तरह के बदलाव मूलतः दक्षिण के विकासशील देशों में सामने आए हैं| पहली बार आए इस बदलाव की सबसे बड़ी वजह कृषि थी| जोकि पहली बार हुए बदलाव के करीब 48 फीसदी भाग के लिए जिम्मेवार थी| वहीं भूमि में आए बदलावों के 62 फीसदी हिस्से के लिए बार-बार हुए बदलाव जिम्मेवार थे| इस तरह के बदलाव मुख्यतः उत्तर के विकसित देशों और भारत, नाइजीरिया जैसी तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाओं में सामने आए हैं|
भूमि उपयोग में जो बदलाव हुए हैं वो हमेशा एक से नहीं रहे हैं समय के साथ इनमें उतार चढ़ाव भी आया है| जहां 1960 से 2004 के बीच इनमें तेजी से बदलाव आया था वहीं 2005 से 2019 के बीच इनकी रफ़्तार में कमी आई है| पहले जहां जंगलों को कृषि के लिए काटा गया था वहीं बाद में बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए भूमि उपयोग में बदलाव किया गया|
इसका एक प्रमुख उदाहरण 2008 में तेल की कीमतों में आई भारी वृद्धि थी| जब प्रति बैरल की कीमत 145.31 डॉलर से ऊपर चली गई थी| ऐसे में बायोएनर्जी के लिए कृषि पर जोर दिया जाने लगा था जिससे कच्चे तेल पर बढ़ती निर्भरता को कम किया जा सके|
भूमि उपयोग में आ रहा यह बदलाव इतना महत्वपूर्ण क्यों है, इसके बारे में इस शोध से जुड़ी प्रमुख शोधकर्ता करीना विंकलर ने बताया कि भूमि उपयोग जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता और खाद्य उत्पादन के लिए बहुत मायने रखता है| ऐसे में यदि भूमि के शाश्वत विकास के लिए नीतियां बनानी हैं तो इसमें आ रहे बदलावों को पूरी तरह समझना बहुत जरुरी है| गौरतलब है कि वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार दूसरा प्रमुख कारण भूमि उपयोग में आ रहा बदलाव ही है| साथ ही यह जैव विविधता को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित करता है|
पौधे और मिटटी बड़ी मात्रा में बढ़ते उत्सर्जन को सोख लेते हैं| अनुमान है कि इंसानों द्वारा किया जा रहा करीब 30 फीसदी उत्सर्जन जंगलों विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय जंगलों और मृदा द्वारा सोख लिया जाता है|
ऐसे में यदि इन जंगलों को काटा जाता है और भूमि उपयोग में बदलाव किया जाता है, तो हम पैरिस समझौते के लक्ष्यों को हासिल करने में पूरी तरह विफल हो जाएंगें| वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि पहले ही 1.2 डिग्री सेल्सियस को पार कर चुकी है ऐसे में यदि तापमान और बढ़ता है तो उसके बाढ़, तूफान, सूखा जैसे विनाशकारी परिणाम सामने आएंगें|