झारखंड के रहने वाले डॉक्यूमेंटरी फिल्ममेकर दीपक बाड़ा को उनकी डाॅक्यूमेंटरी “द अग्ली साइड ऑफ ब्यूटी” के लिए जापान सरकार ने पुरस्कार दिया है। 48 देशों से अलग-अलग कैटेगरी में 267 फिल्में प्रतिस्पर्धा में थीं, जिनमें से दीपक की फिल्म ने बाजी मार ली। लगभग 48 मिनट की ये फिल्म झारखंड के कोडरमा व गिरिडीह जिलों में अवैध ढंग से हो रहे अभ्रक खनन पर आधारित है और इसके केंद्र में खनन मजदूर हैं। अभ्रक का इस्तेमाल प्रसाधन सामग्री से लेकर लैपटॉप, कम्प्यूटर समेत एक दर्जन सामान बनाने में होता है। एक अनुमान के मुताबिक, झारखंड की लगभग 10 लाख आबादी अभ्रक खनन से जुड़ी है। लेकिन, खनन से जुड़े लोगों को बहुत कम मजदूरी मिलती है और किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं दी जाती। 40 वर्षीय दीपक बाड़ा 15 साल से डॉक्यूमेंटरी फिल्मों से जुड़े हुए हैं। उनका जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ। उनके दादा ब्रिटिश नेवी में फिटर थे। पिता रामगढ़ में कोलियरी में नौकरी करते थे। उनका जन्म वहीं हुआ, तो बचपन से उन्होंने कोयला खनन बहुत करीब से देखा। वे अब तक 50 से अधिक डाॅक्यूमेंटरी बना चुके हैं। उमेश कुमार राय की उनसे हुई बातचीत के मुख्य अंश-
अभ्रक खनन पर डाॅक्यूमेंटरी बनाने का खयाल कैसे आया?
मैं लम्बे समय से सोशल एक्टिविज्म करता रहा हूं। झारखंड के मुद्दों पर मैं लम्बे समय से डाॅक्यूमेंटरी बनाता रहा हूं। कुछ साल पहले मैंने अभ्रक खनन पर कुछ डाॅक्यूमेंटरी देखी, लेकिन वो एकपक्षीय थी। इन्हें बालश्रम की दृष्टि से बनाया गया था। उस वक्त मुझे लगा कि अंतरराष्ट्रीय मंच में इस मुद्दे को केवल बाल मजदूरी के नजरिए से दिखाना सही नहीं है। मैंने महसूस किया कि ये समुदायिक मुद्दा है, शासन की विफलता का मुद्दा है। अंतरराष्ट्रीय मंच तक अभ्रक खनन की अधूरी बात पहुंच रही थी। इसे ध्यान में रखते हुए डाॅक्यूमेंटरी बनाने के लिए एक प्रस्ताव तैयार किया और एक प्रोडक्शन कंपनी को भेज दिया। ये कंपनी सीएनए इनसाइडर के साथ मिलकर डाॅक्यूमेंटरी बनाती है। मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया और इस तरह डाॅक्यूमेंटरी बनाने की राह निकल पड़ी।
डाॅक्यूमेंटरी बनाते हुए क्या दिक्कत आई?
खनन क्षेत्र में पहुंचना एक मुश्किल काम था। अभ्रक खदान में जाने और शूट करने की अनुमति नहीं मिल रही थी, लेकिन काफी मशक्कत के बाद हम खदान तक पहुंच पाए। खनन से जुड़े लोग बात करने को तैयार नहीं थे। उन्हें किसी तरह मनाया गया। आपको हैरानी होगी कि कोडरमा में 10 लाख आबादी की रोजी-रोटी अभ्रक खनन से चलती है, लेकिन किसी अखबार में अभ्रक खनन बीट नहीं है इसलिए अखबारों से बहुत कुछ नहीं मिला। शोध के स्तर पर भी दिक्कतें आईं। कुछ स्थानीय पत्रकार और सिविल सोसाइटीज ने हमें बहुत सहयोग किया। उन्होंने खदान तक पहुंचने और भुक्तभोगियों से बात करने में हमारी मदद की। इसके बाद हमने सिंगापुर में काॅस्मेटिक निर्माण को शूट किया, क्योंकि अभ्रक का बड़ा हिस्सा प्रसाधन सामग्री बनाने में खपता है।
क्या आपको पता था कि फिल्म को सराहना मिलेगी?
जब फिल्म बन गई थी, तो मैंने इसे समाज के विशिष्ट लोगों को, अपने सीनियर्स को दिखाया था। उन्होंने कहा कि फिल्म उम्दा बनी है और इसे फिल्म फेस्टिवल के लिए भेजनी चाहिए। मैंने प्रोडक्शन कंपनी से कहा कि इसे जापान के फिल्म फेस्टिवल में भेज दीजिए। इस तरह ये फिल्म अवाॅर्ड तक पहुंची।
डाॅक्यूमेंटरी करते हुए कोई एक जानकारी, जिससे आपको हैरानी हुई हो वैसे तो बहुत बातें हैं, जिन्होंने हैरान किया, लेकिन यहां ताराघाटी का जिक्र मैं करना चाहता हूं। ताराघाटी एक इलाका है, जहां भुइयां समुदाय रहता है। इन्हें दशकों पहले जमींदार अभ्रक खनन करवाने के लिए लेकर आए थे। ये लोग झोपड़ियों में रहते हैं, लेकिन जिस जमीन पर रहते हैं, वहां उनका मालिकाना हक नहीं है। वे बहुत ही दयनीय हालत में गुजर बसर करते हैं। हमें पता चला कि इनमें से हर परिवार का कोई न कोई सदस्य लापता है। दरअसल ये लोग अंडरग्राउंड खदान में दबकर मर गए, लेकिन किसी आंकड़े में वे नहीं आए। अफसोस की बात है कि वे लोग इसको लेकर आवाज तक नहीं उठा पाए। नीतिगत स्तर पर ये एक बड़ी विफलता है। हालांकि हमारी डाॅक्यूमेंटरी में इनकी कहानी नहीं आ पाई क्योंकि फिल्म की भी अपनी सीमा होती है।
हर फिल्ममेकर का सपना होता है कि वो मुंबई में जाए, आपका क्या सपना है?
मेरा सपना झारखंड में आदिवासियों, यहां के निवासियों से जुड़े मुद्दों पर बहुत सारी फिल्में बनाना है। इसलिए मैं झारखंड में ही रहूंगा। झारखंड में एक चौथाई से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। उनके बहुत सारे मुद्दे हैं, उनकी अपनी समृद्ध संस्कृति है, जिस पर मुख्यधारा की फिल्में बननी चाहिए। आदिवासियों का इतिहास मौखिक रहा है, तो उनको सिनेमा में लाने का बड़ा स्कोप भी है। मेरा फोकस इसी पर केंद्रित रहेगा।
क्या आपको लगता कि आदिवासियों के मुद्दों पर बनी फिल्मों को आम दर्शक स्वीकार करेगा?
बिल्कुल, करेगा। अभी आप देख रहे हैं कि दलित केंद्रित विषयों पर बहुत सारी फिल्में बन रही हैं, उसी तरह आदिवासी केंद्रित फिल्में भी बननी शुरू हो गई हैं। दक्षिण के फिल्म निर्देशक आदिवासियों पर केंद्रित फिल्में बना रहे हैं। इन फिल्मों का एक बड़ा दर्शक वर्ग भी है, तो मुझे लगता है आदिवासी केंद्रित फिल्मों में काफी संभावनाएं हैं।
आप एक्टिविस्ट भी रहे हैं और अब फिल्में भी बना रहे हैं, तो क्या ये माना जाना चाहिए कि आपकी फिल्मों में भी एक्टिविज्म का पुट रहेगा?
मेरा मानना है कि फिल्म मेकिंग और एक्टिविज्म बहुत अलग नहीं है। दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। मैं चाहता हूं ऐसी फिल्में बनाऊं, जिससे आदिवासियों के मुद्दों को दोबारा प्रमुखता से उठाया जा सके। अभ्रक पर बनी इस डाॅक्यूमेंटरी के बाद अब खनन विभाग में कुछ सक्रियता दिखाई रही है। अभ्रक खनन पर अब नये सिरे से बहस शुरू हुई है। सोशल एक्टिविस्ट भी सक्रिय हुए हैं, तो उम्मीद करता हूं कि इस फिल्म के चलते अभ्रक खनन से जुड़े गरीब लोगों के कल्याण के लिए सरकार भी जरूर कुछ सोचेगी।
चूंकि डॉक्यूमेंटरी बनाते हुए आपने अभ्रक खनन को नजदीक से देखा है, तो बता सकते हैं कि अभ्रक खनन की सही नीति क्या हो सकती है?
माइका खनन में दो किरदार हैं- एक वे लोग जो सिर्फ दो वक्त की रोटी के लिए दिनभर अभ्रक निकालते हैं और दूसरा बड़े व्यावसायिक घराने हैं, जो इस अभ्रक के जरिए मोटी कमाई कर रहे हैं। अभ्रक के पूरे कारोबार में पहले किरदार यानी गरीब-कमजोर वर्ग की हालत बहुत बुरी है। दिलचस्प बात यह है कि जिस इलाके में खनन हो रहा है, वो संविधान की अनुसूची 5 और पेसा एक्ट के अधीन है, लेकिन खनन पर आदिवासियों, जमीन के मालिकों का कोई अधिकार नहीं है बल्कि वे मजदूर हैं। मुझे लगता है कि अभ्रक हो या कोई और खनिज, खनन का अधिकार समुदाय को देना चाहिए, यही खनन की सबसे सही नीति हो सकती है। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक मूलनिवासियों के साथ अन्याय होता रहेगा।
अभ्रक खनन में बहुत सारे बच्चे भी शामिल होते हैं, उनके लिए क्या किया जा सकता है?
देखिए, अभ्रक खनन में बच्चे इसलिए आते हैं क्योंकि उनके माता-पिता की कमाई इतनी नहीं है कि वे बच्चों को पढ़ा सकें। अभ्रक खनन में बाल मजदूरी बड़ी समस्या का एक लक्षण है। इसलिए लक्षण की जगह बड़ी समस्या का समाधान होना चाहिए। बालश्रम की वजह गरीबी है, इसलिए इसे रोकने के लिए परिवारों को अच्छी कमाई का स्रोत मुहैया कराना चाहिए। अगर परिवार की कमाई अच्छी होगी, तो वे बच्चों को काम करने के लिए भेजने की जगह स्कूल भेजेंगे।
अभ्रक खदान में काम करने वाले बाल श्रमिकों के लिए सरकार कुछ कर रही है?
ग्राउंड पर काम करते हुए मुझे ये मालूम चला कि बालश्रम को रोकने के लिए पुलिस कभी कभार छापे मारती है। लेकिन ऐसी सांठगांठ है कि छापे मारने से पहले ही लोगों को मालूम हो जाता है और बच्चे छिप जाते हैं। दूसरी बात यह है कि अभ्रक खनन में लगे बच्चों का कोई मालिक नहीं होता, वे अपनी मर्जी और अभिभावक की मर्जी से काम करने जाते हैं, इसलिए इन्हें बाल मजदूर साबित कर पाना भी मुश्किल है। इसके अलावा सरकार चाहती है कि अभ्रक खदान को रेगुलेट करे, लेकिन इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ है अब तक।
आपके नजरिए से सतत विकास लक्ष्य की आदर्श स्थिति क्या हो सकती है?
जो लोग दिनभर अभ्रक का खनन करते हैं, उन्हें व्यापारी से एक किलोग्राम शुद्ध अभ्रक की कीमत केवल 45 से 50 रुपए मिलती है, लेकिन यही अभ्रक प्रसाधन सामग्री बनाने वाली बड़ी कंपनियां लाखों में बेचती हैं। केवल 50 ग्राम अभ्रक को प्रसाधन कंपनी 7,000 रुपए से भी अधिक कीमत पर बाजार में बेचती है। इसके अलावा तमाम दूसरी चीजें बनाने में भी अभ्रक का इस्तेमाल होता है, लेकिन ये कंपनियां अभ्रक खनन करने वाले मजदूरों के बारे में नहीं सोचती। मुझे लगता है कि पूरी इंडस्ट्री को ही इस पर मंथन करने की जरूरत है।