साहित्य में पर्यावरण: संरक्षण का ककहरा

सेवाग्राम में स्थित गांधी आश्रम पर्यावरण, इतिहास और मानव का एक अच्छा संगम है
साहित्य में पर्यावरण: संरक्षण का ककहरा
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पर्यावरण एवं प्रकृति साहित्य में हमेशा से ही मौजूद रहे हैं। फिर चाहे फूलों को लेकर लेखन हो अथवा प्राकृतिक परिवेश में किसानों की जीविका की बात हो। अमलतास, पलाश, अपराजिता, हरसिंगार इन सभी पुष्पों का साहित्य में उल्लेख किया गया है। तीज त्योहारों पर हो रही रस्में भी प्रकृति से जुड़ी हुई हैं। फिर पॉपुलर कल्चर में फिल्मों और टीवी सीरियल में भी प्रकृति और पर्यावरण में मानवीय संवाद भी हमेशा से रहे हैं।

गुलज़ार साहब की कविता ‘अमलतास’ में इस पेड़ का जिक्र किया गया है। कवि दुष्यंत कुमार की कविता ‘तूने यह हरसिंगार हिला कर बुरा किया’ वाकई में हरसिंगार के पेड़ से ज़मीन पर सितारों की तरह बिखरे हुए फूलों के चित्र को जीवित कर जाती है। फिर पलाश के गाढ़े लाल फ़ूलों का ज़िक्र रबिन्द्र नाथ टैगोर के जाने माने संगीत ‘ओरे ग्रिहोभाषी’ में किया गया है।

उसी तरह अंग्रेजी और अन्य भाषाओ के साहित्य में कहानियां एवं पात्र प्रकृति के आस पास केंद्रित हैं जैसे रुडयार्ड किपलिंग की लोकप्रिय‘जंगल बुक ’ जिसमें महुआ से लेकर पलाश के लाल फूलों का अप्रत्यक्ष तरह से बेहद खूबसूरती से वर्णित किया गया है। इन कहानियों में मध्य प्रदेश के जंगल एवं वैनगंगा नदी के आसपास के जीवन को बखूबी दर्शाया गया है। विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता ‘डैफ़ोडिल्स’ तो सभी को बचपन के दिनों से याद है।

पिछले कई माह से किसानों के मुद्दों पर विचार विमर्श किया जा रहा है। बीते दिन वर्धा जिला घूमने का अवसर मिला। सेवाग्राम में स्थित वहां गाँधी जी का आश्रम है जो बापू कुटी के नाम से मशहूर है।

यहाँ पर एक 1936 में लगा पीपल का पेड़ है जो बापू ने स्वयं ही लगाया और सींचा था। उसके सामने एक तुलसी के पौधे का बहुत घना और बड़ा पौधा है जहाँ तुलसी के पत्तों की भीनी-भीनी खुश्बू पूरे वातावरण को मनमोहक बना देती है।

पर्यावरण, इतिहास और मनुष्य का इससे अच्छा मेल वह भी प्रकृति की गोद में बहुत कम ही देखने को मिलता है।

वर्धा जिले में जब थी तो सेलू तहसील में जाना हुआ। यहाँ कुछ किसानों की ज़मीन पहाड़ों और बोर डैम के नज़दीक हैं। वहां बातचीत करते हुए कई किसानों ने बताया की जंगली जानवर आकर कभी-कभी फसल खराब कर दिया करते हैं, जिसके चलते किसानों को रात में पहरा देने वहां जाना पड़ता है। इन बातों को सुनकर प्रेमचंद की कहानी ‘पूस की रात’ की याद आ गयी।

हल्कू और जबरा का रात में खेत पर जाना। जहाँ जबरा हल्कू का पालतू उसके साथ रहता है, वहीं हल्कू अपने खेत का बचाव करने कड़ाके की ठण्ड में खेत का पहरा देने जाता है।

उसी प्रकार कई ऐसे भी किसान मिले जिन्होंने गर्मी के मौसम में पानी की कमी में सूखा पड़ जाने के कारण अपनी बेहाली बयान की। वर्धा जिला किसान आत्महत्या की त्रासदी से ग्रस्त है।

इस बातचीत के दौरान शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कहानी‘महेश’ की याद आयी जो की गफूर नामक किसान और उसके बैल महेश पर आधारित है और उन दोनों के रिश्ते को सूखे से पीड़ित जीवन के बीचों बीच दर्शाती है।

ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार आज का किसान अपने पशुओं पर निर्भर है और कर्जा, सूखे, और अन्य समस्याओं के बीच जंगली जीव जंतुओं से भी अपने खेत खलिहानों का संरक्षण कर रहा है। दोनों ही कहानियों में किसानी की स्थिति को बताया गया है जो आज भी उतनी ही विकट है और प्रकृति पर निर्भर एवं उसके आसपास केंद्रित है।

उसी ‘अमरावती कथलु’ जो की सत्यम संक्रामंची के द्वारा तेलुगु में लिखी गयी और श्याम बेनेगल द्वारा हिंदी धारावाहिक ‘अमरावती की कथाएं’ बहुत सी ऐसी कहानियां हैं जो कृष्णा नदी के आसपास किसानी, छोटे रोज़गार और सीधी-सादी जीवन शैली का कथन करती हैं। उसी प्रकार नागार्जुन का उपन्यास ‘बाबा बटेसरनाथ’ एक बूढ़े बरगद के पेड़ की कहानी है जो की गांव की जीवन शैली जो पेड़ से जुडी हुई है और विकास के बीच के द्वन्द को दर्शाती है।

तीन दशक से अधिक समय तक नर्मदा नदी पर बांध के विरोध को लेकर आंदोलन चला। इस आंदोलन ने भी साहित्य का ध्यान खींचा है। इसी आंदोलन की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए वीरेंदर जैन द्वारा उपन्यास ‘डूब’ भी पठनीय है। उन्होंने इस पुस्तक में पर्यावरणीय क्षति की बात करते हुए किसानों के आंदोलन की रूप-रेखा खींची है। साहित्य में विकास कार्यों के कारण होने वाली पर्यावरणीय क्षति को लेकर एक कहानियों और उपन्यासों की एक श्रृंखला मौजूद है।

क्षमा शर्मा द्वारा लिखित उपन्यास ‘शस्य का पता ’ जो की बाराखंभा रोड पर हुए विकास कार्यों की वजह से गायब होते तोतों और परिंदों की बातें करता है, यह उपन्यास भी पठनीय है।

साहित्य एवं पॉपुलर कल्चर में परस्पर पर्यावरण एवं उसके आस-पास केंद्रित मानवीय संवाद और मानवता का उल्लेख हमेशा से रहा है।

हालांकि इस प्रकार की कहानियां, उपन्यास, एवं निबंध, नीति, स्कूल एवं कॉलेज के पाठ्यक्रमों में जरूर होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर देश में सूखा और पानी की किल्लत दो बहुत अहम् मुद्दे हैं। आजकल हम पुराने ज़माने के पानी के स्त्रोतों की बात किया करते हैं - कैसे बाओली, तालाब और अन्य प्रकार के पानी का संरक्षण करते माध्यम ज़्यादा किफायती थे। इसी परिपेक्ष में अनुपम मिश्र जी की किताबें ‘आज भी खरें हैं तालाब’ और ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ का ख्याल आता है।

इन दो किताबों को पाठ्यक्रमों में शामिल करना चाहिए ताकि बच्चों को इनकी शिक्षा पहले से ही मिल सके और वे बड़े होकर पर्यावरण संरक्षण एवं जलवायु परिवर्तन के पहलुओं को समझे। आजकल स्कूलों में सतत विकास लक्ष्यों की बात की जाती है। ऐसे में जरूरी है कि सार्वजनिक नीतियों की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों को भी यह समझाया और बताया जाए। इसके अलावा प्रशासनिक अमलों के लोग सभी को जल संरक्षण से जुड़े ऐसा सहज ज्ञान जरूर दिया जाना चाहिए ताकि वह जटिल कार्यों के बीच संरक्षण के काम को बेहतर तरीके से लागू कराने में सक्षम हों। साहित्य समस्याओं को समाज के नजरिये से ढूंढने एवं समझने का काम करता है।

(लेखिका नई दिल्ली में सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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