साहित्य में पर्यावरण: सदियों से जैव विविधता को संरक्षित कर रही है तमिल संस्कृति और परंपरा

प्रकृति के प्रति संवेदनशील समाज ने अपने नियम और कायदे बनाए थे, जिन्हें साहित्य में विशेष स्थान दिया गया था
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा
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वर्तमान में हो रहे पर्यावरणीय क्षरण से मुकाबला करने के लिए अब हमें बड़ी ताकत की दरकार है। यही कारण है कि अब हम अपने अतीत और अपनी प्राचीन परंपराओं का गहराई से अध्ययन करने के लिए विवश हो गए हैं। हमारे पूर्वज हों या हमारा प्राचीन समाज उनकी भाषा-परंपरा और संस्कृति पूरी तरह से प्रकृति के प्रति जागरूक थी। इसके चलते पर्यावरण का संतुलन बना रहता था। विकास की पहली मांग आधुनिकीकरण है। प्राचीन समाज प्रकृति के प्रति संवेदनशील होने के कारण कम नुकसान वाला साबित रहा है। भूमि के वैकल्पिक उपयोग और कम से कम संभव नुकसान के साथ पुराने समाज ने विकास किया।

उदाहरण के लिए, चोल राजा ने धान की खेती के लिए उपजाऊ भूमि तैयार करने हेतु जंगल कटवाए थे। भौतिक उन्नति की हड़बड़ी के कारण कहीं न कहीं हमने अपनी परंपरा के साथ-साथ अपनी संवेदनशील संस्कृति को भी खो दिया है। इस कारण हमारी अपनी प्रकृति और धरती मां पर हमला जारी है। पर्यावरण-साहित्य प्रकृति के नुकसान को उजागर करते हुए हमारी दृष्टि को पुनः प्राप्त करने और हमारी सामाजिक चेतना के पुनर्निर्माण के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। यदि विकास की यह अंधी दौड़ नहीं रुकी तो भविष्य में हमें बड़ा झटका लग सकता है , इसकी चेतावनी भी यह साहित्य ही देता है ।

प्राचीन तमिल परंपरा ने प्रकृति की ताकत को समझा और उसे चित्रित किया है। “प्रकृति” को अक्सर मनुष्यों की दुनिया से दूर और समाज की “संस्कृति” के बाहर की एक इकाई के रूप में चित्रित किया जाता है। लेकिन प्राचीन काल से प्रकृति “भाषा” के निर्माण का हिस्सा रही है और मानव जाति के प्रारंभिक “शब्द” प्राकृतिक तत्वों से निकटता से जुड़े थे।

प्रकृति और भाषा का मां बच्चे का संबंध रहा है। यह स्वाभाविक है कि भाषा और बुद्धि का उपोत्पाद होने के फलस्वरूप साहित्य प्रकृति को कभी बहुत बाहरी रूप से तो कभी सूक्ष्म बारीकियों के साथ चित्रित करता है। राजेश सुब्रमण्यम ने अपने लेख में कहा है कि शास्त्रीय तमिल साहित्य इस धारणा का उदाहरण है।

तमिल साहित्य में पांच पारिस्थितिक क्षेत्र अथवा ईको जोन

विभिन्न प्राचीन तमिल साहित्य जैसे थोलकाप्पियम, शिलप्पदिकारम , मणिमेखलाई, पट्टुपट्टू, इत्यादि को संगम साहित्य के नाम से वर्गीकृत कियाशिलप्पदिकारम है और इनमें लगभग पांच पर्यावरण-क्षेत्रों का उल्लेख है जिन्हें थिनई के नाम से जाना जाता था । पांच थिनई या इको जोन इस प्रकार थे - कुरिंजी (पहाड़ी क्षेत्र), मुलई (देहाती क्षेत्र), मरुथम (नदी कृषि क्षेत्र), निधल (तटीय क्षेत्र) और पलाई (शुष्क, रेगिस्तानी क्षेत्र) । प्रत्येक क्षेत्र का एक विशेष पेड़ , जानवर, पक्षी, फूल और अपना स्वयं का एक देवता होता था ।

थिनई का एक अर्थ प्रत्येक क्षेत्र के लिए उपयुक्त व्यवहार या संस्कृति भी था और यह माना जाता था कि पर्यावरणीय कारकों ने संस्कृति और व्यवहार को प्रभावित किया है। संगम साहित्य में वृक्षों को देवताओं का निवास स्थान भी माना जाता था । मंदिर में पूजा किए जाने वाले और गांव, मंदिर या देवता से जुड़े पेड़ों को स्थालवृक्ष या पवित्र वृक्ष के रूप में जाना जाता है। मंदिर निर्माण के समय यह पूरा ध्यान रखा जाता था कि इन पेड़ों को कोई नुकसान न पहुंचे ।

पौधों की चिंता

वेल वेलिर वंश का एक शासक था, जिन्हें आखिरी संगम युग में उनकी उदारता के लिए जाना जाता था और वे अंतिम सात संरक्षक (कडै एळु वळळ लगळ) में से एक के रूप में लोकप्रिय थे। संगम साहित्य में इनकी प्रसिद्धि का वर्णन “முல்லைमुल्लैक्कु तेरकोडुत्तान पारि” के रूप में किया गया है यानी वह जिसने अपना रथ एक लता पौधे को दे दिया। कहा जाता है वेल ने एक बार एक लता वाले पौधे को देखा जो कोई सहारा न मिलने के कारण ठीक से बढ़ नहीं पा रही थी। यह देखकर ने उस लता को अपना रथ दे दिया। अव्वय्यार ने बहुत ही सरल भाषा में बताया है कि अगर भूमि समृद्ध हो तो जलस्तर बेहतर बना रहता है जिसके कारण फसल अच्छी होती है और नागरिकों का जीवन स्तर बेहतर बनता है। और बदले में यह राजा की शक्ति बढ़ाता है। जैसे-जैसे खेत की मेड़ ऊपर उठेगी वैसे वैसे जलस्तर बढ़ेगा / जलस्तर बढ़ेगा तो फसलें बेहतर होंगी /फसलें अच्छी उगेंगी तो लोग बेहतर जीवन जीएंगे/ लोग बेहतर जीवन जीएंगे तो राज्य समृद्ध होगा /राज्य समृद्ध होगा तो राजा का मान बढ़ेगा ।

वर्षा का महत्व

तिरुवल्लुवर ने कहा है - नीर इंद्री अमैयाथु उलागु - जल के बिना जीवन नहीं है। इस दोहे में तिरुवल्लुवर आगे चेताते हैं कि अगर बारिश नहीं हुई तो लोगों का नैतिक पतन हो जाएगा। हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन को बढ़े हुए अपराधों से जोड़ने वाले दिलचस्प अध्ययन सामने आने लगे हैं। पानी के बिना धरती नहीं रह सकती /और बारिश के बिना नैतिकता नहीं । तिरुवल्लुवर ने तिरुक्कुरल में ‘वन सिरप्पू’ (‘बारिश की स्तुति’) में शीर्षक के साथ एक अलग अध्याय (द्वितीय, संख्या 11-20) समर्पित किया है। हैं: दुनिया बारिश के कारण जीवित रहती है और इसलिए बारिश को अमरता का अमृत माना जाता है/ इस दुनिया में दान और तपस्या दोनों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा,अगर बादल परोपकारी नहीं रहे ।

वर्षा जल संचयन और प्रबंधन

अकानानुरु संगम साहित्य का एक आत्मविश्लेषी उदाहरण है लेकिन इसके गीतों में प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति एक विशिष्ट चिंता देखी जा सकती है। अकानानुरु में एक गीत में उल्लेख किया गया है कि कैसे एक माँ अपने नवजात शिशु की रक्षा के लिए अपनी नींद का त्याग कर देगी, ठीक उसी तरह जैसे झीलों पर पहरा देने के लिए नियुक्त चौकीदार । तोलकापियम, एक शक्तिशाली सेना का मुकाबला करने के लिए लिए कूच करते योद्धा और बहते पानी के बल को रोकने वाले बांधों के बीच तुलना करता है। इस तरह यह गीत बांधों के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डालता है ।

कई कविताओं में जलाशयों के निर्माण पर ध्यान देने वाले राजाओं की प्रशंसा की गई है। पुरानानुरू (संगम साहित्य का बहिर्मुखी हिस्सा) के कुछ हिस्सों में जलाशयों के निर्माण में ध्यान देने योग्य बातों की चर्चा की गई है। एक अन्य स्थान पर निचले इलाकों में जलाशयों का निर्माण कराने वाले राजाओं को अमर कहा गया है। पांच महान महाकाव्यों में से एक माना जाने वाला , इलांगो आदिगल द्वारा रचित शिलप्पदिकारम झीलों और तालाबों के निर्माण के माध्यम से वर्षा जल का संचयन करके अपने देश को उपजाऊ बनाने वाले राजाओं की प्रशंसा करता है। जैसा कि उनकी कविताओं से स्पष्ट है, कई कवियों के लिए पानी उतना ही व्यक्तिगत था जितना कि वह राजनैतिक या सामाजिक था। जलाशयों की तुलना नवजात शिशुओं से की गयी है और उनकी रक्षा एवं पोषण पर जोर दिया गया है ।

जैव विविधता के संरक्षण का तरीका

तमिल परंपरा और संस्कृति ने सदियों से जैव विविधता को सफलतापूर्वक संरक्षित किया है। पवित्र वृक्ष एकल आनुवंशिक संसाधन के प्रतीक हैं और जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन पेड़ों के सामाजिक, आर्थिक, औषधीय और पर्यावरणीय महत्व को पहचाना गया और पवित्र वृक्ष भूमि की समृद्ध आनुवंशिक विविधता के संरक्षण के साधन के रूप में विकसित हुए। इस प्रकार पवित्र वृक्ष विभिन्न भू-जलवायु आवासों का प्रतिनिधित्व करते हैं। (प्राचीन तमिलनाडु में संरक्षित पादप जैव विविधता में मदद करने वाली परंपराएं, एम. अमृतलिंगम )।

हमें साहित्य के माध्यम से पता चलता है कि प्राचीन तमिल साम्राज्य अपने लोगों की लिए समृद्धि के लिए पर्यावरण पर निर्भर था । वे प्रकृति का संरक्षण करना चाहते थे क्योंकि वे प्रकृति को ईश्वर के रूप में मानते थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि अगर हम प्रकृति को परेशान करेंगे, तो प्रकृति हमें अपने तरीके से सजा देगी। एक तरह से उनका अज्ञान उन्हें खुश रखता था। लेकिन हमें विश्वास है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी हमारी सभी समस्याओं का समाधान कर देंगे। लेकिन होता इसके ठीक उलट है और विज्ञान ने समाधान से अधिक समस्याएँ पैदा की हैं ।

आज हमारी सबसे बड़ी चिंता यह है कि प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने के लिए हम अपने विज्ञान और प्रौद्योगिकी को किस तरह से पुनर्व्यवस्थित करें। गांधी के सादा जीवन और उच्च विचार को फिर से अपनाना एक रास्ता हो सकता है।

(लेखक राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय के निदेशक व तमिल साहित्यकार हैं)

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