साहित्य में पर्यावरण: प्रकृति से ली गई हैं ओड़िया साहित्य में ज्यादातर छवियां

ओड़िया साहित्य ने सदैव प्रकृति का साझीदार बनकर जनता को आंदोलित किया है
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा
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- केदार मिश्रा - 

अस्सी के उत्तरार्द्ध में जब मैंने कविताएं लिखनी शुरू की थी, तो मेरी मुठभेड़ मृत्यु चेतना और अलगाव से हुई। उस दौर में कविताओं में जिन मुद्दों पर बात हो रही थी, वो मेरे यथार्थ व कल्पानाओं से मेल नहीं खाते थे।

अधिकांश कविताएं एक अनजानी धुन में गाई जा रही थीं और उन कविताओं में जो छवियां बनती थीं, वे मेरी जिंदगी से बहुत दूर थीं।

मैंने अपनी ही भाषा को अप्रासंगिक-अर्थहीन और जटिल पाया। उस वक्त के कवि और लेखक काफी नामी थे इस वजह से मैंने उनमें से एक बनने का सपना देखा।

अतएव, मैंने उस वक्त के चलन को पकड़ कर कविताएं लिखनी शुरू कीं। लेकिन, कुछ कविताएं लिखने के बाद मैं मेरी अपनी ही कविताओं से अलगाव महसूस करने लगा।

यहां ये बताना भी जरूरी है कि 1980 का ओडिशा भुखमरी और बच्चों की खरीद-फरोख्त की अंतहीन कहानी था। भूख से बिलबिलाती धरती पर रहते हुए मैं जड़विहीन अकेलेपन के गीत गा रहा था।

मेरे समय का साहित्य मेरा अपना नहीं था, बल्कि एक आयातित कल्पना जैसा कुछ था, जिसे हमारी भाषा में थोप दिया गया था। तथापि, ओड़िया साहित्य में कथित आधुनिकता की परम्परा असल में औपनिवेशिक हैंगओवर और मध्यवर्गीय मतिभ्रम था। इसमें ओड़िया जीवन, आजीविका या जीवन परम्परा नहीं थी।

ओड़िया साहित्यिक परम्परा गहराई से प्रकृति से जुड़ी हुई थी और ओड़िया कविताओं में सिर्फ प्रकृति की सुंदरता और मानव का अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष था। ओड़िया देश की सबसे पुरानी भाषाओं में एक है।

ओड़िया साहित्य की एक हजार साल की परम्परा में ज्यादातर छवियां प्रकृति से ही ली गई थीं। साहित्य में जीवन प्राकृतिक और आध्यात्मिक था।

औपनिवेशक शिक्षा व्यवस्था के चलते हमने लेखकों के नये ब्रांड को अधुनिकतावादी के तौर पर देखा। शुरुआती आधुनिकतावादी मसलन राधानाथ रॉय (जिनका चिल्का झील पर लिखा काव्य क्लासिक का दर्जा पा चुका है), गंगाधर मेहेर ( जिन्होंने प्रकृति का मानवीकरण किया और उसे मानवीय संवेदनाओं का हमसफर बनाया), फकीर मोहन सेनापति (ओड़िया के अभूतपूर्व उपन्यासकार और जमीन के लिए संघर्ष, औपनिवेशिक शोषण, 1866 की कुख्यात ‘ना’अन्का भुखमरी, लैंगिक न्याय व आजादी की उत्कंठा के लेखक), भीमा भोई (वैश्विक आध्यात्मिकता और आदिवासी पहचान के कवि), गोपाबंधु दास (साहित्य में आम आदमी का संदेशवाहक और आजादी के आंदोलन के कवि), भगवती चरण पाणिग्राही (वर्ग व जाति संघर्ष के पहले कहानीकार), गोपीनाथ मोहंती (आदिवासी आवाज व आधुनिकता व विकास के साथ तनाव के बीच आदिवासी जीवन के अस्तित्व के संकट को मजबूती से कलमबद्ध करने वाले) और अन्य कवि लेखकों ने ओडिशा में आम आदमी के साहित्य की मजबूत बुनियाद स्थापित की।

लेकिन साहित्य की इस परम्परा को आजादी के बाद के ओड़िया लेखकों व कवि ने पूरी तरह अनदेखा कर दिया। वे एक शैली के तहत जड़विहीन अलगाव व अप्रासंगिकता के प्रति आकर्षित हैं। वे अपनी जड़ों की अनदेखी कर टीएस इलियट व एजरा पाउंड जैसा बनने के ख्वाहिशमंद हैं। अलबत्ता, प्रगतिशील साहित्य की धारा के रूप में एक विकल्प जरूर था, जो मुख्यतः मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित था।

अस्सी के दशक में वापस लौटें, तो मुझे एक दूसरे धड़े की कहानी भी कहनी होगी, जो एक विरोधाभासी स्थिति है। बड़े स्तर पर भुखमरी व तनावपूर्ण पलायन के बीच उम्मीद की एक सुनहरी किरण भी थी। ओड़िया लोग बड़े कॉरपोरेट घराने व सरकार के अनैतिक गठजोड़ के खिलाफ भी संघर्ष कर रहे थे। धार्मिक पर्वत श्रृंखला गंधामर्दन पर बॉक्साइट खनन कंपनी “बाल्को” खनन करना चाहती थी, जिसे बचाने के लिए कालाहांडी, बालंगिर और संबलपुर जिलों में जन आंदोलन हो रहा था।

बालासोर जिले के बलियापाल में भारत सरकार प्रायोजित रक्षा परियोजना के खिलाफ एक प्रेरणादायक जन आंदोलन चल रहा था। चिल्का झील की पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा के लिए पुरी, खुरधा और गंजाम के लोग टाटा कंपनी के खिलाफ लड़ रहे थे। अब भी ओडिशा में संरक्षण की यह परंपरा जारी है।

1990 का ओड़िया साहित्य नये रूप में उभरा, जन आंदोलनों से निकले लेखकों ने जिसने सत्ता पर गहरी चोट की। इसी समय महिला लेखिकाओं का भी उदय हुआ, जिन्होंने लैंगिक न्याय और महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की बात की। उच्च जातियों के साहित्यिक गढ़ में दलित लेखन ने अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज की। इतिहास के इस नये अध्याय में बहुत सारे लेखक विस्थापित व हाशिये के समुदाय और खनन व बेदिमाग औद्योगीकरण के पीड़ित थे।

इसी समय से एक्टिविस्ट लेखकों का दौर भी शुरू हुआ। हाशिये की आवाजें प्रमुखता से सामने आईं और उनकी कौंध की अनदेखी करना बहुत मुश्किल था। इक्कीसवीं सदी के शुरू में साहित्य में जलवायु न्याय, जबरन विस्थापन के खिलाफ लड़ाई और नियामगिरि, कलिंगनगर, पुरी और काशीपुर में जन आंदोलनों जैसे विषय भरे हुए थे।

सरोज, भवानी भुयां, दिवंगत समरेंद्र नायक, विजय उपाध्याय, रविशंकर, लेनिन कुमार. हेमंत दलपति, सुजाता साहनी, देबारंजन और अन्य रचनाकारों ने जन आंदोलनों को लेकर रचनाएं लिखीं और ओड़िया साहित्य में योगदान दिया। रचनाकारों की नई पीढ़ी जन आंदोलनों का हिस्सा तो नहीं, लेकिन जनहित का सक्रिय समर्थक है और वे विद्रोही कविता की धारा लेकर आये, जो अभिजात साहित्यिक सत्ता को हिलाकर रख दिया। नई शताब्दी की पहली तिहाई में एक शानदार उपन्यासकार भिमा प्रुश्ती जलवायु परिवर्तन और इससे ओडिशा के तटीय क्षेत्रों में पड़ रहे प्रभावों को केंद्र में रखते हुए दो अग्रणी उपन्यास लेकर आये।

पहला उपन्यास ‘समुद्र मानीषा’ (समुद्र के लोग) तटीय कटाव के चलते बंगाल की खाड़ी में समा गये ‘सतभाया’ के लोगों की जिंदगी पर आधारित था। ‘सतभाया’ शब्द का अर्थ होता है ‘सात भाई’ (यहां इसका अर्थ सात गांवों से है)। दूसरे उपन्यास का नाम है जम्बूद्वीप (जामुन द्वीप)।

ये उपन्यास जलवायु परिवर्तन के गुस्से के खिलाफ लोगों के संघर्ष को दर्शाता है। सतभाया के लोग ओडिशा में जलवायु परिवर्तन के पहले पीड़ित हैं। इन गांवों के डूब जाने के साथ ही यहां रहने वाले लोगों की दुनिया भी डूब जाती है। भिमा प्रुश्ती सतभाया की खो चुकी दुनिया का चित्र मनोरम जानकारियों के साथ खींचते हैं।

दूसरी तरफ, खनन कंपनी वेदांता के खिलाफ डोंगिया के प्रेरक संघर्ष, राज्य के तटीय जिला जगतसिंहपुर में पोस्को विरोधी आंदोलन, पुरी-कोणार्क मरीन ड्राइव में वेदांता यूनिवर्सिटी के खिलाफ जन आंदोलन और कलिंग नगर में प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों की निर्मम हत्या ने हमारे समय से कवियों को कॉरपोरेट और सरकार के गठजोड़ के खिलाफ लिखने को प्रेरित किया। प्रकृति का विध्वंस और मानव जीवन की तकलीफें ओड़िया कविता व उपन्यास का केंद्रीय मुद्दा रहा है। अच्छा संकेत यह है कि इस वक्त संरक्षण के पक्षधर लेखकों की आवाजें मुखर हो रही हैं।

(लेखक ओड़िया भाषा के कवि, लेखक, संपादक और समीक्षक हैं)

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