उत्तराखंड बाघों के साथ हाथियों की अच्छी संख्या के लिए भी जाना जाता है। 6 से 8 जून तक यहां हाथियों की गणना हुई। रिपोर्ट तैयार होने में अभी समय लगेगा। इस दौरान हाथियों की दुनिया से कुछ अच्छी खबरें निकल कर सामने आईं। कार्बेट टाइगर रिजर्व के निदेशक राहुल बताते हैं कि लॉकडाउन के चलते सड़कों पर आवाजाही कम हुई तो हाथी अपने पुराने कॉरीडोर में लौटे। जिन रास्तों का वे पहले इस्तेमाल करते थे, लेकिन इंसानी दखलअंदाजी बढ़ने से उन्होंने वे रास्ते छोड़ दिए थे। हाथियों के झुंड उन जगहों पर भी रिकॉर्ड किए गए, जहां वे पहले नहीं देखे गए।
इस बार बारिश अच्छी होने से हाथियों को बहुत राहत मिली है। पानी की तलाश में उन्हें ज्यादा भटकना नहीं पड़ा। राहुल बताते हैं कि पहले ढिकाला रेंज और कुछ ख़ास इलाकों में ही ज्यादा संख्या में हाथी दिखते थे, लेकिन इस बार गणना के दौरान जंगल के सभी क्षेत्रों में उनकी एक समान मौजूदगी दर्ज की गई। ये भी माना जा रहा है कि पर्यटकों की आवाजाही प्रतिबंधित होने से भी पूरे जंगल में हाथियों का प्रसार रहा। गंगा और शारदा नदियों के किनारे हाथी लंबे सफर पर निकलते हैं। शारदा नदी के साथ नेपाल की तरफ भी हाथियों की आवाजाही होती है, इस तरह की खबर पर निदेशक राहुल का कहना है कि इसकी पड़ताल की जा रही है कि क्या उत्तराखंड से हाथी नेपाल की तरफ भी गए।
हल्द्वानी में पश्चिमी वृत्त के वन संरक्षक डॉ पीएम धकाते कहते हैं कि इस बार हाथियों की गिनती में मध्य हिमालय के कुछ नए क्षेत्र जैसे चंपावत डिविजन, नैनीताल डिविजन, गढ़वाल डिविजन, शिवालिक रेंज भी जोड़े गए हैं। पहले यहां हाथियों की गणना नहीं होती थी। ये माना जाता था कि हाथी पहाड़ों की ओर नहीं जाते, लेकिन अब पहाड़ी क्षेत्रों में भी हाथियों की लीद और पैर के निशान देखे गए, जो वहां उनकी मौजूदगी का अप्रत्यक्ष प्रमाण है।
भारत में राजाजी पार्क हाथियों की मौजूदगी की उत्तरी सीमा है। इससे आगे हाथी नहीं पाए जाते। टिहरी के नरेंद्रनगर के डीएफओ धर्म सिंह मीणा बताते हैं कि यहां एक हाथी राजाजी से आगे बढ़ते हुए गंगा नदी पार करके स्थानीय हैबल नदी के किनारे-किनारे शिवपुरी के पास डिमली गांव तक पहुंच गया। हाथी को कभी अमूमन इतनी ऊंचाई पर नहीं देखा गया। ऐसा पहली बार हुआ था। हाथी को पहाड़ पर बढ़ता देख वन विभाग के कर्मचारियों ने उसकी दिशा बदली और नीचे की तरफ लेकर आए।
हाथियों की गणना के पारंपरिक तरीके के साथ ही इस बार रामनगर, तराई सेंट्रल डिविज़न समेत कुछ जगहों पर ड्रोन का इस्तेमाल भी किया गया है। इससे ये पता चल सकेगा कि हाथियों की गिनती में ड्रोन कितना सहायक रहा। मीणा बताते हैं कि नरेंद्र नगर में डायरेक्ट काउंटिंग के लिए तीन टीमें बनायी गईं। एक टीम को हाथी बहुल इलाके में 24 घंटे तैनात किया गया। दूसरी टीम जंगल में भ्रमण कर रही थी। तीसरी टीम ने फोटोग्राफिक एविडेंस के आधार पर गणना की। डायरेक्ट साइटिंग यानी प्रत्यक्ष रूप से देखे जाने वाले तरीके में ही ड्रोन का इस्तेमाल किया गया। ड्रोन से कम समय में ज्यादा क्षेत्र कवर किया जा सका।
हाथियों की गणना के पारंपरिक तरीकों में प्रत्यक्ष देखा जाना और मौजूदगी के अप्रत्यक्ष प्रमाण जैसे लीद और पैरों के निशान का आंकलन करना होता है। हाथियों के मामले में मुश्किल ये होती है कि ये लगातार चलने वाला और लंबी दूरी तय करने वाला जानवर है। संभव है कि हाथियों का एक झुंड जो नरेंद्र नगर में देखा गया अगले दिन वो बढ़कर देहरादून-हरिद्वार पहुंच जाए। तो एक ही हाथी दो बार गिनती में शामिल न हों इसके लिए उन्हें क्रॉस चेक करना और संख्या डिलीट करना भी होता है।
हर बीट में मौजूद कर्मचारी अपने क्षेत्र में हाथियों की गिनती से जुड़ा फॉर्म भरते हैं। हाथियों को पहचानने के लिए उनके पूंछ, दांतों के आकार जैसे चिन्हों का इस्तेमाल किया जाता है।
वर्ष 2015 की गणना में राज्य में 1797 हाथी पाए गए। पीएम धकाते कहते हैं कि हाथियों की संख्या बढ़ने या घटने से ज्यादा स्थिर होना जरूरी होता है। क्योंकि कई बार उत्तराखंड से हाथी उत्तर प्रदेश, झारखंड, बंगाल तक चले जाते हैं। उनकी संख्या पता होगी तो फिर हाथियों से जुड़ी नीतियां बनाने में सुविधा होगी। मानव-वन्यजीव संघर्ष रोकने में भी मदद मिलेगी।