डाउन टू अर्थ खास: क्या अपने जंगलों की पहचान की चुनौतियों से जूझ रहा है भारत?

सुप्रीम कोर्ट ने 1996 में फैसला दिया था कि कोई भी क्षेत्र जो शब्दकोष के मुताबिक जंगल की परिभाषा पर खरा उतरता हो, उसे जंगल के तौर पर संरक्षित किया जाएगा
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
Published on

19 फरवरी 2024 को सुप्रीम कोर्ट की पीठ द्वारा दिए गए एक अंतरिम आदेश के मद्देनजर भारत में वन को परिभाषित करने को लेकर फिर से बहस शुरू हो गई है। दिसंबर 1996 में टीएन गोदावर्मन थिरुमुलपाद बनाम भारत संघ मामले में दिए गए सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले को आधार मानते हुए अदालत ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) को जंगल की शब्दकोश वाली परिभाषा के आधार पर अपनी कुल वनभूमि का पता लगाने का आदेश दिया है, जो कि उनके सीमा परिक्षेत्र में स्थित है। 

देश की शीर्षस्थ अदालत वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में 2023 में किए गए संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को याचिकाओं पर अंतिम फैसला आने तक रुकने और 28 साल पुरानी शब्दकोश वाली परिभाषा के हिसाब से ही कार्यवाही करने का आदेश दिया है। 2023 में हुए संशोधन के बाद इस अधिनियम को अब वन संरक्षण एवं अधिनियम रूल्स, 2023 के तौर पर जाना जाता है।

इस मामले के याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि 2023 के संशोधन में इसके “संकीर्ण” दायरे के कारण कुल वन क्षेत्र का लगभग 1,97,000 वर्ग किलोमीटर या लगभग 27 प्रतिशत हिस्सा छूट सकता है। उनका दावा है कि यह संशोधन 1996 के उस आदेश का खंडन करता है, जिसमें राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को शब्दकोश वाली परिभाषा के आधार पर अपने वन क्षेत्र की पहचान करने और इसके लिए प्रधान मुख्य वन संरक्षक की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समितियों (ईसी) की स्थापना करने का निर्देश दिया गया था, ताकि आधिकारिक तौर पर अधिसूचित नहीं किए गए वनों को भी संरक्षित किया जा सके।

गोडावर्मन फैसले के लगभग तीन दशक बाद भी देश भर में वनों की समझ और वनभूमि की सीमा, दोनों के बारे में अस्पष्टता बनी हुई है।

जान बूझकर की गई अनदेखी

हालांकि केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) का दावा है कि 2023 का संशोधन गोडावर्मन फैसले के मुताबिक ही है, लेकिन बारीकी से जांच करने पर पता चलता है कि यह पूरी तरह सच नहीं है। धारा 1 ए के अंतर्गत संशोधित अधिनियम के अनुसार, भारतीय वन अधिनियम, 1927 या किसी अन्य प्रचलित कानून के तहत वन के रूप में घोषित या अधिसूचित कोई भी भूमि जंगल है। इसके अलावा, इसमें वह भूमि भी शामिल है, जो 25 अक्टूबर, 1980 या उसके बाद सरकारी रिकॉर्ड में वन के रूप में दर्ज हो गई हो। लेकिन, 12 दिसंबर 1996 से पहले वन से गैर-वन उपयोग में बदल दी गईं जमीनों को इसमें शामिल नहीं माना जाएगा।

केरल की पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक प्रकृति श्रीवास्तव याचिकाकर्ताओं में से एक हैं। प्रकृति का तर्क है कि संशोधित अधिनियम सरकारी आदेशों या स्थानीय निकाय निर्देशों के माध्यम से 1980 और 1996 के बीच हुए बदलावों को वैध बनाने का प्रयास करता है। श्रीवास्तव ने 2023 के संशोधन में वन क्षेत्र तय करते समय ईसी रिपोर्ट को शामिल करने के संबंध में वन संरक्षण संशोधन विधेयक, 2023, पर संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के सामने किए गए एमओईएफसीसी के दावे पर भी सवाल उठाए। जुलाई 2023 में संसद में पेश की गई जेपीसी रिपोर्ट में कहा गया है, “राज्यों की विशेषज्ञ समितियों द्वारा पहचाने गए डीम्ड फॉरेस्ट को रिकॉर्ड कर लिया गया है और इसलिए अधिनियम के प्रावधान इन क्षेत्रों पर भी लागू होंगे।”

श्रीवास्तव ने जनवरी 2024 में सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत आवेदन किया, ताकि वह उन ईसी रिपोर्टों तक पहुंच सकें, जो सार्वजनिक पटल पर मौजूद नहीं हैं। इसकी प्रतिक्रिया में एमओएफसीसी ने उत्तर दिया कि मंत्रालय के वन संरक्षण प्रभाग में अपेक्षित जानकारी उपलब्ध नहीं है और उनके सवालों के जवाब देने के लिए प्रधान मुख्य वन संरक्षक को निर्देशित किया गया है। वह कहती हैं कि मेरे आरटीआई आवेदन के बाद आए जवाब से पता चलता है कि एमओईएफसीसी के पास संशोधन के लिए ईसी रिपोर्ट नहीं है।

26 फरवरी तक श्रीवास्तव को केवल दो राज्यों केरल और असम के लिए ही ईसी रिपोर्टें मिल पाई थीं। वन अधिकारी के रूप में श्रीवास्तव के कार्यकाल के दौरान उनको मिले केरल के रिकॉर्ड से सरकारी और निजी स्वामित्व के अंतर्गत पर्याप्त वन क्षेत्रों का पता चलता है। आरटीआई के माध्यम से हासिल किए गए असम के रिकॉर्ड से महत्वपूर्ण वनभूमि का तो पता चला, लेकिन अधूरे भू-संदर्भ के कारण विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान करने में चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। प्रकृति कहती हैं, “लाफार्ज उमियाम माइनिंग बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में 2011 में आए फैसले के अनुसार, राज्यों को भू-संदर्भ और सीमांकन के साथ जंगल के स्थान पर व्यापक जानकारी देनी चाहिए थी। पर ऐसा अब तक नहीं हुआ है।” वह बताती हैं कि इन वजहों से ऐसे क्षेत्रों की सटीक स्थिति को सत्यापित नहीं किया जा सकता है, जबकि राज्यों के पास अपने वन क्षेत्रों के पूरे आंकड़े हैं।

निष्क्रियता के 28 साल

भारत में वनों को परिभाषित करने में देरी का कारण इस प्रक्रिया की जटिलता और रास्ते में आने वाली कई चुनौतियां हैं। असल समस्या डीम्ड फॉरेस्ट की पहचान करने में है, जो वन जैसे क्षेत्र तो हैं लेकिन सरकारी रिकॉर्ड में उन्हें वन के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है। गोडावर्मन फैसले की परिभाषा के अनुसार, ऐसे क्षेत्रों की पहचान की जानी चाहिए थी और उन्हें वन घोषित किया जाना चाहिए था, लेकिन ईसी की गैरहाजिरी में माने गए वनों की व्यापक पहचान कभी नहीं हुई। विशेषज्ञों का मानना है कि 1996 और 2011 के फैसलों के बाद एक ईमानदार प्रयास से इस महत्वपूर्ण कार्य में तेजी आ सकती थी।

विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी, नई दिल्ली में वरिष्ठ रेजिडेंट फेलो और जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र टीम के प्रमुख देबादित्यो सिन्हा कहते हैं, “राज्य सरकारें जंगल जैसे क्षेत्रों या राजस्थान के ओरण और रूंड और हरियाणा के अरावली जैसे पारंपरिक पारिस्थितिकी तंत्रों की रक्षा करने में लड़खड़ा जाती हैं।”

कर्नाटक उन कुछ राज्यों में से एक है जिसने अतीत में कई बार अपने वनों की पहचान करने की कोशिश की है, लेकिन हर बार अलग-अलग आंकड़े सामने आए। 2014 की विशेषज्ञ समिति-1 की रिपोर्ट में राज्य में 9.94 लाख हेक्टेयर के भूमि क्षेत्र की पहचान डीम्ड जंगल के रूप में की गई थी। हालांकि 2022 में कर्नाटक राज्य सरकार ने विशेषज्ञ समिति-1 की रिपोर्ट की समीक्षा की थी और एक हलफनामा दायर किया था जिसमें संशोधित आंकड़े 3.30 लाख हेक्टेयर थे। भूमि रिकॉर्ड की अनुपलब्धता, वृक्षारोपण की कमी, क्षेत्र के हस्तांतरण न हो पाने और कई अन्य कारकों के वजह से आंकड़ा 2022 में 6.64 लाख हेक्टेयर कम हो गया। यह केंद्र सरकार की अनुमति के बिना किया गया, जिससे सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन और वन संरक्षण अधिनियम 1980 की धारा 2 का उल्लंघन हुआ। इसके खिलाफ बेंगलुरु स्थित पर्यावरण वकील वीरेंद्र पाटिल और याचिकाकर्ता पपेगौड़ा ने एक अभ्यावेदन दायर किया है।

कर्नाटक की अतिरिक्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक के रूप में कार्यरत मीनाक्षी नेगी का कहना है कि वनों की प्रकृति में गतिशीलता है। इन्हें नियमित रूप से निगरानी की आवश्यकता होती है, जिसके अभाव में आंकड़ों में बदलाव तय है। नेगी कहती हैं, “कर्नाटक के पास डीम्ड वनों की पहचान करने के लिए एक रूपरेखा है, जिसका अनुकरण अन्य राज्य कर सकते हैं। लेकिन, इस केंद्रीय मुद्दे से परे असल चुनौती उन क्षेत्रों को रेखांकित कर बाहर करना है, जो सरकारी रिकॉर्ड में तो वनों के रूप में दर्ज हैं लेकिन मानव बस्तियों या बांध जैसे विभिन्न सरकारी परियोजनाओं के कारण समय के साथ नष्ट हो गए हैं।”

बेंगलुरु स्थित गैर लाभकारी संगठन अशोक ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड द एनवायरनमेंट (एटीआरईई) के प्रतिष्ठित फेलो शरचचंद्र लेले कहते हैं कि राज्य सरकारों ने वन संरक्षण अधिनियम के दायरे के विस्तार का विरोध किया है। वह कहते हैं, “राज्य सरकारें अपने नियंत्रण में एक भूमि बैंक चाहती हैं, जिसे वे बिना किसी केंद्रीय निरीक्षण के विभिन्न गतिविधियों, विशेषकर उद्योगों के लिए उपलब्ध करा सकें।” प्रकृति श्रीवास्तव कहती हैं कि यही कारण है कि सर्वोच्च न्यायालय के बार-बार आदेशों के बावजूद अधिकांश राज्यों ने डीम्ड वन क्षेत्रों की पहचान तक नहीं की है। इनमें से कई स्थानों पर कुछ समुदाय भी रहते हैं, जो भूमि को वन घोषित किए जाने के बाद अलग-थलग हो जाएंगे। वह बताती हैं कि केरल में मुन्नार क्षेत्र के जिला वन अधिकारी के तौर पर काम करने के दौरान उन्हें पता चला कि राजस्व विभाग के पास वन विभाग को हस्तांतरित करने के लिए लगभग 7,200 हेक्टेयर भूमि निर्धारित थी, जिसे आरक्षित वन के रूप में नामित किया जाना था। फिर भी भूमि के इस टुकड़े को राज्य की 1997 ईसी रिपोर्ट से बेवजह बाहर रखा गया। राज्य के अधिकारियों के साथ लंबी और विवादास्पद लड़ाई के बाद 2002 में इस क्षेत्र की पहचान की गई, इसका सीमांकन किया गया, और आखिरकार 2011 में इसे आरक्षित वन के रूप में अधिसूचित किया गया।

ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं, जहां वन क्षेत्रों का इस्तेमाल दूसरे उद्देश्यों के लिए किया गया। उदाहरण के लिए चंदन के एक संरक्षित जंगल को भूमि वितरण के लिए डायवर्ट कर दिया गया, जबकि राष्ट्रीय उद्यान मथिकेतन राजनीतिक संरक्षण के नाम पर अतिक्रमण का शिकार हो गया। इसके अलावा, इंसानों और हाथियों के बीच संघर्ष बढ़ने की चेतावनी के बावजूद भूमिहीन जनजातियों के लिए चिन्ना कनाल में स्थित हाथी गलियारे का आवंटन कर दिया गया।

सर्वोच्च न्यायालय का हालिया आदेश, जिसमें राज्यों को ईसी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए 31 मार्च तक का समय दिया गया है, उम्मीद की एक किरण बनकर आया है। सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च, उत्तराखंड की वरिष्ठ फेलो पिया सेठी को उम्मीद है कि इस जानकारी के सार्वजनिक होने के बाद स्पष्टता बढ़ेगी। हालांकि, लेले देरी और लंबे समय तक चलने वाले मुद्दों के बारे में चेतावनी देते हैं। वह आगाह करते हैं कि अगर जल्द कोई कार्रवाई नहीं की गई तो जंगल की समस्या आने वाले कई वर्षों तक बनी रहेगी। और, यह एक ऐसी चुनौती है, जिससे पूरा देश दशकों से परेशान है।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in