डाउन टू अर्थ खास: प्रतिबंध के बावजूद नहीं थम रहा है प्रवासी पक्षियों का शिकार

प्रवासी पक्षियों का शिकार करने पर साल 1972 से ही पूर्ण प्रतिबंध है, लेकिन इसके बावजूद कश्मीर घाटी के वेटलैंड्स (आर्द्रभूमि) में इन पक्षियों का शिकार बदस्तूर जारी है
हर सर्दी में कश्मीर घाटी के वेटलैंड्स हजारों प्रवासी पक्षियों के अभ्या रण्य बन जाते हैं। ये पक्षी अक्टूबर में आते हैं और मार्च तक यहां ठहरते हैं  (फोटो: रेयान सोफी, मशकूरा खान)
हर सर्दी में कश्मीर घाटी के वेटलैंड्स हजारों प्रवासी पक्षियों के अभ्या रण्य बन जाते हैं। ये पक्षी अक्टूबर में आते हैं और मार्च तक यहां ठहरते हैं (फोटो: रेयान सोफी, मशकूरा खान)
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जम्मु व कश्मीर के नरकारा वेटलैंड में शाम की चांदनी उतरते ही गोलियों की आवाज रात की शांति में खलल डाल देती है। गर्मियों की राजधानी श्रीनगर से महज कुछ कदम दूर प्रवासी पक्षियों को शिकारी निशाना बना रहे हैं, जो हर सर्दी में इस क्षेत्र को गुलजार कर देते हैं। “हम जानते हैं कि यह अवैध है और इससे क्षेत्र की नाजुक परिस्थितिकी पर असर पड़ता है लेकिन यह हमारी परम्परा है और हमारे लिए लाभप्रद भी।” एक शिकारी ने बिना किसी लाग लपेट के खुलेआम यह बात कही और गोलियों का शिकार हुए एक और पक्षी को ढूंढने के लिए झाड़ियों में गुम हो गया।

यह दृश्य नरकारा का है जो लम्बे समय से हेरिटेज, आर्थिक तंगी और पर्यावरण संरक्षण के बीच चल रहे टकराव की एक झलक देता है। हर साल बतख, हंस और सारस समेत हजारों प्रवासी पक्षी अभ्यारण्य की तलाश में हजारों किलोमीटर की यात्रा कर कश्मीर के वेटलैंड्स में आते हैं, लेकिन वे यहां प्रवास की जगह घातक संकट यानी अवैध शिकार के चंगुल में फंस जाते हैं।

ध्यान रहे कि आखेट सदियों से कश्मीरियों की संस्कृति से जुड़ा रहा है। यह यहां की परम्परा और आजीविका का साधन दोनों है। नरकारा के रहने वाले 45 वर्षीय मुश्ताक डाउन टू अर्थ को बताया, “हमें लगता है कि शिकार करना हमारी संस्कृति को जिंदा रखता है और हम इसका समर्थन करते हैं।” वह आगे कहते हैं कि एक पक्षी से वह 500 से 1,000 रुपए तक कमा लेते हैं, इसलिए यह आय का एक लुभावना स्रोत भी है क्योंकि इस क्षेत्र में आजीविका के मौके बेहद सीमित हैं। नरकारा के निवासियों का कहना है कि वन्यजीव सुरक्षा कानून के लागू होने के बावजूद वेटलैंड में सर्दी के मौसम में रोजाना लगभग 200 पक्षियों का शिकार किया जाता है और उन्हें चोरी-छिपे अवैध तरीके से स्थानीय बाजारों में बेचा जाता है। स्थानीय निवासी इन्हें खरीदते और खाते हैं। भारत में वन्यजीव सुरक्षा एक्ट के तहत 1972 से ही शिकार पर प्रतिबंध है। जम्मू व कश्मीर में यह कानून 1978 से लागू है, मगर इसे लागू करने में कई गंभीर कमियां हैं।

शिकार के लिए अनुकूलता

रामसर साइट की सूची में उन वेटलैंड्स को शामिल किया जाता है, जो अंतरराष्ट्रीय महत्व के होते हैं। शिकारियों के लिए नरकारा सबसे अनुकूल जगह इसलिए है क्योंकि इसे रामसर सूची में शामिल नहीं किया गया है और इस वजह से यहां नहीं के बराबर निगरानी होती है। हालांकि शिकार तो रामसर साइट की सूची में शामिल वेटलैंड्स में भी हो रहा है, जो इस क्षेत्र में संरक्षण के प्रयासों में बड़ी चुनौतियों की तरफ इशारा करते हैं।

होकरसर वेटलैंड के वन्यजीव संरक्षक गुलाम हसन कहते हैं, “हाल की छापेमारी के दौरान शिकारियों ने हम पर ही गोलियां चला दीं। हमारी टीम के कई सदस्य इस फायरिंग से जक्मी हो गए और मैं खुद इस हमले से बाल-बाल बचा। हमारे पास सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं था जबकि हमारा सामना उन शिकारियों से था जो बंदूकों से लैस थे। उस दिन तो वे हमें मार ही डालते।”

कश्मीर के छह वेटलेंड्स रामसर सूची में शामिल हैं, जिनमें होकरसर भी एक है। हसन और उनकी टीम के पास सिर्फ एक लाइफ जैकेट और वेटलैंड्स की निगरानी करने के लिए सिर्फ एक निजी बोट है। हसन आगे कहते हैं, “बंदूक की तो बात छोड़िए, हमारे पास बुनियादी चीजें मसलन वेटलैंड में प्रवेश करने के लिए बूट तक नहीं है। इसलिए शिकारियों से मुकाबला करने की जगह हमें अपनी सुरक्षा के लिए जूझना पड़ता है।”

होकरसर वेटलैंड के रेंज अफसर साजिद अहमद कहते हैं कि जब छापेमारी की जाती है और गिरफ्तारियां होती हैं तो आरोपी शिकारी तुरंत जमानत पा लेते हैं और दोबारा इस अवैध धंधे में उतर जाते हैं। हालांकि, जम्मु व कश्मीर के वन्यजीव संरक्षक राशिद नकश कहते हैं कि कड़ी निगरानी के चलते होकरसर जैसे वेटलैंड्स में शिकार रुका है, लेकिन साथ ही वह यह भी मानते हैं कि जहां निगरानी नहीं हो रही है, वहां शिकार का खतरा बना हुआ है। उन्होंने कहा, “रामसर सूची में शामिल वेटलैंड्स की हमलोग रातदिन निगरानी करते हैं। इसके अलावा हमने जैवविविधता को बरकरार रखने और वेटलैंड पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण व आजीविका सुरक्षा के बीच संतुलन बनाने के लिए एक मैनेजमेंट एक्शन प्लान (2022-27) भी तैयार किया है।” नकश ने बताया, “कश्मीर में 12,000 से अधिक वेटलैंड्स हैं। इनमें से ज्यादातर का क्षेत्र काफी बड़ा है, जहां लोग अवैध तरीके से धान की खेती करते हैं। इससे प्रवासी पक्षी आकर्षित होकर उधर जाते हैं, तो संभव है कि वहां शिकार किया जाता होगा, लेकिन हम उनकी निगरानी नहीं करते हैं।”

शिकार की कीमत

शिकार के नुकसान आंकड़ों से काफी ऊपर हैं। यह शोध के प्रयासों पर असर डालते हैं और नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा पैदा करते हैं। साल 2017 में कश्मीर में विभिन्न प्रकार के पक्षियों के प्रवास के स्वरूप पर हो रहे शोध अध्ययन को झटका लगा था क्योंकि 200 प्रवासी पक्षियों में लगाए गए सैटेलाइट ट्रैकिंग डिवाइस ने ट्रांसमिटिंग सिग्नल देना बंद कर दिया था और शिकारियों पर इनके साथ छेड़छाड़ करने का शक जाहिर किया गया था। शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विवि में वन्यजीव विज्ञान डिविजन के प्रमुख और प्रोजेक्ट के प्रधान शोधकर्ता खुर्शीद अहमद कहते हैं, “शिकार से सीधे तौर पर पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचता है, लेकिन इससे प्रवासी पक्षियों पर बड़ा खतरा है।

पक्षियों के लिए वेटलैंड्स एक अहम आरामगाह हैं और यहीं से ये दक्षिण भारत की यात्रा की तैयारी करते हैं।” शोपियां डिविजन के वन्यजीव संरक्षक इंतेसार सुहैल ने डाउन टू अर्थ को बताया कि नवम्बर 2020 में होकरसर में पहली बार दो बेविक हंस देखे गए थे, यह टुंड्रा हंस की उपप्रजाति है। इस जोड़े को बाद में डल व वुलर झील में भी देखा गया। सुहैल ने कहा “इसके तुरंत बाद शिकारियों ने इन पक्षियों को मार डाला। बहुत प्रयासों के बावजूद हम शिकारियों को ढूढ नहीं पाए। इसके बाद से बेविक हंस नहीं दिखे।”

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