डाउन टू अर्थ खास: हाथियों के लिए कैसे हो कॉरिडोर का निर्धारण?

हाथी गलियारों की पहचान करने और उन्हें बहाल करने के लिए केवल विशेषज्ञ ज्ञान पर ही नहीं, बल्कि परिदृश्य पारिस्थितिकी की प्रगति का भी इस्तेमाल हो
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से कुछ ही दूरी पर दिखाई दे रहा हाथियों का झुंड। 
फाइल फोटो: बलराम साहू
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से कुछ ही दूरी पर दिखाई दे रहा हाथियों का झुंड। फाइल फोटो: बलराम साहू
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इंसानों और हाथियों के बीच बढ़ती मुठभेड़ एक बड़ी चिंता का सबब बन गया है। इसका हल ढूंढ़ने की कवायद तेजी से चल रही है। छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश में सफल साबित हो रहे एक प्रयास पर डाउन टू अर्थ की खास रिपोर्ट की पहली कड़ी पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें। अब पढ़ें अगली कड़ी -

नसंख्या विखंडन एक बड़ी एकल जनसंख्या का छोटी और पृथक इकाइयों में विभाजन है, जो जनसंख्या अलगाव के कारण लुप्तप्राय प्रजातियों के विलुप्त होने के जोखिम को बढ़ाता है। एशियाई हाथी एक प्रमुख प्रजाति है। इसके आवास की रक्षा करना और गलियारों के माध्यम से संपर्क सुनिश्चित करना आनुवंशिक रूप से व्यवहारिक जनसंख्या को बनाए रखने और जैव विविधता के संरक्षण में मदद करेंगे। हालांकि, हाथी गलियारों को फिर से जोड़ने के प्रयासों की सावधानीपूर्वक योजना बनाई जानी चाहिए।

1960 के दशक में लैंडस्केप इकॉलजी यानी परिदृश्य पारिस्थितिकी ने कॉरिडोर को दो रिजर्व को जोड़ने वाली भूमि के एक लम्बे खंड के रूप में परिभाषित किया गया। एक गलियारे से जानवरों को एक संरक्षित क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाने के लिए अपेक्षाकृत सुरक्षित रास्ता मिल जाता है। बेहतर तकनीकों की गैरमौजूदगी में विशेषज्ञ क्षेत्र के ज्ञान पर भरोसा करेंगे और एक गलियारे के रूप में संरक्षित या बहाल किए जाने वाले एक विशिष्ट रूप से लंबे और संकीर्ण मार्ग को चिह्नित करेंगे।

इस अवधारणा ने 2005 और 2017 में वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया द्वारा “राइट ऑफ पैसेज: एलिफेंट कॉरिडोर ऑफ इंडिया” रिपोर्ट (आरओपी) को गाइड किया। हालांकि, आरओपी की सीमाएं हैं, जैसे गलियारे की परिभाषा की कमी। दस्तावेज में गलियारों के रूप में पहचाने जाने वाले मार्ग विशेषज्ञ ज्ञान पर आधारित हैं।

गलियारे की इस पुरानी अवधारणा पर 1990 के दशक में सवाल उठने लगे। ऐसा इसलिए क्योंकि जो रास्ता मनुष्यों को सही लगता है, वो जानवरों के लिए सही नहीं हो सकता। जानवरों की दुनिया हमसे अलग होती है - उन्हें सुनने, सूंघने आदि चीजों का अनुभव और उनके शरीर की जरूरतें हमसे बिलकुल अलग होती हैं। इसलिए वे रास्ते चुनते वक्त कई ऐसे पहलुओं को ध्यान में रखते हैं जिनके बारे में हमें जानकारी ही नहीं होती। इसके अलावा, विशेषज्ञों द्वारा गलियारों की पहचान करना भी मुश्किल है। कई बार विशेषज्ञ किसी इलाके को अच्छे से जानते हैं, लेकिन पूरे जंगल का समग्र नजरिया नहीं रख पाते। इससे गलत राय बनने का खतरा रहता है। इतना ही नहीं, अगर कॉरिडोर के रास्ते पर शोर ज्यादा हो तब जानवर उसे पार करने से डर सकते हैं। इससे गलियारा बनाने की कोशिश बेकार हो सकती है। इसीलिए, विशेषज्ञों द्वारा सुझाया गया रास्ता सबसे अच्छा या कारगर होगा, इसकी कोई गारंटी नहीं।

वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो व्यक्तिगत अनुभव किसी सिद्धांत को परखने के लिए काफी नहीं होता। ये जानने के लिए कि हाथी कौन-सा रास्ता चुनेंगे या फिर किन चीजों की वजह से वे गलियारे में नहीं रह पाएंगे, हमें उनकी गतिविधियों को अध्ययन के केंद्र में रखना होगा। इसी सोच के कारण 2000 के दशक की शुरुआत में एक नया दौर आया। भूदृश्य पारिस्थितिकी यानी लैंडस्केप इकॉलजी ज्यादा सटीक हो गई और जानवरों के व्यवहार, शरीर विज्ञान और विकास से जुड़े पहलुओं को शामिल करते हुए वैज्ञानिक खोज के नए रास्ते खुल गए।

अब गलियारों और महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान करने में तीन चीजें मदद करती हैं:

1. फील्ड डेटा का गहन इस्तेमाल,

2. भौगोलिक सूचना तंत्र (जीआईएस) में सुधार और भौगोलिक आंकड़ों की उपलब्धता,

3. नए एल्गोरिदम (गणना के तरीके)।

फील्ड डेटा से जानवरों की मौजूदगी, उनके आने-जाने के रास्ते और उनके आनुवंशिक प्रोफाइल (वंश संबंधी जानकारी) का पता चलता है। इन आंकड़ों से ये मालूम होता है कि अलग-अलग समूहों के बीच जीन का आदान-प्रदान कैसे होता है। इन आंकड़ों का इस्तेमाल अकेले या साथ में किया जा सकता है ताकि हाथियों के आने-जाने के रास्तों का बेहतर अनुमान लगाया जा सके। जानवरों की मौजूदगी का पता कैमरा ट्रैपिंग या उनकी लोकेशन के आधार पर मिलते संकेतों से लगता है। उनके रास्ते रेडियो या सैटेलाइट की मदद से पता किए जाते हैं और आनुवंशिक जानकारी उनके मल से ली जाती है, वो भी बिना उन्हें किसी तरह का नुकसान पहुंचाए।

नोट-इस  चित्र में गलियारों के संपर्क को तथ्यात्मक न्यूनतम लागत पथ के तौर पर दिखाया गया है। कॉरिडोर्स की गणना लैंड यूज, स्लोप, एलीवेशन और पर्यावास के साथ एक कंपोजिट रेजिस्टेंस मैप पर तैयार की गई है। हाथियों के गलियारे कोर एरिया (टाइगर रिजर्व) और कहीं-कहीं नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व  के दायरे के बाहर भी हैं, जहां स्ट्रक्चरल कॉरिडोर्स को न सिर्फ स्थापित किया जाना चाहिए बल्कि उनका पुनरुद्धार भी होना चाहिए। लाल रंग की जो पट्टी दिख रही है वह हाथियों के आबादी लिए सबसे ज्यादा कनेक्टिविटी वाली है। इसके उलट वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के जरिए तैयार रिपोर्ट राइट ऑफ पैसेज: एलीफेंट कॉरिडोर्स ऑफ इंिडया में जो कॉरिडोर्स एक्सपर्ट के जरिए चिन्हित किए गए हैं वह कोई भी तर्कसंगत कनेक्टिविटी नहीं दिखाते हैं। ज्यादातर प्रोटेक्टेड एरिया अथवा रिजर्व फॉरेस्ट में हैं और कहीं गांवों में हैं या ज्यादातर बेतरतीब स्थानों पर हैं। कॉरिडोर्स को उनकी महत्वता के िहसाब से नहीं तय किया गया है
नोट-इस चित्र में गलियारों के संपर्क को तथ्यात्मक न्यूनतम लागत पथ के तौर पर दिखाया गया है। कॉरिडोर्स की गणना लैंड यूज, स्लोप, एलीवेशन और पर्यावास के साथ एक कंपोजिट रेजिस्टेंस मैप पर तैयार की गई है। हाथियों के गलियारे कोर एरिया (टाइगर रिजर्व) और कहीं-कहीं नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व के दायरे के बाहर भी हैं, जहां स्ट्रक्चरल कॉरिडोर्स को न सिर्फ स्थापित किया जाना चाहिए बल्कि उनका पुनरुद्धार भी होना चाहिए। लाल रंग की जो पट्टी दिख रही है वह हाथियों के आबादी लिए सबसे ज्यादा कनेक्टिविटी वाली है। इसके उलट वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के जरिए तैयार रिपोर्ट राइट ऑफ पैसेज: एलीफेंट कॉरिडोर्स ऑफ इंिडया में जो कॉरिडोर्स एक्सपर्ट के जरिए चिन्हित किए गए हैं वह कोई भी तर्कसंगत कनेक्टिविटी नहीं दिखाते हैं। ज्यादातर प्रोटेक्टेड एरिया अथवा रिजर्व फॉरेस्ट में हैं और कहीं गांवों में हैं या ज्यादातर बेतरतीब स्थानों पर हैं। कॉरिडोर्स को उनकी महत्वता के िहसाब से नहीं तय किया गया है स्रोत : “प्रीडिक्टिंग लैंडस्केप कनेक्टिविटी फॉर द एशियन एलीफेंट इन इट्स लार्जेस्ट रिमेनिंग सबपॉपुलेशन,”एनिमल कंजर्वेशन, अक्टूबर, 2016

फील्ड डेटा के साथ-साथ, अब पर्यावरण का डेटा भी आसानी से मिल जाता है। ये जानकारी बड़े इलाकों के लिए मिलती है, उदाहरण के तौर पर ऊंचाई दिखाने वाली तस्वीरें या सड़क का नक्शा। वैज्ञानिक ज्यादा से ज्यादा ऐसे आंकड़े इकट्ठा करने की कोशिश करते हैं जिन्हें वे गलियारों की पहचान के लिए उपयोगी समझते हैं। फिर वे इन तस्वीरों की मदद से किसी इलाके में दो बिंदुओं के बीच की दूरी नापते हैं। जमीन की ढलान को देखते हुए वे सबसे आसान रास्ता निकालते हैं, जहां चढ़ाई कम हो।

इसी तरह, जानवरों के आनुवंशिक जानकारी से भी उनके बीच की दूरी का पता चलता है। इस दूरी का संबंध उस रास्ते से हो सकता है जहां कम से कम मेहनत (समय, दूरी या अन्य चीजों के मामले में) लगती है। वैज्ञानिक कई चयनित चीजों के लिए अलग-अलग और फिर उन्हें मिलाकर ये दूरी निकालते हैं। सावधानी से चुनकर अंत में एक सबसे उपयुक्त नक्शा बनता है जिसे प्रतिरोध मानचित्र यानी रेजिस्टेंस मैप कहते हैं।

यह नक्शा बताता है कि जानवरों को किस इलाके में चलने में सबसे ज्यादा दिक्कत होगी। इस रेजिस्टेंस मैप की तुलना गति सीमा वाली सड़क के नक्शे से की जा सकती है। गाड़ियां किस रास्ते को चुनेंगी ये इस बात पर निर्भर करता है कि उस रास्ते पर कितनी गाड़ियां चल सकती हैं और उसकी गति सीमा क्या है। उसी तरह, जानवरों के चलने का अनुमान भी इसी रेजिस्टेंस मैप के आधार पर लगाया जाता है। विशेषज्ञ कुछ तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे सर्किट सिद्धांत, फैक्टोरियल कम लागत वाले रास्ते या रेसिस्टेंट कर्नेल जो जानवरों के पाए जाने के स्थानों को जोड़ता है और पूरे इलाके पर लागू करता है। इस विश्लेषण से आखिरी दस्तावेज मिलता है, जिसे संपर्क मानचित्र यानी कनेक्टिविटी मैप कहते हैं।

कनेक्टिविटी मैप में सबसे ज्यादा जुड़े हुए इलाके रिजर्व से शुरू होकर पूरे जंगल में फैलते हैं। ये रास्ते जानवरों की प्रकृति के आधार पर बनते हैं, न कि किसी विशेषज्ञ की राय पर। उदाहरण के तौर पर, 2016 में जर्नल एनिमल कंजर्वेशन में प्रकाशित एक अध्ययन में हमने फैक्टोरियल कम लागत वाले रास्तों का उपयोग कर नीलगिरी बायोस्फीयर रिजर्व में हाथियों के लिए कनेक्टिविटी मैप बनाया था।

दो वन्यजीव अभयारण्य को फिर से जोड़ने की जरूरत हो, तो बेहतर है कि विश्लेषण की मदद से पहले से इस्तेमाल हो रहे या अतीत में इस्तेमाल हो चुके फंक्शनल कॉरिडोर को ठीक किया जाए। इस तरह, “गलियारे” की एक अधिक आधुनिक परिभाषा ये बनती है कि “वह जगह जहां कनेक्टिविटी ज्यादा है।” यह संरक्षित क्षेत्रों के अंदर है या बाहर, ये कोई मायने नहीं रखता। यह किसी खास प्रजाति के स्वभाव को दर्शाता है, जो संरक्षण के लिए वास्तविक चीज है जिसे ध्यान में रखना चाहिए।

भारत में हाथियों के लिए गलियारों की पहचान एक बहस का विषय बन गई है। आधुनिक तकनीकों की कसौटी पर आरओपी (राइट ऑफ पैसेज) के हिसाब से नीलगिरी बायोस्फेयर रिजर्व में सिर्फ आधे गलियारों को ही चिह्नित किया जा सकता है। 2023 में, केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाथी गलियारों पर एक और रिपोर्ट जारी की, जिसमें जमीनी आंकड़ों के साथ सत्यापन का प्रयास किया गया, जो आरओपी से बेहतर था। लेकिन अगस्त 2023 में राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्थायी समिति की बैठक के दौरान, आरओपी के सीनियर साइंटिफिक एडिटर रमन सुकुमार ने गलियारे को “जमीन का एक ऐसा छोटा टुकड़ा” बताया जो “हाथियों को विभिन्न आवासों के बीच आने-जाने में मदद करता है, जो ज्यादातर हाथी अभयारण्य के क्षेत्र के अंदर होता है।” लैंडस्केप पारिस्थितिकी में अब ये परिभाषा मान्य नहीं है। यह वास्तविकता को बहुत आसान बनाकर बताती है, जानवरों के व्यवहार को काफी हद तक नजरअंदाज करती है और ऐसे गलियारों को स्वीकार करने का खतरा बढ़ाती है जो काम नहीं करते।

गलियारों की पहचान करने के लिए आरओपी और हाल ही में जारी पर्यावरण मंत्रालय की अधिक सटीक रिपोर्ट दोनों ही दिलचस्प प्रयास हैं। लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों के आधार पर एक राष्ट्रीय ढांचा विकसित करना जरूरी है जो आवासों को जोड़ने और एक महत्वपूर्ण प्रजाति के संरक्षण के लिए आने-जाने के आंकड़ों का उपयोग करता है।

(जीन-फिलिप पुयरावुड द सिगुर नेचर ट्रस्ट, नीलगिरी के लैंडस्केप इकोलॉजिस्ट हैं। सैमुअल ए कुशमैन वन्यजीव संरक्षण अनुसंधान इकाई, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी, यूके में सीनियर फेलो हैं। प्रिया दविदर पारिस्थितिकी की सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं और अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस, यूएस की फेलो हैं)

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