
क्या कभी देश में ऊंचे हिमालयों पर रहने वाले कस्तूरी मृगों के संरक्षण का काम सफल तरीके से हुआ है? शायद इस सवाल का जवाब आप कभी पूरी तरह से नहीं जान पाएंगे। न ही आपको यह पता चलेगा कि अपनी खास सुगंध के लिए मशहूर इन कस्तूरी मृगों की संख्या कितनी है। इतना सबूत जरूर मिल गया है जिससे यह पता चलता है कि समर्पित चिड़ियाघरों में इनके प्रजनन कार्यक्रम के लिए कभी सही प्रजातियों का चयन ही नहीं हो पाया और न ही कभी अल्पाइन कस्तूरी मृग के प्रजनन कार्यक्रम की शुरुआत हुई।
पश्चिमी से पूर्वी हिमालय तक फैले हुए इन कस्तूरी मृगों की दो प्रमुख प्रजातियां हैं। इनमें एक है अल्पाइन कस्तूरी मृग (मॉसश क्राइसोगैस्टर) और दूसरी है हिमालयन कस्तूरी मृग ( मॉसश ल्यूकोगैस्टर)। यह दोनों एक दूसरे के क्षेत्रों में मौजूद हैं। लेकिन यह बहुत चौंकाने वाला है कि चिड़ियाघरों ने इन प्रजातियों की न सिर्फ गलत पहचान की बल्कि इनके प्रजनन कार्यक्रम को शुरू करने में भी विफल रहे।
यह ताजा खुलासा केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (सीजेडीए) की दिसंबर 2024 में “प्लांड ब्रीडिंग प्रोग्राम्स इन इंडियन जूज: असेसमेंट एंड स्ट्रैटेजिक एक्शंस (2024) रिपोर्ट” में हुआ। डाउन टू अर्थ को मिली इस रिपोर्ट से न सिर्फ कस्तूरी मृग बल्कि अन्य विलुप्ति के कगार पर खड़े वन्यजीवों के संरक्षण प्रजनन कार्यक्रमों को लेकर कई विफलताएं उजागर होती हैं।
रिपोर्ट में कस्तूरी मृग की प्रमुख दो प्रजातियों को लेकर कहा गया “इन दोनों की एक ही क्षेत्रों में मौजूदगी के कारण संभव है कि चिड़ियाघरों ने इन प्रजातियों को गलत पहचान लिया हो।” रिपोर्ट के मुताबिक, मध्य से पूर्वी हिमालय में पाए जाने वाले संकटग्रस्त अल्पाइन कस्तूरी मृग के संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम को उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल में चलाया जा रहा था लेकिन संभव है कि इसकी जगह हिमालयन कस्तूरी मृग का प्रजनन शुरू कर दिया गया। लेकिन इस प्रजाति की संख्या के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है।
रिपोर्ट के मुताबिक, “उत्तराखंड में चोपता के पास कस्तूरी मृग प्रजनन केंद्र की ऐतिहासिक आबादी और दार्जिलिंग स्थित पद्मजा नायडू हिमालयन प्राणी उद्यान में रखे गए मृग शायद अल्पाइन कस्तूरी मृग यानी मॉसश क्राइसोगैस्टर थे। वर्तमान में कोई भी मान्यता प्राप्त चिड़ियाघर इस प्रजाति का कैप्टिव समूह नहीं रखता, जो यह दर्शाता है कि इसका प्रजनन कार्यक्रम कभी शुरू ही नहीं हुआ।” इस कारण अल्पाइन कस्तूरी मृग की संख्या को लेकर कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है।
पुणे में स्थित एनिमल राइट्स के लिए काम करने वाले इंटरनेशनल एजुकेशनल चैरिटेबल ट्रस्ट “ब्यूटी विदाउट क्रूयिलटी-इंडिया” की वेबसाइट के मुताबिक हिमालयी कस्तूरी मृग उत्तराखंड का राज्य पशु है। इसके बावजूद वहां ध्यान नहीं दिया गया है। इस वेबसाइट के आंकड़ों के मुताबिक, 1980 के दशक में वहां लगभग 1,000 कस्तूरी हिरण मौजूद थे। 1982 में केवल पांच कस्तूरी हिरणों के साथ अभयारण्य के भीतर एक बंदी प्रजनन केंद्र स्थापित किया गया। इनकी संख्या बढ़कर 28 तक पहुंच गई थी लेकिन बाद में ये सभी मृग सांप के काटने, निमोनिया, पेट की गड़बड़ी या दिल के दौरे जैसे कारणों से मर गए। 2006 में यह केंद्र बंद कर दिया गया और जीवित बचा एकमात्र हिरण दार्जिलिंग के एक प्राणी उद्यान में भेज दिया गया। हालांकि ताजा आबादी की स्थिति के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
सीजेडीए रिपोर्ट में “इसके प्राकृतिक आवास में वर्तमान आबादी का कोई ताजा अनुमान उपलब्ध नहीं है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन नेचर (आईयूसीएन) के 2014 के आकलन के अनुसार इस प्रजाति की संख्या घट रही है और इसे अत्यंत संकटग्रस्त की श्रेणी में रखा गया है।” वहीं, डाउन टू अर्थ ने पाया कि कैप्टिव ब्रीडिंग में विभिन्न प्राणी उद्यान में मौजूद पशुओं की संख्या का जिक्र केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण की 2017-18 की एक सूची में किया गया था। इसके मुताबिक, एक नर हिमालयी कस्तूरी मृग दार्जिलिंग में मौजूद था। हालांकि, सात वर्षों बाद संख्या को लेकर ताजा स्थिति अभी साफ नहीं है।
वन्यजीव संस्थान, देहरादून के सेवानिवृत्त प्रोफेसर और वरिष्ठ वन्यजीव जीवविज्ञानी बीसी चौधरी कहते हैं, “यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि भारत में हिमालयन कस्तूरी मृग के प्रजनन कार्यक्रम पूरी तरह असफल रहे हैं। गलत पहचान का यह मामला देश में वन्यजीव संरक्षण के प्रयासों में फैले भ्रम का उदाहरण है।” वह आगे कहते हैं, “हमारे पास कस्तूरी मृग प्रजनन के लिए कोई ऐसा मूल प्रजनक जोड़ा नहीं है जिससे आगे इनकी संतति चले तो हम वन्यजीव संरक्षण के आगे के विज्ञान के बारे में कैसे सोच सकते हैं?
वह कहते हैं, “चीन न सिर्फ हिमालयी कस्तूरी मृग के प्रजनन को बढ़ाने में कामयाब हो गया है बल्कि उसने उन्हें बिना मारे मस्क पॉड यानी नर मृग की नाभि के पास मौजूद ग्रंथि से निकलने वाले तेज और विशिष्ट सुंगध को निकालने की तकनीक भी ईजाद कर ली है।” जबकि हम इन दोनों मामलों में कहीं नहीं पहुंचे हैं।
देश में संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम का निर्णय सीजेडए लेता है। 1992 में वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के तहत गठित सीजेडीए दरअसल केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत एक वैधानिक निकाय है। यह अधिनियम सीजेडीए को “बंदी प्रजनन के उद्देश्य से संकटग्रस्त वन्यजीव प्रजातियों की पहचान” और “इसके लिए किसी चिड़ियाघर को जिम्मेदारी सौंपने” का अधिकार देता है।
वर्ष 2022 में सरकार ने कानून में बदलाव करके “चिड़ियाघर” की परिभाषा को बड़ा कर दिया। अब इसका मतलब सिर्फ जानवर दिखाने वाली जगह नहीं है। इसमें हर वह स्थायी या चलती-फिरती जगह शामिल है, जहां जानवरों को पिंजरों में रखा जाता है। चाहे वह लोगों को दिखाने के लिए हो या उनकी नस्ल बचाने के लिए। इसमें सर्कस, बचाव केंद्र और संरक्षण प्रजनन केंद्र भी आते हैं। लेकिन इसमें ऐसे लोग या संस्थान शामिल नहीं हैं जो सिर्फ जानवरों का व्यापार करने का लाइसेंस रखते हैं। सीजेडीए रिपोर्ट में कहा गया है कि इस संशोधन से संरक्षण प्रजनन केंद्र भी चिड़ियाघर की परिभाषा में आ गए हैं, जिससे वे नियामक ढांचे में शामिल हो गए।
डाउन टू अर्थ ने यह जानने के लिए कि अब तक चिड़ियाघरों में अल्पाइन कस्तूरी मृग कार्यक्रम पर सीजेडीए ने कितना खर्च किया है, सूचना के अधिकार (आरटीआई) का इस्तेमाल किया। 25 जुलाई 2022 को पर्यावरण मंत्रालय में आरटीआई के तहत आवेदन किया और “कस्तूरी मृग संरक्षण पर खर्च की गई राशि का विवरण” मांगा। 16 अगस्त 2022 को मंत्रालय ने जवाब दिया कि उनके पास यह आंकड़ा नहीं है। आरटीआई के उत्तर में कहा गया, “मांगी गई जानकारी इस केन्द्रीय जन सूचना अधिकारी के पास उपलब्ध नहीं है। संरक्षित क्षेत्रों का प्रबंधन मुख्य रूप से संबंधित राज्य/केंद्र शासित प्रदेश सरकार की जिम्मेदारी है। हालांकि, मंत्रालय देश में वन्यजीव और उसके आवासों के प्रबंधन के लिए वन्यजीव पर्यावास विकास नामक केंद्र प्रायोजित योजना के तहत राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है।”
हालांकि 2024 की सीजेडीए रिपोर्ट में भारत में सभी प्रजनन कार्यक्रमों पर चिड़ियाघरों को दिए गए कुल धन का अनुमान है। इसमें कहा गया है, “2006 से 2011 के बीच लगभग 10.81 करोड़ रुपये चिड़ियाघरों को इन कार्यक्रमों की स्थापना के लिए आवंटित किए गए।” इसके बाद “2011 से 2021 के बीच योजनाबद्ध प्रजनन कार्यक्रमों में लगे चिड़ियाघरों को 18.13 करोड़ रुपए और आवंटित किए गए।” इस तरह 2006 से 2021 के बीच प्रजनन कार्यक्रमों पर कुल 28.94 करोड़ रुपए आवंटित किए गए।
विलंबित शुरुआत
भारत में 1960 के दशक से ही संरक्षण के लिए जानवरों का प्रजनन किया जा रहा है, लेकिन चौधरी के मुताबिक इनमें से कोई भी कोशिश वास्तव में संरक्षण पर केंद्रित और गंभीर नहीं थी। डाउन टू अर्थ ने वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से आरटीआई के माध्यम से 1982 में शुरु किए गए हिमालय मस्क प्रोजेक्ट को लेकर भी सवाल पूछा लेकिन, इसका जवाब नहीं दिया गया।
इस प्रोजेक्ट को लेकर चौधरी बताते हैं कि हिमालयी कस्तूरी मृगों की समुचित बेहतरी के लिए कदम उठाने का निर्णय लिया गया था। इसमें इन सीटू संरक्षण भी शामिल था। इन सीटू संरक्षण का मतलब है जब किसी जीव या पौधे को उसके प्राकृतिक आवास में यानि जहां वह असल में पाया जाता है वहीं बचाने की कोशिश की जाए। चौधरी ने आगे कहा,“हालांकि, यह प्रोजेक्ट भुला दिया गया और अब सबकुछ जैसे टाइगर पर आकर केंद्रित हो गया है।” वह कहते हैं, वन्यजीव कानून, 1972 से पहले किए गए सभी प्रयास कैप्टिव ब्रीडिंग या कंजर्वेशन ब्रीडिंग के लिए नहीं थे। उनका मकसद संरक्षण नहीं रहा है।
साल 1993 में भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक एस सथ्यकुमार ने इंटरनेशनल जू अथॉरिटी के साथ “स्टेटस ऑफ कैप्टिव हिमालयन फॉरेस्ट मस्क डीयर मॉसश सी क्रिसोगैस्टर इन इंडिया” नाम के शोधपत्र में लिखा कि भारत में मॉसश क्रिसोगैस्टर प्रजाति की कैप्टिव ब्रीडिंग 1965 में शुरू की गई और 1975 के बाद इसे गंभीरता से अपनाया गया। सरकार की इस योजना के दो मुख्य उद्देश्य थे। पहला, भविष्य में जंगल में छोड़ने के लिए एक स्वस्थ कैप्टिव समूह तैयार करना और दूसरा यह था कि दवा में इस्तेमाल होने वाली कस्तूरी को निकालना। यह मृग प्रजनन केंद्र कुफरी, अल्मोड़ा और चमोली में बनाए गए थे। यह सभी केंद्र अपने कामों में असफल रहे।
वहीं, 1992 में सीजेडीए बनने के बाद इस संस्था ने 35 प्रजातियों (स्तनधारी, पक्षी और सरीसृप) को चुना। फिर 2011 तक 43 चिड़ियाघरों में कुल 74 प्रजातियों को इस योजना में शामिल किया गया। बाद में इनमें से 26 प्रजातियों को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया ताकि उनके लिए खास सुविधाएं बनाई जा सकें और देखभाल व खर्च के लिए फंड दिया जा सके।
सीजीडीए की रिपोर्ट कहती है, “इन कार्यक्रमों का लक्ष्य प्रत्येक लक्षित प्रजाति के 250 वंशानुगत व्यक्तियों की आबादी बनाना था, जिसमें कम से कम 100 वन्यजीव भारतीय चिड़ियाघरों में रखे जाएं और यह एक वैश्विक प्रबंधित आबादी का हिस्सा हो।” रिपोर्ट में कहा गया है कि अब किसी नई प्रजाति को इन योजनाबद्ध प्रजनन कार्यक्रमों में शामिल नहीं करना चाहिए। रिपोर्ट के अनुसार, “आर्टियोडैक्टिला (जैसे हिरन), कार्निवोरा (जैसे शेर) और गालिफॉर्म्स (जैसे तीतर)जैसे समूह जैव विविधता से सबसे अधिक भरपूर हैं और इनकी कई प्रजातियां संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। इन समूहों के लिए प्रजनन की योजनाएं बनाई गई हैं लेकिन समीक्षा से पता चलता है कि इन योजनाओं में से कई या तो शुरू ही नहीं हुईं या फिर सही तरीके से नहीं चलाई जा रही हैं।”
सिर्फ कस्तूरी नहीं
आईसीयूएन के द्वारा घोषित संकटग्रस्त प्रजातियां जिन्हें भारत में कैप्टिव ब्रीडिंग के द्वारा प्रजनन किया जाना था उनमें अकेले कस्तूरी मृग ही नहीं है बल्कि तिब्बती मृग, नीलगिरी टार, गंगा नदी डॉल्फिन, जंगली जल भैंसा, पिग्मी हॉग, हंगुल यानी कश्मीरी बारहसिंगा का अभी तक कोई प्रजनन कार्यक्रम शुरू नहीं किया जा सका है।
रिपोर्ट के मुताबिक, जंगली जल भैंसे की प्राकृतिक आबादी लगभग 2,500 आंकी गई है और आईयूसीएन, 2016 की सूची के अनुसार यह घट रही है। यह प्रजाति अति संकटग्रस्त की श्रेणी में है और भारत के किसी भी चिड़ियाघर में इसकी बंदी आबादी दर्ज नहीं है। अब छत्तीसगढ़ सरकार बरनवापारा वन्यजीव अभयारण्य में एक संरक्षण प्रजनन केंद्र स्थापित कर रही है।
आईसीयूएन के मुताबिक, अंतिसकटग्रस्त पिग्मी हॉग का भी संरक्षण अभी तक नहीं हुआ था। अब असम में इसके संरक्षण की कोशिश शुरू हुई है। वहीं, कुछ ऐसी प्रजातियां जिनकी आबादी में काफी सुधार हुआ, वह सभी व्यैक्तिक या संस्थागत प्रयास रहे हैं। गिद्ध इसका एक बड़ा उदाहरण है। हालांकि, सेंट्रल जू अथॉरिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, “गिद्धों के लिए संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम, जैसे कि सफेद पीठ वाला गिद्ध और भारतीय गिद्ध ने स्थिर जनसंख्या वृद्धि हासिल की है। हालांकि, मूल प्रजनक पशु (फाउंडर स्टॉक) जैसी समस्याएं यह दिखाती हैं कि बेहतर आनुवंशिक और जनसांख्यकीय निगरानी की जरूरत है।”
इसके विपरीत, शाहीन फाल्कन और मालाबार पायड हॉर्नबिल जैसी प्रजातियों के लिए अभी तक कोई ठोस संरक्षण प्रयास शुरू नहीं किए गए हैं। रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि नियोजित प्रजनन कार्यक्रमों में अब नई प्रजाति को जोड़ना ठीक नहीं होगा। भारत अब संकटग्रस्त प्रजातियों की आईयूसीएन रेड लिस्ट को पुराना मान रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक, यह सूची दुनिया की स्थिति दिखाती है लेकिन भारत की नहीं। इसलिए भारत को अपनी अलग और पूरी सूची तैयार करनी होगी।