नियंत्रित उपयोग और दोहन के बीच एक बेहद पतली रेखा है। राजस्थान में हर साल होली के समीप टोडगढ़ रावली वन्यजीव अभयारण्य के आसपास के गांवों के युवा लगभग एक सदी पुराने ‘ऐडा’ नामक सामूहिक शिकार की परंपरा को निभाने के लिए जंगलों में एकत्रित होते हैं। शिकार के बाद वे जो जंगली मांस घर लाते हैं, उसे त्योहार के दिन पकाकर खाया जाता है। गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के वन्यजीव विज्ञानी सुमित डूकिया कहते हैं, “इस शिकार पर समुदाय का नियंत्रण होता है। आमलोग शिकार के लिए लाठियों और अन्य पारंपरिक उपकरणों का उपयोग करते हैं, वहीं आग और बंदूक का प्रयोग वर्जित है। शिकार की यह अवधि 24 घंटे तक चलती है।”
पश्चिम बंगाल में जनजातीय लोग कुछ इसी तरह से ‘अखंड शिकार’ नामक एक वार्षिक शिकार उत्सव मनाते हैं, जो जनवरी और जून के बीच आयोजित होता है। झारखंड में स्थानीय लोग एक सदी पुराने ‘सेंद्रा’ नाम के एक उत्सव में भाग लेते हैं जो हर साल मई में एक विशेष तारीख को आयोजित किया जाता है। इस उत्सव में धनुष, तीर, चाकू और गुलेल जैसे पारंपरिक हथियारों का उपयोग करके जंगली जानवरों का शिकार किया जाता है। अरुणाचल प्रदेश के आदिवासी लोगों में शादियों और गांव के त्योहारों के दौरान इस तरह की रस्में आम हैं, जब लोग ताजा या सूखा मांस उपहार में देते हैं।
डूकिया राजस्थान की भील जनजाति लोगों की एक परंपरा का उदाहरण देते हैं। वह कहते हैं, “इस समुदाय के नवविवाहित जोड़ों को सियार का मांस परोसने की परंपरा है। लेकिन सियारों की आबादी कम हो रही है, इसलिए वे अब शिकार से बचते हैं।”
ओडिशा में आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता सुधांशु शेखर देव कहते हैं, “पूर्वी भारत में कोंध जनजाति के लोग भी कुछ इसी तरह की परंपरा का पालन करते हैं। मायके के लोग दुल्हन को एक या दो जंगली सुअर उपहार में देते हैं। दुल्हन का नया परिवार यानी ससुराल के लोग उन सुअरों को पालते हैं। जैसे-जैसे सुअर वयस्क होते हैं और उनसे नए सुअर पैदा होते हैं, उसी तरह उनका लगातार उपभोग भी होता रहता है।”
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) गांधीनगर में मानव विज्ञान, मानविकी और सामाजिक विज्ञान की सहायक प्रोफेसर अंबिका अय्यादुरई ने देश के पूर्वोत्तर क्षेत्र में आदिवासी समुदायों की भोजन की आदतों का व्यापक अध्ययन किया है। वह स्थानीय समुदायों द्वारा जंगली मांस के सेवन का समर्थन करते हुए कहती हैं कि यह उनकी पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करता है। अधिकांश आदिवासी समुदाय बेहद गरीब हैं और उनके पास प्रोटीन हासिल करने का कोई दूसरा स्रोत नहीं है।
जंगली मांस पर अध्ययन करने वाले शोधकर्ताओं ने अक्टूबर 2021 में प्रकाशित पर्यावरण और संसाधनों की वार्षिक समीक्षा रिपोर्ट में अपने अध्ययन के हवाले से बताया कि ऊष्णकटिबंधीय देशों में खाद्य प्रणाली की संपोषणयीता सबसे कम होती है, वहां अक्सर लोग जंगली खाद्य पदार्थों पर निर्भर होते हैं।
पश्चिम बंगाल में ‘अखंड शिकार उत्सव’ के दौरान 200 जंगली जानवरों की हत्या पर हुए हंगामे के बाद 15 जून, 2021 को डाउन टू अर्थ में एक लेख “आदिवासी शिकार अधिकार बनाम वन्यजीव संरक्षण कानून: क्या कोई बीच का रास्ता है?” प्रकाशित हुआ। इस लेख में पर्यावरण कानून विशेषज्ञ चिरदीप बसाक और अभिषेक चक्रवर्ती कहते हैं, “जंगली जानवरों के शिकार के पारंपरिक अधिकार को दुनिया भर के न्यायपालिकाओं द्वारा मान्यता दी गई है। ऑस्ट्रेलिया की कोर्ट और विधायिका ने टॉरेस स्ट्रेट आइलैंड और ऑस्ट्रेलियाई मूलनिवासी लोगों के मूल देशज अधिकारों को कानूनी मान्यता दी है, जिसमें डुगोंग नामक जीव को डूबाकर और कछुओं को उनके सिर पर जोरदार वार कर उनका शिकार करने का अधिकार शामिल है। प्राकृतिक वन्यजीव पूंजी का अधिकार स्थानीय वन्य समुदायों के जीवन जीने के तरीके में निहित है, जिसे वन अधिकार अधिनियम, 2006 भी मान्यता देता है।”
दूसरी तरफ मांस के लिए वन्यजीवों का अत्यधिक दोहन 1960 के दशक से ही अहम मुद्दा है। इस दौरान आबादी और अर्थव्यवस्थाएं लगातार बढ़ी हैं और यह एक कठिन चुनौती बनी हुई है। शिकार का प्रभाव आमतौर पर उन जगहों पर अधिक होता है जहां यह व्यवसायिक रूप से किया जाता है। “पर्यावरण व संसाधनों की वार्षिक समीक्षा, 2021” के शोधकर्ताओं ने उन कारणों की पहचान की है, जो मनुष्यों को अनियंत्रित शिकार की ओर ले जाते हैं। इसमें गांव और शहर के बीच आवाजाही में वृद्धि, सस्ते शिकार उपकरणों की व्यापक उपलब्धता, वन्यजीवों के व्यापार में प्रवेश की आसानी, श्रम अवसरों की कमी, वाणिज्यिक अवसरों की वृद्धि आदि शामिल हैं। ये सभी कारक ग्रामीण परिवारों को शिकार करने के लिए प्रेरित करती हैं। वह आगे कहते हैं कि 1990 के दशक से शहरी क्षेत्रों में वन्यजीवों का खपत एक बड़ा मुद्दा है।
एक आकलन के मुताबिक ऊष्णकटिबंधीय वन प्रति वर्ग किलोमीटर में अधिकतम एक व्यक्ति को जंगली मांस जितना प्रोटीन उपलब्ध करा सकते हैं। अगर उसी वन से शहरी बाजार क्षेत्रों की भी आपूर्ति होती है तो उस वन क्षेत्र का दोहन और बढ़ जाता है। कई शहरी क्षेत्रों में पालतू प्रजाति के मछली और मांस जैसे सस्ते विकल्प उपलब्ध होते हैं। इन जगहों पर जंगली मांस का व्यापार उन उपभोक्ताओं की मांग से प्रेरित होता है, जो अधिक महंगा विकल्प चुन सकते हैं। वन्यजीवों के इस तरह के अनियंत्रित उपयोग से उन लोगों पर व्यापक प्रभाव पड़ा है, जिनका निर्वहन और आजीविका जंगली मांस पर निर्भर है। इससे खाद्य सुरक्षा व आय में भी कमी आती है और यह सामाजिक संघर्ष का कारण भी बन सकता है।
वन्यजीवों की प्रवासी प्रजातियों और संरक्षण पर 2021 की यूएन कन्वेंशन रिपोर्ट के अनुसार, “अग्निशस्त्रों की उपलब्धता, उच्च वित्तीय प्रोत्साहन और बेहतर परिवहन सुविधाओं से शहरी आबादी की पहुंच जंगली मांस तक बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, पश्चिमी और मध्य अफ्रीका के देशों के शहरी बाजारों में कैमरून और नाइजीरिया से आए हुए चिंपांजी और चमगादड़ का मांस धड़ल्ले से बेचा जाता है।” रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि जंगली मांस का उपभोग अक्सर शहरी निवासियों द्वारा “विलासितापूर्ण भोजन” के रूप में किया जाता है जबकि यह ग्रामीण आबादी के पोषण के महत्वपूर्ण स्रोत के रूप में काम कर सकता है।
हालांकि, सरकारें और अंतर-सरकारी निकाय इस पहलू की अनदेखी करते हैं और वन्य प्रजातियों के संरक्षण के नाम पर वे इनके शिकार या व्यापार पर ही सीमित या पूर्ण प्रतिबंध लगा देते हैं। इसे लागू करना आसान होता है और इससे उन्हें तात्कालिक परिणाम भी मिल जाता है। लेकिन ये वन्य प्रजातियां बिगड़ते पारिस्थितिक तंत्र, आक्रामक जीवों और बदलती जलवायु जैसे कारणों से भी मर सकती हैं। ऐसे परिदृश्यों में प्रतिबंध लगाना समस्या का समाधान नहीं है।
आईपीबीईएस की इस नवीनतम रिपोर्ट के जवाब में सीआईटीईएस के महासचिव इवोन हिगुएरो कहते हैं, “पचास साल बाद वहनीयता पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होगी।” कई देशों ने वन्यजीवों के व्यापार का नियमन करने के लिए सीआईटीईएस के उपायों को लागू किया है। फिर भी 2020 में आईपीबीईएस ने अनुमान लगाया कि वन्यजीवों का अवैध वैश्विक व्यापार प्रति वर्ष 7 से 23 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है, जो वैध बाजार के मूल्य का लगभग एक चौथाई है। पारिस्थितिकी वैज्ञानिक माधव गाडगिल कहते हैं, “वन्यजीवों की रक्षा के लिए एक भी व्यापक और कारगर उपाय प्रयोग में नहीं है। भारत में वन्यजीवों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना अनुचित है, जहां विभिन्न आदिवासी और स्थानीय समुदाय भोजन, पोषण और आजीविका के लिए इस पर निर्भर हैं।”
अय्यादुरई का कहना है, “ देशज लोगों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहलुओं को गहराई से समझे बिना उनके शिकार प्रथाओं को अपराध घोषित करना सामाजिक अन्याय है। हम जमीन, जानवर और अन्य पारिस्थितिक पहलुओं के साथ उनके संबंधों को स्वीकार करने में विफल रहे हैं और प्रतिबंध लगाकर उनके जैव-सांस्कृतिक ज्ञान को मिटा रहे हैं।”
नवीनतम आईपीबीईएस रिपोर्ट के लेखकों में से एक और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल डेवलपमेंट एंड पंचायती राज, हैदराबाद के प्रोफेसर ज्योथिस एस कहते हैं, “हमें यह समझने की जरूरत है कि वन्य प्रजातियों के उपयोग से भी उनका संरक्षण होता है।” भारत का उदाहरण देते हुए ज्योथिस कहते हैं, “जैव विविधता व वन कानून स्वदेशी समुदायों की इन जरूरतों को पहचानते हैं लेकिन ये कानून ठीक से लागू नहीं होते।” उदाहरण के लिए, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 अंडमान के स्वदेशी समुदायों को छोड़कर अन्य लोगों पर भोजन या व्यापार के लिए जंगली जानवरों के शिकार पर रोक लगाता है। जहां स्थानीय समुदायों को नीलगाय और जंगली सूअर जैसे जानवरों को मारने की अनुमति होती है, वहां पर भी पोस्टमॉर्टम, दफनाने और दाह संस्कार के लिए शवों को वन विभाग को सौंपना पड़ता है।
वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसाइटी ऑफ इंडिया, नई दिल्ली के एक शोधकर्ता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “यहां तक कि अगर स्थानीय लोगों ने जानवर को मार दिया है, तो भी वे उनका मांस नहीं खा सकते हैं।” डूकिया का कहना है कि वर्मिन घोषित हुए जानवरों को मारने की अनुमति के साथ-साथ उन्हें खाने की अनुमति भी दी जानी चाहिए। विज्ञान-प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और वन मामलों पर बनी स्थायी संसदीय समिति ने 2017 में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से शाहतूश शॉल के व्यापार पर प्रतिबंध हटाने की सिफारिश की थी। शाहतूश शॉल लुप्तप्राय तिब्बती मृगों के फर से बनाए जाते हैं, जो डब्ल्यूपीए के तहत संरक्षित एक वन्य प्रजाति है और जिसका व्यापार 1975 में सीआईटीईएस प्रावधानों के तहत विश्व स्तर पर प्रतिबंधित कर दिया गया था। प्रस्ताव में तर्क दिया गया था कि ऐसा करने से जम्मू में आजीविका के और अवसर पैदा होंगे।
हालांकि, मंत्रालय ने इसके जवाब में कहा कि इस तरह की पहल संभव नहीं है क्योंकि इसमें जानवर को मारना होगा। इसलिए ऐसे प्रस्तावों पर फिर से विचार करने की जरूरत है। वन्य प्रजातियों के नियंत्रित उपयोग पर ध्यान देने से कई लाभ हो सकते हैं। उदाहरण के लिए टर्टल सर्वाइवल एलायंस इंडिया प्रोग्राम के निदेशक शैलेंद्र सिंह का कहना है कि देश में मगरमच्छों की आबादी 1974 में लगभग विलुप्त हो चुकी थी। दशकों के पुनर्वास और संरक्षण प्रयासों के बाद इनकी संख्या हजारों में हो गई है। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, ओडिशा, गुजरात व कर्नाटक में मगरमच्छों की आबादी में वृद्धि ने मानव-पशु संघर्षों को भी जन्म दिया।
राजस्थान के कोटा में संरक्षणवादी वकील तपेश्वर सिंह भाटी कहते हैं, “मॉनसून के समय नदियों में बाढ़ आने के बाद मगरमच्छ नहरों के माध्यम से खेतों और अन्य क्षेत्रों में चले जाते हैं। मगरमच्छों के मानव आबादी में प्रवेश करने से संघर्ष की स्थिति पैदा हो जाती है। उस समय उनका इस्तेमाल मांस, खाल और दूसरे कारोबारों के लिए किया जा सकता है।”
पुणे स्थित गैर-लाभकारी पर्यावरण संगठन कल्पवृक्ष के संस्थापक सदस्य आशीष कोठारी कहते हैं, “वन्यजीवों के नियंत्रित उपयोग से स्थानीय समुदायों को आर्थिक और पोषण स्तर पर लाभ मिलता है। यदि एक व्यापार इकाई बनाई जाती है, तो स्थानीय समुदायों को प्राथमिक लाभार्थी के रूप में रखना चाहिए। यदि वे निर्णय लेने की प्रक्रिया में शामिल होते हैं तो अधिकांश सामुदायिक अधिकारों की रक्षा की जा सकती है।”
कश्मीर विश्वविद्यालय में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर और आईपीबीईएस रिपोर्ट के एक प्रमुख लेखक मंजूर शाह कहते हैं, “हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि हमें वन्य प्रजातियों का इस तरह से उपयोग करना है कि उनकी उपलब्धता भविष्य की पीढ़ियों के लिए कम न हो। हम इसे कैसे लागू करते हैं यह एक महत्वपूर्ण चुनौती है।” ऐसे कई उदाहरण हैं जो बताते हैं कि स्थानीय समुदायों के पारंपरिक ज्ञान से वन्य प्रजातियों का संरक्षण किया जा सकता है। मानव द्वारा उपभोग की जाने वाली 10,098 प्रजातियों में से कम से कम 34 प्रतिशत ऐसी वन्य प्रजातियां हैं, जो खतरे में हैं। लेकिन नियंत्रित उपयोग से विलुप्त होती प्रजातियों को बचाया जा सकता है। वन्य प्रजातियों को नियंत्रित करने वाली नीतियों को बनाते वक्त सामाजिक और ऐतिहासिक आयामों को ध्यान में रखना होगा। जब संरक्षण को आजीविका के साथ जोड़ा जाता है, तो समुदाय के लोग सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं और वन्यजीव प्रबंधन सफल होता है।
कानून और स्थानीय लोगों की मदद
ऐसी ही एक सफलता की कहानी विक्यूना नाम की वन्य प्रजाति की है, जो चिली, इक्वाडोर, पेरू, बोलीविया और अर्जेंटीना के ऊंचाई वाले इलाकों में पाई जाती है। अपने उच्च गुणवत्ता वाले ऊन के लिए प्रसिद्ध विक्यूना 1960 के दशक तक विलुप्त होने के कगार पर थी। इसके बाद लैटिन अमेरिकी देशों ने उनके ऊन के व्यापार प्रतिबंध लगा दिया। 1975 में विक्यूना को सीआईटीईएस कन्वेंशन के परिशिष्ट I में सूचीबद्ध किया गया, जिसने इसके अंतरराष्ट्रीय व्यापार को और प्रतिबंधित कर दिया। इसके बाद इनका संरक्षण हुआ और जंगलों में उनकी संख्या 1969 में 3,000 से बढ़कर 2018 में 1,63,000 हो गई। तब से सीआईटीईएस ने इनकी कई उप-प्रजातियों को परिशिष्ट II में डाउनग्रेड कर दिया है, जो उनके ऊन के विनियमित व्यापार को फिर से शुरू करने की अनुमति देता है। विचुना की आबादी अब बढ़कर 2,50,000 से अधिक हो गई है। 2007 और 2014 के बीच स्थानीय समुदायों ने विचुना ऊन के व्यापार से 1,15,35,000 डॉलर कमाए हैं।
एक अन्य उदाहरण कनाडा का है, जहां 16,000 से अधिक ध्रुवीय भालू पाए जाते हैं। इस प्रजाति को देश के एक संरक्षण कानून “स्पीसीज एट रिस्क एक्ट” के द्वारा संरक्षित किया गया है क्योंकि इन्हें जलवायु परिवर्तन के दीर्घकालिक प्रभावों से खतरा है। इसके अलावा इन्हें प्रांतीय और क्षेत्रीय कानून के तहत भी संरक्षित किया गया है जिसके द्वारा इनके शिकार को विनयमित किया जाता है। लेकिन आर्कटिक और उप-आर्कटिक क्षेत्रों में रहने वाले स्थानीय लोगों के एक समूह इनुइट के पास कनाडा के वन्य प्रजातियों के शिकार और उपभोग के कानूनी अधिकार संरक्षित हैं। वे अपनी पोषण संबंधी जरूरतों, आजीविका और सांस्कृतिक परंपराओं को पूरा करने के लिए ध्रुवीय भालुओं का शिकार करते हैं। यह अनुमान लगाया गया है कि 2011 में इस समुदाय को ध्रुवीय भालुओं के शिकार से 0.46 मिलियन अमेरिकी डॉलर का लाभ हुआ था।
दुनिया भर में 1940 और 1960 के बीच खारे पानी के मगरमच्छों की आबादी में भारी गिरावट आई थी क्योंकि उनका अंधाधुंध शिकार करके चमड़े के महंगे और विलासितापूर्ण उत्पाद अनियंत्रित ढंग से बनाए जा रहे थे। 1975 में इसे सीआईटीईएस परिशिष्ट II में, फिर 1979 में परिशिष्ट I में सूचीबद्ध किया गया। 1985 में ऑस्ट्रेलिया में इन प्रतिबंधों में ढील दी गई थी और इस क्षेत्र की मगरमच्छ आबादी को परिशिष्ट II में स्थानांतरित कर दिया गया। 1994 में खारे पानी के मगरमच्छों के अप्रतिबंधित उपयोग और व्यापार की अनुमति दी गई थी।
ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्षेत्र में 2019 में इनकी आबादी 80,000-100,000 थी और अब ये आईयूसीएन की लाल सूची में “सबसे कम चिंता वाले” लुप्तप्राय जीवों में शामिल हैं। इस क्षेत्र में मगरमच्छ उद्योग का आर्थिक मूल्य 75 मिलियन डॉलर आंका गया है। यह परिवर्तन कई मूल ऑस्ट्रेलियाई समुदायों के कारण संभव हुआ है, जिनके मगरमच्छों के साथ मजबूत सांस्कृतिक संबंध हैं। इन समुदायों को संरक्षण प्रयासों में शामिल किया गया और उनकी पारंपरिक ज्ञान प्रणाली का उपयोग घटती आबादी को सही करने में किया गया (देखें, शिकार भी, संरक्षण भी,)।
अफ्रीका में ट्रॉफी हंटिंग
लगभग 20 साल पहले अफ्रीकी हाथियों की आबादी कम हो रही थी और हाथी दांत के व्यापार पर प्रतिबंध लगा था। आज कई अफ्रीकी देशों में इतने हाथी हैं कि उनका मजबूरन शिकार किया जा रहा है। शिकार पर्यटन अब यहां के राजस्व का एक प्रमुख स्रोत है। 6 जुलाई को बॉन में आईपीबीईएस जब अपने नौवें पूर्ण सत्र में अपनी नवीनतम मूल्यांकन रिपोर्ट पर बात कर रहा था, तो 135 से अधिक पशु संरक्षण और अधिकार समूहों ने मांग की कि दुनिया भर की सरकारों को शिकार को खेल समझने और ट्राॅफी के तौर पर शिकार हुए वन्य जीवों के आयात करने (ट्रॉफी हंटिंग) पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। जर्मन संरक्षण संगठन प्रो वाइल्डलाइफ की मोना श्वेइजर ने एक बयान में कहा, “यह वन्यजीव शोषण के सबसे खराब रूपों में से एक है। यह न तो नैतिक है और न ही टिकाऊ। यह अस्वीकार्य है कि जंगली जानवरों के शिकार को ट्रॉफी के रूप में देखा जाता है और उनका कानूनी रूप से आयात भी किया जा सकता है।”इसका विरोध करते हुए नौ दक्षिणी अफ्रीकी देशों में वन्यजीव संरक्षण में शामिल सैकड़ों समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले कम्युनिटी लीडर्स नेटवर्क (सीएलएन) के रॉजर्स लुबिलो ने एक प्रेस बयान जारी करते हुए कहा, “ट्राॅफी हंटिंग पर कई गलत धारणाएं और सूचनाएं हैं।
गलत जानकारी वाले लोगों को यह एहसास नहीं है कि यह वन्यजीव संरक्षण और स्थानीय लोगों की आजीविका का एक प्रभावी उपकरण है।” ट्रॉफी हंटिंग कई अफ्रीकी देशों में वन्यजीव संरक्षण और सामुदायिक विकास के लिए प्रोत्साहन पैदा करने की क्षमता रखता है, जिनमें वे देश भी शामिल हैं जहां पर्यावरण पर्यटन व्यवहारिक नहीं है। इसलिए ये प्रस्तावित प्रतिबंध, संरक्षण कार्यक्रमों के लिए विनाशकारी और अनपेक्षित परिणाम वाले साबित हो सकते हैं। सबसे पहले प्रस्तावित प्रतिबंध शिकार को रोकेंगे और महत्वपूर्ण राजस्व को कम करेंगे, जिससे समुदायों के सामाजिक विकास और वन्यजीव संरक्षण कार्यक्रम को आर्थिक प्रोत्साहन मिलता है। इससे स्थानीय लोग अपनी जमीनों पर वन्यजीवों को रखने के लिए निरुत्साहित होंगे। दूसरा, इससे मानव-पशु संघर्ष को भी गति मिलेगी। उदाहरण के लिए 2014 में ट्रॉफी हंटिंग को प्रतिबंधित करने के बाद मानव-हाथी संघर्षों में वृद्धि हुई थी। जंगली हाथियों ने पशुधन का बहुत नुकसान किया। अंत में मई 2019 में, बोत्सवाना ने हाथियों का शिकार करने की अनुमति दे दी।
इसी तरह तंजानिया भी अपने राष्ट्रीय उद्यान और संरक्षण क्षेत्रों से बाहर शिकार पर्यटन की अनुमति देता है। इस देश ने अपनी लगभग एक-चौथाई भूमि को वन्यजीव संरक्षण के लिए अलग रखा है। ऐसे क्षेत्र में से कहीं पर भी बाड़ जैसा कुछ नहीं लगाया गया है और वन्यजीवों के स्वतंत्र आवागमन पर पूरी छूट है। यह देसी और विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करता है। यहां पर सेरेनगेटी नेशनल पार्क और नगोरोंगोरो संरक्षण क्षेत्र सबसे प्रमुख पर्यटन स्थल हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यहां का पर्यटन क्षेत्र सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में करीब 17 फीसदी का योगदान देता है। सितंबर 2019 तक तंजानिया राष्ट्रीय उद्यान प्राधिकरण के तहत 99,306.5 वर्ग किमी में फैले कुल 22 राष्ट्रीय उद्यान थे। देश के पर्यटन प्राधिकरण का कहना है कि नियंत्रित क्षेत्रों में वैध शिकार आमतौर पर हर साल जुलाई से दिसंबर तक होता है। यहां के लोगों को बुशमीट के लिए शिकार करने की अनुमति है, लेकिन शिकार करने के लिए प्रतिवर्ष का कोटा भी निर्धारित है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वन्यजीवों का अत्यधिक दोहन न हो। तंजानिया के प्राकृतिक संसाधन और पर्यटन मंत्री पिंडी चन्ना ने मई 2022 में देश की संसद को बताया था कि सरकार शिकार पर्यटन में निवेश के लिए अनुकूल माहौल तैयार कर रही है। शिकार पर्यटन से होने वाला राजस्व 2021 में 1.84 मिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर अप्रैल 2022 में 9.48 मिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है।
गेम एंड वाइल्डलाइफ साइंस पत्रिका में 2004 में प्रकाशित एक अध्ययन इस बात पर प्रकाश डालता है कि तंजानिया में शेर और कुछ अन्य वन्य जीव प्रजातियां ट्रॉफी हंटिंग से प्रभावित हो रही हैं। हालांकि यह प्रभाव बहुत बड़ा नहीं है। इसमें कहा गया है कि कई क्षेत्रों में वन्यजीवों की आबादी में गिरावट आई है, लेकिन यह बुशमीट की बढ़ती अवैध मांग के कारण है। यह अध्ययन कहता है, “इस बात का कोई सबूत नहीं है कि पर्यटन शिकार के कारण वन्यजीवों की आबादी में महत्वपूर्ण गिरावट आई है, लेकिन इस बात के बहुत सारे सबूत हैं कि एक विनियमित शिकार उद्योग के कारण शिकारियों की अवैध गतिविधियों को कम करने में महत्वपूर्ण योगदान मिला है। इससे स्थानीय वन्य समुदायों को आर्थिक प्रोत्साहन भी मिलता है और वह विशाल वन्य क्षेत्रों के संरक्षण के लिए प्रोत्साहित भी होते हैं।”
लोग मालिक बनें
अन्य अफ्रीकी देशों में भी वन्यजीवों के नियंत्रित उपयोग को मान्यता दी गई है। उदाहरण के लिए नामीबिया ने 1998 समुदाय-आधारित प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन (सीबीएनआरएम) कार्यक्रम शुरू किया, जिसमें गरीबी उन्मूलन को सामुदायिक वन्यजीव संरक्षण से जोड़ा गया है। सीबीएनआरएम के तहत ग्रामीण समुदायों को वन्यजीवों और प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रित उपयोग करने और उनसे लाभ प्राप्त करने का अधिकार है। इन स्थानीय समुदायों को सरकार ट्रॉफी हंटिंग जानवरों जैसे हाथी, गैंडा, स्प्रिंगबॉक और ऑरिक्स के संरक्षण का अधिकार देती है, जिनका समय-समय पर पेशेवर शिकारियों द्वारा ट्रॉफी हंटिंग किया जाता है। शिकार का मांस घरेलू उपभोग या व्यापार के काम आता है। इन सभी गतिविधियों से हुए राजस्व को संरक्षण निधि में जमा किया जाता है, जिसे बाद में विकास कार्यक्रमों के लिए उपयोग में लाया जाता है। सीबीएनआरएम से सामुदायिक संरक्षण के कारण 1995 और 2016 के बीच नामीबिया में हाथियों की आबादी लगभग 7,600 से बढ़कर लगभग 23,600 हो गई।
यह देश वर्तमान में दुनिया में काले गैंडों की सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। सरकार के “स्टेट ऑफ कम्युनिटी कंजर्वेशन इन नामीबिया रिपोर्ट, 2020” के अनुसार, 1990 की शुरुआत से 2020 के अंत तक इस सामुदायिक संरक्षण से नामीबिया की शुद्ध राष्ट्रीय आय में 642 बिलियन अमेरिकी डॉलर का इजाफा हुआ, जबकि 2020 में 3,870 लोगों को रोजगार मिला। इससे स्थानीय समुदायों को पर्यटन, संरक्षण शिकार और शिल्प कलाकृतियों के माध्यम से लगभग 3.3 मिलियन अमेरिकी डॉलर की आय हुई। नामीबिया के सीबीएनआरएम की तरह ही जिम्बाब्वे ने 1989 में प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रित उपयोग के लिए सामुदायिक प्रबंधन कार्यक्रम (कैंपफायर) शुरू किया। इसके तहत वन्यजीवों के साथ रहने वाले ग्रामीण समुदाय सफारी शिकार, पशु उत्पादों की बिक्री और पर्यटन माध्यम से होने वाले आय के एक हिस्से से लाभान्वित होते हैं। बदले में उन्हें वन्यजीवों को अवैध शिकार से बचाना होता है।
कैंपफायर कार्यक्रम के प्रमुख इश्मायल चौकुरा कहते हैं, “हरारे से लगभग 200 किमी उत्तर स्थित जम्बेजी घाटी के ग्रामीण जिले म्बायर के मासोका, चिसुंगा, गोनोनो और कान्येम्बा जनजाति के लोगों का कैंपफायर कार्यक्रम से बहुत विकास हुआ है। इन समुदायों के कई सदस्य रेंजर, क्लर्क, ड्राइवर, सुरक्षा गार्ड और अन्य विभिन्न भूमिकाओं के रूप में कार्यरत हैं। इस कार्यक्रम से होने वाला राजस्व प्रति वर्ष 2 मिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है। इस कार्यक्रम से हो रहे राजस्व का उपयोग ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों, अस्पतालों, सड़कों, पुलों और अन्य बुनियादी ढांचों के निर्माण में किया जा रहा है और इससे रोजगार के अवसर भी पैदा हुए हैं। इन जगहों पर वन्यजीवों की संख्या में अब अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। लेकिन इसके परिणामस्वरूप मानव-वन्यजीव संघर्ष भी हुआ है। जिम्बाब्वे की हाथियों की आबादी अब 1,00,000 है, जो देश की 45,000 की वहन क्षमता के दोगुने से अधिक है। इस बढ़ते बोझ को संबोधित करना ही “ह्वांगे हाथी सम्मेलन” का विषय था जिसे मई में आयोजित किया गया था। इस शिखर सम्मेलन में 14 अफ्रीकी देशों, चीन और जापान के प्रतिनिधियों ने भाग लिया।
हाल के वर्षों में हाथियों की बढ़ती आबादी और उससे होने वाली समस्याओं पर चर्चा करने के लिए यह ऐसी तीसरी क्षेत्रीय बैठक थी। पिछले साल जिम्बाब्वे की सरकार ने संकेत दिया था कि वह कुछ हाथियों को मारने पर विचार कर रही है। रवांडा के वोलकानो नेशनल पार्क में पिछले 15-20 साल में अवैध शिकार की संख्या में 85 प्रतिशत तक की कमी आई है क्योंकि स्थानीय समुदाय के लोग संरक्षण में शामिल हुए हैं। इससे उन्हें आमदनी का जरिया भी मिला है। उद्यान के प्रमुख वार्डन प्रॉस्पर उविंगली कहते हैं, “2005 में हमने राजस्व बंटवारे की योजना शुरू की थी, जिससे स्थानीय समुदाय वन्यजीव संरक्षण के लिए आगे आए हैं। इसके तहत स्थानीय समुदायों को पर्यटन राजस्व का 10 प्रतिशत लाभ मिलता है।”
2019 में तीन नेशनल पार्कों से राजस्व में लगभग 26 मिलियन अमेरिकी डॉलर का योगदान हुआ। 2005 और 2020 के बीच रवांडा विकास बोर्ड द्वारा 647 समुदाय-आधारित परियोजनाओं के लिए लगभग 5 मिलियन अमेरिका डॉलर से अधिक की राशि वितरित की गई। राजस्व बंटवारा योजना के तहत स्थानीय समुदायों को बुनियादी ढांचे जैसे जलापूर्ति, बिजली, स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र, आय उपलब्ध कराने वाली परियोजनाओं और अन्य सुविधाओं का भी लाभ हुआ।
उविंगली कहते हैं कि कुछ राजस्व अवैध शिकार से लड़ने में भी लगाया गया।
चुनौतियां बाकी हैं पर्यावरणविद स्वीकार करते हैं कि वन्य प्रजातियों के नियंत्रित उपयोग को अपनाने में कई चुनौतियां आ सकती हैं। कछुआ (पंडुक) संरक्षण संघ के शैलेंद्र सिंह कहते हैं, “पूर्वी और पूर्वोत्तर भारत के राज्यों जैसे त्रिपुरा में अक्सर बाजारों में कछुए खुले तौर पर बेचे जाते हैं। विक्रेताओं का दावा है कि वे कछुओं को भारत से नहीं बल्कि बांग्लादेश से पकड़ते हैं। सिंह का कहना है कि अगर वन्यजीवों के नियंत्रित उपयोग की संभावना बनती है तो ऐसे मुद्दे भी चिंता का विषय बन सकते हैं। वह पूछते हैं, “क्या भारत में एक मजबूत क्रियान्वयन नीति है, जिससे कठिन नियमों को लागू किया जा सकता है?” उनका सुझाव है कि भोजन और व्यापार के क्षेत्र में वन्य प्रजातियों का नियंत्रित उपयोग किया जा सकता है। वह कहते हैं, “हालांकि इससे बीमारियों में वृद्धि जैसी अन्य समस्याएं भी हो सकती हैं, लेकिन ऐसे प्रभावों पर चर्चा करना अभी जल्दबाजी होगी।”
हालांकि गुजरात स्थित वैज्ञानिक वरद गिरी का कहना है कि उपभोग के लिए “नियंत्रित उपयोग” की परिभाषा को फिर से परिभाषित करने की जरूरत है। वह कहते हैं, “भारत में वन्यजीवों की आबादी घट रही है जबकि मानव आबादी विस्फोट कर रही है। आप केवल यह कहकर जैव विविधता का दोहन नहीं कर सकते कि यह आपके प्रोटीन की जरूरतों को पूरा करता है। आप बताइए कि कौन निर्णय लेगा कि नियंत्रित संख्या क्या है? एक समय बड़ी संख्या में मौजूद वन्यजीव आबादी पहले ही कम हो चुकी है और उसे फिर से कभी प्राप्त भी नहीं किया जा सकता है। यदि वन्य प्रजातियों के नियंत्रित उपयोग की अनुमति मिलती है, तो संभावना यह भी है कि इससे स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाएगी।”
इस बात से कोई इनकार नहीं है कि वन्य प्रजातियों के नियंत्रित उपयोग के लिए कानून और सरकार के समर्थन की जरूरत होगी। लेकिन इसे तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक स्थानीय समुदाय सुरक्षित महसूस नहीं करे। अत्यधिक और अनियंत्रित उपयोग से जंगली पौधों की प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा है। उन्हें बुद्धिमानी से प्रबंधित करने के लिए पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करें। अमेरिका के ग्रेट लेक क्षेत्र में रहने वाले स्थानीय समुदाय के लोग जिजानिया पैलुस्ट्रिस नाम के एक जंगली चावल की किस्म पर बहुत अधिक निर्भर हैं। इस किस्म में प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों की मात्रा बहुत अधिक होती है और इसे लंबे समय तक संग्रहीत भी किया जा सकता है। यह उन्हें कठोर सर्दियों में गुजारा करने में मदद करता था।
इसे आज भी दावतों और अन्य समारोहों में परोसा जाता है। आईपीबीईएस के नवीनतम आकलन के अनुसार, जिजानिया पैलुस्ट्रिस को दुनिया भर में अरबों लोगों द्वारा उपयोग किया जाता है। इन प्रजातियों में वनस्पति और जीव दोनों शामिल हैं और इनमें भी 60 प्रतिशत से अधिक पौधे, शैवाल और कवक हैं। इसलिए भू-उपयोग परिवर्तन, अति-शोषण और जलवायु परिवर्तन के कारण इन प्रजातियों को जिन खतरों का सामना करना पड़ रहा है, वे वैश्विक खाद्य प्रणालियों के लिए हानिकारक साबित होंगे, जैसा कि वन्य प्रजातियों के नियंत्रित उपयोग पर आकलन रिपोर्ट कहती है। यह बॉन, जर्मनी में आईपीबीईएस के नौवें पूर्ण सत्र के दौरान जारी किए गए दो आकलनों में से एक है।
फ्रांसीसी वैज्ञानिक और इस आकलन रिपोर्ट के उपाध्यक्ष जीन-मार्क फ्रोमेंतां ने 8 जुलाई को रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि बड़ी संख्या में प्रजातियों पर पर्याप्त डेटा की कमी चिंताजनक है, क्योंकि भोजन, वैकल्पिक दवाओं और विलासिता की वस्तुओं के लिए इन संसाधनों की मांग लगातार बढ़ रही है। यह आकलन एक गंभीर तस्वीर पेश करता है। लगभग 12 प्रतिशत जंगली वृक्ष प्रजातियों को अत्यधिक कटाई से खतरा है। इसी तरह वन्य प्रजातियों का व्यापार दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा अवैध व्यापार है, जिसका अनुमानित मूल्य 199 बिलियन अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष है। मात्रा और मूल्य के मामले में लकड़ियों और मछलियों के अवैध व्यापार के बाद इसका ही नंबर आता है।
अनियंत्रित शोषण से उन वन्य प्रजातियों को भी खतरा है, जिनका अब तक स्थानीय वन्य समुदायों द्वारा नियंत्रित ढंग से उपयोग किया जाता रहा है। लेकिन इन प्रजातियों, उनके पारिस्थितिक तंत्र और उपयोगों में विविधता के कारण सभी के संरक्षण के लिए एक समाधान खोजना एक कठिन कार्य है। हालांकि सीआईटीईएस और आईपीबीईएस जैसी जैव विविधता संरक्षण पर काम करने वाली संस्थाओं का मानना है कि इन सभी समस्याओं का एक समाधान संभव है।
हालांकि नवीनतम आकलन रिपोर्ट इस बात पर जोर डालता है कि वन्य प्रजातियों के नियंत्रित उपयोग का कोई एक समाधान नहीं ढूंढ़ा जा सकता है। अफ्रीका की मसाई जनजातियों द्वारा उपयोग की जाने वाली प्रजातियां, रूस, उत्तरी अमेरिका और पूर्वी यूरोप के स्थानीय स्वदेशी लोगों द्वारा उपयोग की जाने वाली प्रजातियों से अलग होती हैं। हालांकि सभी प्रजातियों के सामने आने वाली चुनौतियां लगभग समान हैं। अमेरिका की भूगोलवेत्ता और इस आकलन रिपोर्ट के सह-अध्यक्ष मारला एमरी का मानना है कि वन्य प्रजातियों के संरक्षण के तरीकों को सार्वभौमिक रूप से सभी जगहों पर अपनाया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जंगली पौधों को उगाने से प्राकृतिक आबादी पर दबाव कम होगा, लेकिन यह उन स्वदेशी लोगों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है जो पोषण सुरक्षा और आय के लिए इन स्रोतों पर निर्भर हैं। मसलन, स्थानीय समुदायों को पता है कि खेती का कौन सा समय और स्थान अनुकूल है और उस समय किन जंगली प्रजातियों से बचना चाहिए। फलों की कटाई के लिए पूरे पेड़ों को काटना या उत्पादन बढ़ाने के लिए नई तकनीकों को पेश करना समुदायों को अलग-थलग कर पारंपरिक ज्ञान को खत्म कर सकता है। इस आकलन रिपोर्ट में पाया गया है कि गरीबी उन्मूलन के साथ-साथ भूमि अधिकार, मत्स्य पालन और जंगलों तक सुरक्षित पहुंच का समर्थन करने वाली नीतियां ही नियंत्रित उपयोग को सक्षम बनाती हैं। रिपोर्ट सोलोमन द्वीप समूह का उदाहरण देता है, जहां की नीतियां स्थानीय मछली पकड़ने वाले समुदायों को पारंपरिक तरीके से वितरित करने का अधिकार देती हैं। इससे पता चलता है कि समावेशी और सहभागी निर्णय लेने, ज्ञान के पारंपरिक रूपों को पहचानने, लाभ का उचित और न्यायसंगत बंटवारा करने, जंगली प्रजातियों और प्रथाओं की निगरानी करने और अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर नीतियों को संरेखित करने से नीतियों की सफलता में वृद्धि हो सकती है।
हालांकि, आईपीबीईएस द्वारा जारी की गई एक दूसरी रिपोर्ट में कहा गया है कि ऊपर बताए गए मानदंडों को शायद ही नीतियों में शामिल किया जाता है। इस रिपोर्ट के अनुसार प्रकृति के मूल्यों को बताने के लिए वर्तमान में 50 से अधिक विधियां हैं, लेकिन सबका ध्यान केवल अल्पकालिक लाभ और आर्थिक विकास पर है। उदाहरण के लिए बाजार मूल्य तय करने में लोगों की भागीदारी पर की गई एक अध्ययन की समीक्षा से पता चलता है कि सिर्फ एक प्रतिशत हितधारक ही परामर्श और मूल्यांकन प्रक्रिया के हर चरण में शामिल होते हैं। इसी तरह केवल चार प्रतिशत अध्ययन ही सामाजिक न्याय को सुधारने की दिशा में होते हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि अक्सर नीति निर्माण में कई गैर-बाजार मूल्यों जैसे-जलवायु नियमन और सांस्कृतिक पहचान की अनदेखी की जाती है। इसका मतलब है कि भोजन, ऊर्जा, सामग्री, दवा और आय प्रदान करने वाली सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व की वन्य प्रजातियों को स्थायी शोषण के लिए मुक्त छोड़ दिया जाता है। आईपीबीईएस का आकलन इस साल के अंत में सीआईटीईएस और सीबीडी की बैठक से पहले आता है। यह आशा की जाती है कि ये आकलन बैठक में चर्चा और निर्णयों को सूचित करेंगे, जिससे जैव विविधता के स्थायी प्रबंधन का मार्ग प्रशस्त होगा।