क्या सेंटीनेलिस को ‘बचाने’ की जरूरत है?

अंडमान की सेंटीनेलिस और अन्य जनजातियों की आबादी सीमित है। क्या वे विलुप्त हो जाएंगी?
उत्तरी सेंटीनल द्वीप। फोटो : वीकिमीडिया कॉमन्स
उत्तरी सेंटीनल द्वीप। फोटो : वीकिमीडिया कॉमन्स
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अंडमान की सेंटीनेलिस जनजाति अभी कथित तौर पर द्वीप पर आए युवा अमेरिकी मिशनरी प्रचारक जॉन एलन चाऊ की हत्या के लिए सुर्खियों में हैं। लेकिन सबसे बड़ी चिंताओं में से एक चिंता उनके अस्तित्व के सवाल को लेकर है।

इस जनजाति को स्वतंत्रता के बाद से ही इस द्वीप पर अकेला रहने दिया गया, ताकि वे उन बीमारियों से बच सकें जिसके खिलाफ उन्होंने कोई प्रतिरक्षा प्रणाली विकसित नहीं की है। अकादमिक सर्कल में लंबे समय से ये बहस है कि क्या इस जनजाति के सदस्यों को अकेले छोड़ना ठीक है या फिर उन्हें तथाकथित “सभ्य दुनिया” के संपर्क में आने देना चाहिए।  

इसके पीछे तर्क यह है कि द्वीप समूह के अन्य स्वदेशी समूह के साथ ही सेंटीनेलिस की  आबादी बहुत ही कम है। भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार, इस द्वीप पर केवल 15 सेंटीनेल ही थे। लेकिन जनगणना अधिकारियों ने जनजाति को केवल एक दूरी से देखकर, बिना उनके पास गए ही उनकी जनगणना कर ली।

उनकी संख्या को देखते हुए, क्या सेंटीनेलिस इतने बच्चे पैदा कर सकते हैं, जिससे वे अपनी जनजाति, संस्कृति और वंशावली को बरकरार रख सकें? या फिर वे धीरे-धीरे विलुप्त हो जाएंगे?

सितंबर में डाउन टू अर्थ ने त्रिलोकीनाथ पंडित का साक्षात्कार लिया था। त्रिलोकीनाथ पंडित 1967 में उत्तरी सेंटीनल द्वीप में आयोजित भारतीय सरकार के एक अभियान के एकमात्र मानवविज्ञानी थे। उन्होंने “द सेंटीनेलिस” पुस्तक भी लिखी है। हमने अन्य प्रश्नों के साथ ही जनगणना के आंकड़ों पर भी उनसे सवाल किए थे।

पंडित का जवाब स्पष्ट है, “मैं जनगणना के आंकड़ों से सहमत नहीं हूं, क्योंकि वे मनमानीपूर्ण हैं, अक्सर गलत होते हैं और बिना किसी आधार के होते हैं। मेरा खुद का अनुमान है कि उनकी संख्या 80 से 100 के बीच बनी हुई है। मेरे पास इसका समर्थन करने के लिए पर्याप्त कारण भी हैं।”

वह 1967 की यात्रा को याद करते हैं, “मैं सशस्त्र पुलिसकर्मी और बिना शस्त्र वाले नौसैनिकों द्वारा अनुरक्षित वैज्ञानिकों की एक पार्टी का सदस्य था। जनजाति समुद्र तट पर थी। वे नाव को द्वीप पर आते देख रहे थे। वे बड़ी संख्या में थे। लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया या नाराजगी नहीं दिखाई। हम जंगल के अंदर लगभग एक किलोमीटर तक चले गए। वे हमारे सामने नहीं आए, बल्कि जंगल में छुपकर हमें देख रहे थे। कुछ समय बाद, हम एक बड़े शिविर में गए। वहां 18 छोटी झोपड़ियां थीं, जिनमें से प्रत्येक के सामने आग जल रही थीं और वे छड़ी से घिरी थीं।

पंडित ने कहा, “आग पर पकाने के लिए जंगली फलों और मछली बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध थी। आसपास धनुष और तीर बिखरे हुए थे। 18 झोपड़ियों का एक शिविर कम से कम 50 से 60 लोगों की आबादी को इंगित करता है। यह 1967 की बात है। 1970 के दशक में, मैंने लगभग 30 से 40 लोगों को देखा था। संख्या में कटौती करने का अलग तरीका है। उत्तरी सेंटीनेल छोटा है, लगभग 20 वर्ग मील का। जनसांख्यिकीय मानकों के मुताबिक, समुद्र से घिरे 20 वर्ग मील का जंगल 100 की संख्या में आबादी को बनाए रख सकता है। भले ही वह जंगल तक ही सीमित हो। यहां 30 से 40 लोग तो होंगे ही।” 

जनसांख्यिकीय और आनुवंशिकीविद पंडित के विचारों से सहमति प्रकट करते हैं। हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में जेनेटिक्स विभाग में आईसीएमआर एमिरिटस मेडिकल वैज्ञानिक वीआर राव ने कहा, “ग्रेट अंडमानी, जारावा और सेंटीनेलिस आबादी की आनुवांशिक विविधता इस सीमा तक नहीं गई है कि वे विलुप्त हो सके। अब भी उनमें आनुवांशिक क्षमता है।”

हालांकि यह कहना भी सही नहीं होगा कि सेंटीनेलिस और अन्य जनजातियों को कोई खतरा नहीं है। हैदराबाद में सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के मुख्य वैज्ञानिक के थंगाराजा कहते हैं, “सेंटीनेलिस एंडोगेमस अथवा एक ही समूह में शादी करने वाला समूह है। उन्हें दो परिस्थितियों में मिटाया जा सकता है। चूंकि वे एंडोगेमस हैं, इसलिए उनके लिए यह भी एक खतरा है।”

समूह से बाहर शादी करने की परंपरा में एक ही चरित्र के लिए प्रमुख जीन की उपस्थिति के कारण खुद को व्यक्त करने में असमर्थ हैं। थांगराज ने कहा, “सेंटीनेलिस सहित अंडमानी जनजातीय समूह के इस कैटेगरी में फिट होने की संभावना है।” वह कहते हैं, अगर महामारी फैलती है और यदि इनके पास सुरक्षात्मक जीन नहीं है तो यह पूरी आबादी को मिटा सकता है या एक प्राकृतिक आपदा भी इन्हें समाप्त कर सकती है।”

राव ने कहा, “उनके लिए दो प्रमुख खतरे हैं, संक्रमण और शिशु मृत्यु दर। इन जनजातियों के ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि इन्हें मलेरिया और खसरा से खास खतरा है। उनकी आबादी छोटी है और उनकी संख्या में उतार-चढ़ाव होता रहता है। उन्हें समय के साथ अपनी आबादी में वृद्धि नहीं मिल रही है। कोई प्रतिस्थापन नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जनसांख्यिकीय अस्थिरता है।”

क्या इस समस्या को दूर किया जा सकता है? राव का उत्तर था, “हां। हम शिशु मृत्यु दर को रोकने के उपाय कर सकते हैं, कम से कम उन जनजातियों के लिए जिनके जारवा, ओंज और ग्रेट अंडमानी जैसी बाहरी दुनिया के साथ संपर्क हैं। दुर्भाग्य से, उनमें शिशु मृत्यु दर पर डेटा की कमी है।”

कैसी नीति की जरूरत?

राव ने कहा, “हमें प्रत्येक जनजाति के अनुरूप नीतियों को तैयार करना चाहिए। वर्तमान में, एक नीति सभी के लिए फिट नहीं हो सकती है। उदाहरण के लिए, सेंटीनेलिस को अकेला छोड़ दिया जाना चाहिए। सेंटीनेलिस खुद को जंगल के सहारे जिन्दा रख सकते हैं। जारावा और ओंज जैसे अन्य समूहों में विकास कार्यक्रमों के लिए वैज्ञानिक मूल्यांकन किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, ओंज के लिए एक अस्पताल में मैंने उन्हें दूध पाउडर दिया था, जिसे वे पचाने में सक्षम नहीं थे। मोटापे और एक आसन्न जीवनशैली भी उनमें है। एक अन्य मामले में, एक जारावा लड़का जिसे उसके माता-पिता ने स्थानीय स्कूल भेजा था, उसे स्कूल के अधिकारियों ने वापस भेज दिया। स्कूल वालों ने कहा था कि वे उसे स्पर्श भी नहीं कर सकते क्योंकि आधिकारिक नीति के अनुसार उन्हें अकेला ही रहने देना है। ये सारी त्रुटियां हैं, जिनका समाधान खोजना चाहिए।“

सीसीएमबी के एक वैज्ञानिक रमेश कुमार अग्रवाल के मुताबिक, सेंटीनेलिज या अन्य लोगों को “बचाने” की कोई जरूरत नहीं थी। वह कहते हैं, “हमें उन्हें परेशान नहीं करना चाहिए। जब वे इतने लंबे समय तक जीवित रहे, तो वे भी भविष्य में भी जिन्दा रहेंगे। प्रकृति को अपना काम खुद करने दें।”   

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