2050 तक 54 फीसदी बढ़ जाएगी लकड़ी की मांग, हर साल 420 करोड़ टन उत्सर्जन के लिए होगी जिम्मेवार

उत्सर्जन का यह स्तर विमानन से होने वाले वार्षिक उत्सर्जन से तीन गुणा ज्यादा है
2050 तक 54 फीसदी बढ़ जाएगी लकड़ी की मांग, हर साल 420 करोड़ टन उत्सर्जन के लिए होगी जिम्मेवार
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वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किए नए अध्ययन से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर जिस तरह से लकड़ी की मांग बढ़ रही है उसके चलते आने वाले दशकों में इससे होने वाला वार्षिक उत्सर्जन बढ़कर 420 करोड़ टन पर पहुंच जाएगा। जो हाल के वर्षों में होने वाले कार्बन डाइऑक्साइड के कुल वैश्विक उत्सर्जन के दस फीसदी हिस्से से ज्यादा है।

अध्ययन में यह भी कहा गया है कि उत्सर्जन का यह स्तर विमानन उद्योग से हर साल होने वाले उत्सर्जन से तीन गुना ज्यादा है। इतना ही नहीं यह कृषि में होते विस्तार के चलते वनों के किए जा रहे विनाश और भूमि उपयोग में आते अन्य बदलावों से होने वाले उत्सर्जन के करीब-करीब बराबर है। हैरानी की बात यह है कि इन उत्सर्जनों को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है और वैज्ञानिक पत्रों या सार्वजनिक नीतियों में शामिल नहीं किया जाता है। “द कार्बन कॉस्ट्स ऑफ ग्लोबल वुड हार्वेस्ट्स” नामक यह अध्ययन पांच जुलाई, 2023 को नेचर जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

वहीं इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट (आईआईईडी) द्वारा किए एक अन्य शोध के मुताबिक यदि अफ्रीका की आधी नई इमारतों में स्टील और कंक्रीट के बजाय लकड़ी का इस्तेमाल किया जाए, तो उससे निर्माण क्षेत्र से होने वाले शुद्ध उत्सर्जन में 2050 तक पांच से दस गीगाटन की कमी की जा सकती है।

अध्ययन में यह भी सामने आया है कि वैश्विक स्तर पर लकड़ी की बढ़ती मांग के चलते उसकी कटाई बढ़ रही है। नतीजन कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) उत्सर्जन बढ़ेगा, क्योंकि ईंधन, भवन निर्माण, फर्नीचर और कागज उत्पाद बनाने के लिए कहीं ज्यादा पेड़ों का उपयोग किया जाएगा।

570 करोड़ क्यूबिक मीटर पर पहुंच जाएगी लकड़ी की मांग

अनुमान है कि 2010 से 2050 के बीच लकड़ी की वैश्विक मांग 54 फीसदी तक बढ़ सकती है। जो 2010 में 370 करोड़ क्यूबिक मीटर से 2050 में बढ़कर 570 करोड़ क्यूबिक मीटर पर पहुंच जाएगी। रिसर्च के अनुसार इसका नतीजा यह होगा कि 2050 तक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन करीब एक तिहाई बढ़कर 500 करोड़ टन पर पहुंच जाएगा।

वैश्विक स्तर पर देखें तो पेड़ अपने तनों, शाखाओं और जड़ों में भारी मात्रा में कार्बन जमा करते हैं। ऐसे में जब उन्हें काटा जाता है, तो उनमें स्टोर कार्बन समय के साथ या लकड़ी के जलने पर तेजी से निकलता है। डब्ल्यूआरआई से जुड़े शोधकर्ताओं ने अपने इस अध्ययन में उत्सर्जन का अनुमान लगाने के लिए नए ग्लोबल फारेस्ट कार्बन मॉडल 'कार्बन हार्वेस्ट मॉडल (चार्म) का उपयोग किया है।

यह मॉडल समय के साथ वातावरण में मौजूद कार्बन में आने वाले बदलावों पर लकड़ी की कटाई के प्रभावों का आंकलन करता है। इसके लिए यह इस बात को ध्यान में रखता है कि जीवित वनस्पति, जड़ों, लकड़ी के विभिन्न उत्पादों और लैंडफिल के साथ इसके भण्डारण के विभिन्न स्रोतों के बीच कार्बन कैसे शिफ्ट होता है उसकी निगरानी करता है।

रिसर्च के अनुसार हम इन उत्सर्जनों को काफी हद तक कम कर सकते हैं। इसके लिए ऊर्जा के लिए लकड़ी के उपयोग को कम करना। इसी तरह उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में छोटे पेड़ों पर प्रभाव को कम करने के लिए पेड़ों की कटाई के तरीके को बदल सकते हैं। साथ ही वृक्षारोपण की जो मौजूदा है उसमें वृद्धि करना भी इस दिशा में फायदेमंद हो सकता है।

जर्नल साइंस में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के अनुसार यदि वनों के होते विनाश जैसी इंसानी गतिविधियों को बंद कर दिया जाए, साथ ही वर्तमान जलवायु परिस्थितियों और मौजूदा सीओ2 की मात्रा को ध्यान में रखा जाए तो जंगलों की बायोमास में कार्बन स्टोर करने की क्षमता में 44.1 पेटाग्राम की वृद्धि की जा सकती है।

डब्ल्यूआरआई में कृषि, वानिकी और पारिस्थितिकी तंत्र के तकनीकी निदेशक और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता टिम सर्चिंगर ने आशा व्यक्त की है कि इस उत्सर्जन का सटीक आकलन वन उत्पाद से जुड़े उद्योग और उसके उपभोक्ताओं को पेड़ लगाने और लकडी के बेहतर उपयोग के तरीकों की खोज करने के लिए प्रेरित करेगा। जो उत्सर्जन को कम करने में मददगार होगा।

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