भारत सरकार हो या राज्य सरकारें, हर वक्त उनका एक ही नारा होता है आदिवासियों का कल्याण। लेकिन उनका कल्याण करते-करते ये सरकारें अकसर उनको उनके गांव-खेत-खलिहान और उनके जंगलों से बेदखल कर देती हैं। इसका ताजा उदाहरण मध्यप्रदेश का है। यहां जलवायु परिवर्तन से होने वाले दुष्प्रभावों को कम करने, राज्य के जंगलों की परिस्थितिकी में सुधार करने और आदिवासियों की आजीविका को सुदृढ़ करने के नाम पर राज्य के कुल 94,689 लाख हैक्टेयर वन क्षेत्र में से 37,420 लाख हैक्टेयर क्षेत्र को निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया गया है।
इस संबंध में मध्यप्रदेश के सतपुड़ा भवन स्थित मुख्य प्रधान वन संरक्षक द्वारा अधिसूचना जारी की गई है। इस संबंध में भोपाल के पर्यावरणविद सुभाष पांडे ने डाउन टू अर्थ को बताया, “राज्य के आधे से अधिक बिगड़े वन क्षेत्र को सुधारने के लिए जंगलों की जिस क्षेत्र को अधिसूचित किया गया है, वास्तव में वहां आदिवासियों के घर-द्वार, खेत और चारागाह हैं। इसे राज्य सरकार बिगड़े वन क्षेत्र की संज्ञा दे कर निजी क्षेत्रों को सौंपने जा रही है”।
ध्यान रहे कि इस प्रकार के बिगड़े जंगलों को सुधारने के लिए राज्य भर के जंगलों में स्थित गांवों में बकायदा वन ग्राम समितियां बनी हुई हैं और इसके लिए वन विभाग के पास बजट का भी प्रावधान है। इस संबंध में राज्य के वन विभाग के पूर्व सब डिविजन ऑफिसर संतदास तिवारी ने बताया कि जहां आदिवासी रहते हैं तो उनके निस्तार की जमीन या उनके घर के आसपास तो हर हाल में जंगल नहीं होगा। आखिर आप अपने घर के आसपास तो जंगल या पेड़ों को साफ करेंगे और मवेशियों के लिए चारागाह भी बनाएंगे। अब सरकार इसे ही बिगड़े हुए जंगल बताकर अधिग्रहण करने की तैयारी है। जबकि राज्य सरकार का तर्क है कि बिगड़े हुए जंगल को ठीक करके यानी जंगलों को सघन बना कर ही जलवायु परिवर्तन और परिस्थितिकीय तंत्र में सुधार संभव है।
इस संबंध में मध्यप्रदेश में वन क्षेत्रों पर अध्ययन करने वाले कार्यकर्ता राजकुमार सिन्हां ने डाउन टू अर्थ को बताया कि मध्यप्रदेश की सरकार ने 37 लाख हैक्टेयर बिगड़े वन क्षेत्रों को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशीप (पीपीपी) मोड पर निजी कंपनियों को देने का निर्णय लिया है। वह कहते हैं कि यह कौन सा वन क्षेत्र है? इसे जानने और समझने की जरूरत है। प्रदेश के कुल 52,739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगलों की सीमा से सटे हुए हैं।
मध्यप्रदेश के जंगल का एक बड़ा हिस्सा आरक्षित वन है और दूसरा बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय उद्यान, अभयारण्य, सेंचुरी आदि के रूप में जाना जाता है। शेष क्षेत्र को बिगड़े वन या संरक्षित वन कहा जाता है। इस संरक्षित वन में स्थानीय लोगों के अधिकारों का दस्तावेजीकरण किया जाना है, अधिग्रहण नहीं। यह बिगड़े जंगल स्थानीय आदिवासी समुदाय के लिए बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक संसाधन हैं, जो जंगलों में बसे हैं और जिसका इस्तेमाल आदिवासी समुदाय अपनी निस्तार जरूरतों के लिए करते हैं।
एक नवंबर, 1956 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के समय राज्य की भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था, जिसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर सामुदायिक वनभूमि दर्ज थी। पांडे ने बताया कि उक्त संरक्षित भूमि को वन विभाग ने अपने वर्किंग प्लान में शामिल कर लिया, जबकि इन जमीनों के बंटाईदारों, पट्टेधारियों या अतिक्रमणकारियों को हक दिए जाने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
वह कहते हैं कि वन विभाग ने जिन भूमि को अनुपयुक्त पाया उसमें से कुछ भूमि 1966 में राजस्व विभाग को अधिक अन्न उपजाऊ योजना के तहत हस्तांतरित किया, वहीं अधिकतर अनुपयुक्त भूमि वन विभाग ने “ग्राम वन” के नाम पर अपने नियंत्रण में ही रखा।
ध्यान रहे कि अभी इसी संरक्षित वन में से लोगों को वन अधिकार कानून 2006 के अन्तर्गत सामुदायिक वन अधिकार या सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार दिया जाने वाला है।
सिन्हां सवाल उठाते हैं कि अगर ये 37 लाख हैक्टेयर भूमि उद्योगपतियों के पास होगी तो फिर लोगों के पास कौन सा जंगल होगा? पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पेसा कानून प्रभावी है जो ग्राम सभा को अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण का अधिकार देता है। क्या पीपीपी मॉडल में सामुदायिक अधिकार प्राप्त ग्राम सभा से सहमति ली गई है? वन अधिकार कानून द्वारा ग्राम सभा को जंगल के संरक्षण, प्रबंधन और उपयोग के लिए जो सामुदायिक अधिकार दिया गया है उसका क्या होगा?
विभिन्न नीति एवं कानून के कारण भारत का वन अब तक वैश्विक कार्बन व्यापार में बड़े पैमाने पर नहीं आया है। कई ऐसे गैर सरकारी संगठन हैं जो विश्व बैंक द्वारा पोषित हैं, वे अपने दस्तावेजों में यह कहते हुए नहीं अघाते कि भारत के जंगलवासी समुदाय (आदिवासी प्रमुख रूप से) कार्बन व्यापार परियोजना से लाभान्वित हो सकेंगे। सिन्हा बताते हैं कि ये संगठन आदिवासीयों के बारे में रंगीन व्याख्या कर प्रेरित करते हैं कि उनकी हालत रातों रात सुधर जाएगी।
वहीं, इस संबंध में सीधी जिले के पूर्व वन अधिकारी चंद्रभान पांडे बताते हैं कि कैसे आदिवासी कार्बन व्यापार की जटिलता को समझकर कार्बन भावताव को समझेगा? वह कहते हैं कि कार्बन व्यापार के जरिए (वनीकरण करके) अन्तराष्ट्रीय बाजार से करोड़ों रुपए कमाना ही एकमात्र उद्देश्य निजी क्षेत्र का होगा। वह कहते हैं कि अंत में स्थानीय समुदाय अपने निस्तारी जंगलों से बेदखल हो जाएगा और शहरों में आकर मजूरी कर स्लम बस्तियों की संख्या बढ़ाएगा। एक तरह से सरकार ही अपनी नीतियों के माध्यम से आदिवासियों को उनकी जमीन से विस्थापित कर किसान से मजदूर बनने पर मजबूर कर रही है।