वर्ष 2022 में संयुक्त राष्ट्र संघ शैक्षणिक, वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक संगठन अर्थात यूनेस्को के महत्वपूर्ण प्रस्ताव के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 2022-2032 के दशक को आदिवासी भाषा दशक घोषित किया गया।
इस अवसर पर संयुक्त राष्ट्र संघ महासभा द्वारा पारित प्रस्ताव (A/RES/74/135) में यह साफ तौर पर कहा गया कि – इस दशक का उद्देश्य महान आदिवासी भाषाई और सांस्कृतिक संपदा की धरोहर का संरक्षण, संवर्धन और प्रसार है।
यूनेस्को द्वारा जारी विश्व भाषा एटलस के अनुसार पूरी दुनिया में लगभग 8324 भाषाएं बोली-लिखी जाती हैं, जिनमें से लगभग 7000 भाषाएं अभी प्रचलन में हैं, लेकिन लगभग 3000 भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं।
एक ओर जहां लगभग आधी दुनिया केवल 23 भाषाएं जानती और उपयोग करती हैं, वहीं लगभग 4000 भाषाएं इस धरती के प्रथम नागरिक अर्थात आदिवासी समाज के द्वारा बोली-लिखी-पढ़ी जाती है ।
गौरतलब है कि दुनिया का केवल 6 प्रतिशत आदिवासी समाज यदि 4000 से अधिक भाषाएं उपयोग करता हो तो उनकी भाषायी-सांस्कृतिक संपदा और धरोहर की सम्पन्नता पर पूरे मानव समाज को गर्व होना चाहिए।
आदिवासी समाज की यह भाषायी-सांस्कृतिक धरोहर वास्तव में केवल अभिव्यक्ति के माध्यम से कहीं अधिक उनके अधिकारों और अस्तित्व का स्वर है - जहां दंतकथाओं, मिथकों, गल्पों, लोकगीतों और ज्ञात-अज्ञात लिपियों का संपन्न संसार है।
आज जब वैज्ञानिक और भाषाविद, भाषायी संकीर्णता और सांस्कृतिक घालमेल के चलते दुनिया भर के 90 फीसदी भाषाओँ के समाप्त हो जाने की सार्वजनिक घोषणा कर रहे हैं, तब आदिवासी समाज की अपनी भाषायी धरोहर को संरक्षित करने का अर्थ आदिवासी समाज के उस पूरे सम्पन्न संसार को सम्मान देना होगा, जिसके लिये भाषा का मरना – सपनों और उम्मीदों का अवसान भी है।
आदिवासी समाज की नई पीढ़ी आज उम्मीदों और सपनों के नये संसार को गढ़ने में जुटी है। भाषा केवल संपर्क-संवाद का माध्यम भर नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक धरोहर की अभिव्यक्ति है जो अपने अस्मिता और अधिकारों को लेकर लगातार सजग है।
आदिवासी समाज के रचनाकारों की नई पीढ़ी वास्तव में उन तमाम खतरों से अपनों-परायों को आगाह करने में लगी हुई है जिन्हें वह समाज और संसार को बचाने की खातिर प्रतिरोध का माध्यम बनाना चाहती है। आदिवासी रचना संसार की यह नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के साथ हुए विश्वासघात से आहत तो है, लेकिन भावी पीढ़ी को सशक्त प्रतिवाद का स्वर देना चाहती है ताकि कल के विरुद्ध वह एक बेहतर कल के साथ खडे हो सके ।
भारत की आदिवासी भूमि झारखण्ड में आदिवासी समाज (बल्कि यों कहें कि पूरे मानव समाज) की प्रतिनिधि रचनाकार जसिंता केरकेटा का जनम उस दौर में हुआ, जब आदिवासियों के संसाधनों को लूटने-खसोटने के लिये तथाकथित विकास के शब्दकोष गढ़े जा रहे थे ।
जसिंता अपने शब्दों में उन सबको पुरजोर पुकारती है, जो आदिवासी समाज के संसाधनों के बर्बर अधिग्रहणों के प्रति मौन है। उस पूरे मौन समाज के शरीर और आत्मा को झकझोरते हुये जसिंता आगाह करती है-
पहले मिट्टी, पानी, पेड़ मारे गये
किसी ने कुछ महसूस नहीं किया
जिन्हें कुछ महसूस नहीं होता
वे बहुत पहले मर चुके होते हैं
बाद में वे सिर्फ दफनाये जाते हैं
बेजान समाज और उनके द्वारा ओढ़ी हुई चालाकी को चुनौती देते हुये जसिंता उस युवा आदिवासी समाज का मुखर स्वर है, जिसने झारखण्ड सहित भारत और दुनिया के सभी सजग लोगों को प्रतिरोध का शब्द और स्वर होने का अवसर दिया है ।
झारखण्ड की धरती से हजारों मील सुदूर बुरुंडी की विख्यात आदिवासी रचनाकार केटी निव्याबंदी के संघर्ष-संसार में राजनैतिक निर्वासन की गहरी आह के साथ ही उस पूरी व्यवस्था को चुनौती देते दहकते शब्द भी हैं जिसनें अपनी ही जन्मभूमि में पराये हो जाने का दंश भोगा है। केटी निव्याबंदी उस पूरी खामोश पीढ़ी को जगाती है, जो एक इंसान को इंसानियत के हकों से खारिज कर रहा है।
आज केटी निव्याबंदी भले ही अपने देश बुरुंडी से निर्वासित कर दी गयी हों, लेकिन अपने लोगों को पुकारते हुये वह कहती हैं-
अपनी स्वाधीनता, न्याय और मानवता के लिये संघर्ष
बहादुरी नहीं बल्कि
जन्मजात कर्तव्य है
याद रखना दोस्त हमेशा कि तुम्हारी-मेरी जड़े किस जमीन से जनमीं
ताकि जिन्दा रहे तुम्हारे रक्तबीजों का संसार
और हम लड़ते रहें
अपनी जमीन – अपने जमीर के लिये
आज केटी निव्याबंदी समूचे अफ्रीका में मानवाधिकारों और जनतंत्र के लिये आंदोलनों की मुखर आवाज है. आदिवासियों के अपने महाद्वीप अफ्रीका में संसाधनों के अधिग्रहणों के मध्य राजनैतिक-आर्थिक नव उपनिवेश के नये अखाडे में केटी निव्याबंदी अफ्रीका के हजारों-लाखों मूलनिवासियों के लिये जनचेतना का नया स्वर है ।
बुरुंडी की धरती से अद्भुत समानता लिये मेक्सिको की विख्यात आदिवासी रचनाकार जुआना करीन पेनाते की कविताएं मानों इंसान ही नहीं, पूरी प्रकृति को पुकारती है कि अब सब, उस भयावह शोर के खिलाफ खड़े हो जाएं, जो समूचे आदिवासी समाज को मौन करने में लगा हुआ है।
जुआना मूलतः माया भाषा में रचनायें लिखती हैं जो जन संघर्षों की भूमि चिपास में बोली-समझी जाती है और जिसनें मेक्सिको सहित पूरी दुनिया को प्रतिरोध की नई शब्दावली दी है ।जुआना और उसके समाज नें जनतंत्र को जिलाने में बहुत कुछ खोया है । नई पीढ़ी को जगाते हुये जुआना कहती हैं-
मेरा नाम मौन नहीं है
शायद मेरी आवाज उन तक पहुँचती होगी
जिन्हें गुमान है – मेरी धरती को समाप्त करने का
सुनते तो होंगे
इस देह में बहते लहू का स्पंदन
लफ़्जों का दहन दिखता तो होगा
और कांपते तो होंगे वो भी
मेरे बुलंद नारों के ललकार से
जुआना – अपनी बोली-अपनी भाषा में लिखने का गर्व करती हैं और कहती हैं कि मेरे शब्द उन पूर्वजों का सपना है जिसे अगली पीढ़ी को सिखाने के लिये उन्होनें मुझे क़र्ज दिया है ।जुआना के लिये कवितायें, उस नई पीढ़ी का आवाहन है, जिसे अपनी धरती और उसके भविष्य का अहसास दिलाना जरूरी है ।
इराक की बरसों तक लहूलुहान रही धरती पर आदिवासी कुर्दिश परिवार में जनमी और सबसे कठिन दौर की विख्यात सामाजिक कार्यकर्ता और रचनाकार रही हफिया जनगाना और उनका अनथक संघर्ष, पूरे इराक़ में हजारों-लाखों लोगों का अपना लफ्ज बन चुका है।
हफिया ने न केवल हिंसा का भयावह दौर और यातना देखी, बल्कि महिलाओं के हकों के लिये सीरिया, लेबनान और फिलिस्तीन के संघर्षों में भी शामिल हुईं। उम्मीदों को आकार देते हुये हफिया, भयावह पराजयों के बाद भी अपने अस्तित्व के जरिये लोगों से कहती हैं -
समय का प्रिज़्म
उम्मीदों की किरणों का समूचा संसार है
मैं हर रोज़ अपनी हथेलियों का प्रिज्म खोलकर
बिखेर देती हूँ उसे मानचित्र पर
मैं हर रोज़ ज़िन्दा होते उम्मीदों की
जननी हूं
बरसों बाद हफिया और उनके साथियों का सपना, समाज की उम्मीदें बनकर नई पीढ़ी को संघर्ष का हौसला और अपने पीछे चल रहे कारवां को नेतृत्व भी दे रही हैं ।
आदिवासी महिलाओं का यह रचना संसार कभी किसी देश की परिधि का मोहताज नहीं रहा। आज भारत की जसिंता केरकेटा, बुरुंडी की केटी निव्याबंदी, मेक्सिको की जुआना करीन पेनाते और इराक़ की हफिया जनगाना उस पूरी जागरूक समाज की प्रतिनिधि शब्द और स्वर हैं, जिनका होना ही उम्मीदों का पर्याय है।
उनकी रचनाओं का सशक्त समुच्चय केवल उनके अपने संघर्षों के इतिहास का प्रमाण भर नहीं बल्कि भावी कल के लिये समाज को जगाने का गीत भी है। आदिवासी महिला रचनाकारों की इस धरोहर को जिन्दा रखना भर पर्याप्त नहीं हैं, बल्कि उनके शब्दों को समझने, समझाने और सहेजनें और आने वाली पीढ़ियों को सौपनें का समय है ।
(लेखक रमेश शर्मा, एकता परिषद जनसंगठन के राष्ट्रीय महासचिव हैं)