राजेश डोबरियाल
बीते सप्ताह उत्तराखंड में 11 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित दयारा बुग्याल में दूध-मक्खन की होली खेली गई। लेकिन नैनीताल हाईकोर्ट के हालिया फैसले का ख्याल रखा गया, जिसके चलते यहां भीड़ का जुटान नहीं हो पाया।
खास बात यह है कि औली में गुप्ता परिवार की 200 करोड़ी शादी से हुए नुकसान के बाद यह एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम है, जो उत्तराखंड ही नहीं, हिमालय के सभी बुग्यालों को जीवनदान देने वाला साबित हो सकता है।
लेकिन पर्यटन से मिलने वाली आजीविका का सवाल भी उठ रहा है और ऐसे में यह समझना जरूरी है कि पर्यटन और पर्यावरण क्या साथ-साथ चल सकते हैं?
17 अगस्त 2023 को दयारा बु्ग्याल में बटर फेस्टिवल मनाया गया। यह पशुपालकों का त्यौहार है, जिसे परंपरागत रूप से घी सक्रांति पर मनाया जाता है। बीते कुछ सालों में इसने बटर फेस्टिवल का रूप ले लिया है, क्योंकि इस त्यौहार में दही, मट्ठा, मक्खन एक दूसरे पर लगाया जाता है।
दयारा पर्यटन उत्सव समिति के अध्यक्ष मनोज राणा बताते हैं कि हर साल गर्मियों में पशुपालक अपने पशुओं को लेकर ऊपर बुग्यालों में चले जाते हैं और सर्दियां शुरू होने से पहले लौटते हैं। इस मौके पर पशुओं की सेहत और भरपूर उत्पादन के लिए देवताओं का धन्यवाद किया जाता है। यही अंढूड़ी उत्सव होता है।
इस साल भी समेश्वर देवडोली और पांडव पश्वों के सानिध्य में इस साल भी धूमधाम से यह त्यौहार मनाया गया। पिछले कुछ सालों से अच्छी मीडिया कवरेज मिलने के बाद इस फेस्टिवल में शामिल होने वाले लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही थी, लेकिन 2018 के नैनीताल हाईकोर्ट के एक फैसले ने इसके और बड़ा होने की संभावना पर रोक लगा दी।
दयारा पर्यटन उत्सव समिति ने इस साल नैनीताल हाईकोर्ट के बुग्यालों में पर्यटकों की अधिकतम संख्या 200 तक रखने के फैसले को चुनौती दी थी, लेकिन 16 अगस्त को इस याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए हाईकोर्ट ने न सिर्फ अपने पूर्व के फैसले को बरकरार रखा, बल्कि 200 लोगों की संख्या को और सख्ती से लागू करते हुए इसमें स्थानीय लोगों को भी शामिल कर लिया।
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बुग्यालों की पारिस्थितिकी बेहद नाजुक होती है और इसे संरक्षित किए जाने की जरूरत है।
आली-बेदिनी-बागजी बुग्याल संरक्षण समिति बनाम उत्तराखंड राज्य और अन्य केस में 21 अगस्त, 2018 को आए फ़ैसले ने उत्तराखंड में बुग्यालों के सरंक्षण के लिए पर्यटन के नाम पर की जाने वाली मनमानी को हदों में बांध दिया था।
इस फैसले में दी गई बुग्याल की परिभाषा है, "बुग्याल, जो उत्तरांचल में स्थानीय शब्द 'बग या बुगी' से लिया गया है। वृक्षरेखा और हिमरेखा के बीच स्थित हरी-भरी जड़ी-बूटियों को संदर्भित करता है। ये अत्यधिक पारिस्थितिक, सांस्कृतिक, सौंदर्य और आर्थिक महत्व के हैं, विशेष रूप से पौष्टिक चारे और उच्च मूल्य वाले औषधीय और सुगंधित पौधों (एमएपी) के लिए।"
खंडपीठ ने अपने फैसले में बु्ग्यालों के संरक्षण के लिए कई आदेश जारी किए थे, जिनमें इसके अलावा खंडपीठ ने बुग्यालों में रात को रुकने पर भी प्रतिबंध लगाया था और किसी भी तरह के स्थाई निर्माण पर भी।
अदालत ने राज्य सरकार को अल्पाइन घास के मैदानों/उप-अल्पाइन घास के मैदानों/बुग्यालों में जाने वाले पर्यटकों की संख्या को प्रतिबंधित करने का निर्देश दिया था। फैसले के बाद यह संख्या 200 से अधिक नहीं हो सकती थी।
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाली संस्था सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च (सीईडीएआर) के कार्यकारी निदेशक डॉक्टर विशाल सिंह कहते हैं कि बुग्यालों में जैव विविधता बहुत विशिष्ट होती है और अगर इसमें जरा सा भी परिवर्तन होता है तो यहां मौजूद वनस्पतियों और जीवों के विलुप्त होने तक का ख़तरा है। इनमें पर्यटन को लेकर बहुत सख़्त निगरानी होनी चाहिए।
औली के संदर्भ में वह कहते हैं कि कुछ चीजों को पैसे से नहीं तोला जा सकता। बुग्यालों जैसे संवेदनशील पारिस्थितिकीय तंत्र वाले प्राकृतिक स्थानों के संरक्षण पर ज्यादा ध्यान दिए जाने की जरूरत है। किसी चीज के संरक्षण में किया जाने वाला निवेश उसे पुनर्जीवित किए जाने वाले निवेश से हमेशा बहुत कम होता है, पारिस्थितिकीय दृष्टि से भी और आर्थिक गणित से भी।
यह ध्यान रखना होगा कि अगर आप ऐसी जगह का पारिस्थितिकीय महत्व खो देंगे, उसका पारिस्थितिकी तंत्र गड़बड़ा जाएगा तो उसका व्यवसायिक मूल्य भी कुछ नहीं रह जाएगा।
किसके लिए पर्यटन?
जाने माने पर्यावरणविद प्रोफ़ेसर एसपी सिंह गढ़वाल यूनिवर्सिटी के कुलपति रहे हैं और राज्य योजना आयोग में सलाहकार भीत्र वह कहते हैं कि उत्तराखंड की ख़ासियत यही है कि यहां बुग्याल हैं, जंगल हैं, नदियां हैं। हाईकोर्ट का फैसला सही है, लेकिन ज्यादा जरूरत इस बात की है कि लोग खुद ही इनके संरक्षण के लिए जागरुक हों।
बीज बम आंदोलन के प्रणेता द्वारिका प्रसाद सेमवाल कहते हैं कि पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में वह हाईकोर्ट के फ़ैसले का स्वागत करते हैं लेकिन एक स्थानीय ग्रामीण होने के नाते उन्हें यह भी चिंता है कि इसका पर्यटन पर क्या असर पड़ेगा। जबकि मनोज राणा सरकार से मांग करते हैं कि वह सुप्रीम कोर्ट जाकर बुग्यालों में आने वालों की संख्या को बढ़वाने की कोशिश करे।
वह पूछते हैं कि स्थानीय लोगों ने जो होम स्टे, रिजॉर्ट बना रखे हैं वह कैसे चलेंगे अगर पर्यटक आएंगे ही नहीं?
प्रोफ़ेसर सिंह कहते हैं कि वह 40 साल से ज्यादा नैनीताल में रहे हैं लेकिन कभी किसी नाव वाले को अमीर होते नहीं देखा. इसी तरह 90 फ़ीसदी टैक्सी वाले गरीबी में मरते हैं. दरअसल पर्यटन से जो पैसा आ भी रहा है, उसका वितरण ठीक से नहीं हो पा रहा है.
प्रोफ़ेसर सिंह कहते हैं कि पर्यटक आने चाहिएं, यह ठीक है लेकिन सवाल यह है कि कितना पर्यटन पर्याप्त होगा? कितने पर्यटक आएं कि लोग पहाडों को छोड़ें न, गांव खाली न हों? हर साल करोड़ों लोग उत्तराखंड आते हैं (चार धाम और कांवड़ मिलाकर) लेकिन क्या सब लोगों के पास इतना पैसा पहुंच पा रहा है कि उनकी जरूरतें पूरी हो जाएं?