“यह कहने में संकोच नहीं है कि भारत में हिमालयी कस्तूरी मृग के कैप्टिव ब्रीडिंग या अब कंजर्वेशन ब्रीडिंग जैसे प्रजनन कार्यक्रम पूरी तरह विफल रहे हैं। वहीं, चीन न सिर्फ हिमालयी कस्तूरी मृग के प्रजनन को बढाने में कामयाब हो गया है बल्कि उसने उन्हें बिना मारे मस्क पॉड यानी नर मृग की नाभि के पास मौजूद ग्रंथि से निकलने वाले तेज और विशिष्ट सुंगध को निकालने की तकनीक भी ईजाद कर ली है।”
भारतीय वन्यजीव संस्थान से सेवानिवृत्त वरिष्ठ वन्यजीव जीवविज्ञानी प्रोफेसर बीसी चौधरी ने डाउन टू अर्थ से यह बात कही। उन्होंने कहा, हमारे पास कस्तूरी मृग के प्रजनन के लिए फाउंडर स्टॉक तक नहीं है तो हम आगे के विज्ञान के बारे में कैसे सोंचे। फाउंडर स्टॉक यानी वह जोड़ा जिससे प्रजनन को आगे बढाया जा सके।
सोने से भी ज्यादा कीमती कस्तूरी मृग से निकलने वाली परफ्यूम और दवाओं की चाहत के लिए उसकी पोचिंग अब भी जारी है। इसके अलावा वन्यजीवों की गलत पहचान से आनुवांशिक शुद्धता का संकट भी खड़ा हो गया है।
चौंकाने वाला यह है कि इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन नेचर (आईयूसीएन) द्वारा संकटग्रस्त जीव की श्रेणी में रखे गए और भारत के वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के तहत पूर्ण संरक्षण प्राप्त हिमालयी कस्तूरी मृग का चिड़ियाघर में संरक्षण की दृष्टि से अब तक कोई भी प्रजनन कार्यक्रम शुरू नहीं किया जा सका है।
डाउन टू अर्थ को मिली दिसंबर, 2024 में सेंट्रल जू अथॉरिटी की ओर से जारी हालिया रिपोर्ट प्लांट ब्रीडिंग प्रोग्राम्स इन इंडियन जू : एसेसमेंट एंड स्ट्रैटजिक एक्शन्स (2024) रिपोर्ट के मुताबिक, “वर्तमान में किसी भी मान्यता प्राप्त चिड़ियाघर में कस्तूरी मृग (मॉसश क्रिसोगैस्टर) के बंदी जानवरों की कोई जानकारी नहीं है, जिससे यह संकेत मिलता है कि इस प्रजाति के लिए कोई प्रजनन कार्यक्रम शुरू ही नहीं हुआ।”
यह रिपोर्ट खुलासा करती है कि अल्पाइन कस्तूरी मृगों की संख्या के बारे में भी कोई जानकारी मौजूद नहीं है।
डाउन टू अर्थ ने सूचना के अधिकार के तहत केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से दो बार कस्तूरी मृगों के संरक्षण कार्यक्रमों की जानकारी मांगी। हालांकि, दोनों बार मंत्रालय ने जवाब में कहा कि उनका काम सिर्फ संरक्षण के लिए राज्यों को मदद देना है।
आरटीआई में 1982 में शुरु किए गए हिमालय मस्क प्रोजेक्ट को लेकर पूछे गए सवाल पर कोई जवाब नहीं दिया गया। चौधरी बताते हैं, कि यह प्रोजेक्ट इसलिए शुरू किया गया था कि हिमालयी कस्तूरी मृगों की समुचित बेहतरी के लिए कदम उठाए जाएं। इसमें इन सीटू संरक्षण भी शामिल था। इन सीटू संरक्षण का मतलब है जब किसी जीव या पौधे को उसके प्राकृतिक आवास में यानि जहां वह असल में पाया जाता है वहीं बचाने की कोशिश की जाए।
चौधरी ने आगे कहा ,"हालांकि, यह प्रोजेक्ट भुला दिया गया और अब सबकुछ जैसे टाइगर पर आकर केंद्रित हो गया है।"
1965 से ही हिमालयी कस्तूरी मृग के प्रजनन को लेकर प्रयास जारी हैं। हालांकि, वाइल्डलाइफ बॉयोलाजिस्ट चौधरी के मुताबिक वन्यजीव कानून, 1972 से पहले किए गए सभी प्रयास कैप्टिव ब्रीडिंग या कंजर्वेशन ब्रीडिंग के लिए नहीं थे। उनका मकसद संरक्षण नहीं रहा है।
1993 में भारतीय वन्यजीव संस्थान के वैज्ञानिक एस सथ्यकुमार ने इंटरनेशनल जू अथॉरिटी के साथ “स्टेटस ऑफ कैप्टिव हिमालयन फॉरेस्ट मस्क डीयर मॉसश सी क्रिसोगैस्टर इन इंडिया” शोधपत्र में लिखा भारत में मॉसश क्रिसोगैस्टर प्रजाति का कैद में प्रजनन 1965 में शुरू हुआ और 1975 के बाद इसे गंभीरता से अपनाया गया। सरकारी की इस योजना के दो मुख्य उद्देश्य थे - पहला, भविष्य में जंगल में छोड़ने के लिए एक स्वस्थ कैप्टिव समूह तैयार करना और दूसरा यह था कि दवा में इस्तेमाल होने वाली कस्तूरी को निकालना। यह मृग प्रजनन केंद्र कुफरी, अल्मोड़ा और चमोली में बनाए गए थे। यह सभी केंद्र अपने कामों में असफल रहे।
पुणे में स्थित एनिमल राइट्स के लिए काम करने वाले इंटरनेशनल एजुकेशनल चैरिटेबल ट्रस्ट ब्यूटी विदाउट क्रयुअलटी– इंडिया की वेबसाइट के मुताबिक हिमालयी कस्तूरी मृग उत्तराखंड का राज्य पशु है। इसके बावजूद वहां ध्यान नहीं दिया गया है। इस वेबसाइट के आंकड़ों के मुताबिक, 1980 के दशक में वहां लगभग 1000 कस्तूरी हिरण मौजूद थे। 1982 में केवल 5 कस्तूरी हिरणों के साथ अभयारण्य के भीतर एक बंदी प्रजनन केंद्र स्थापित किया गया। इनकी संख्या बढ़कर 28 तक पहुंच गई थी लेकिन बाद में ये सभी मृग सांप के काटने, निमोनिया, पेट की गड़बड़ी या दिल के दौरे जैसे कारणों से मर गए। 2006 में यह केंद्र बंद कर दिया गया और जीवित बचा एकमात्र हिरण दार्जिलिंग के एक प्राणी उद्यान में भेज दिया गया।
कैप्टिव ब्रीडिंग में विभिन्न प्राणी उद्यान में मौजूद पशुओं की संख्या का जिक्र सेंट्रल जू अथॉरिटी की 2017-18 की एक सूची में किया गया था। इसके मुताबिक, एक नर हिमालयी कस्तूरी मृग दार्जिलिंग में मौजूद था। हालांकि, 7 वर्षों बाद संख्या को लेकर ताजा स्थिति अभी साफ नहीं है। डाउन टू अर्थ ने अथॉरिटी के अधिकारियों से संपर्क किया लेकिन इसकी अपडेटेड सूची नहीं मिल सकी है।
चौधरी ने कहा कि हिमालयी राज्यों का इन संकटग्रस्त प्रजातियों को बचाने के लिए कोई एक साझा समूह नहीं बन पाया है। स्थानीय स्तरों पर मिलने वाले आंकड़ों से ही इन प्रजातियों की संख्या का कुछ अंदाजा मिल सकता है।
वहीं, डाउन टू अर्थ को मिली सेंट्रल जू अथॉरिटी की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है “अल्पाइन कस्तूरी मृग (मॉसश क्रिसोगैस्टर) के प्राकृतिक आवास में वर्तमान जनसंख्या के कोई हालिया अनुमान उपलब्ध नहीं हैं। आईसीयूएन की 2014 की आकलन रिपोर्ट के अनुसार इस प्रजाति की संख्या घट रही है। इसे "गंभीर रूप से संकटग्रस्त" श्रेणी में रखा गया है। भारत के किसी भी चिड़ियाघर में इस प्रजाति के बंदी प्रजनन का कोई रिकॉर्ड नहीं है।”
इस रिपोर्ट में बेहद चौंकाने वाला यह तथ्य सामने आया कि कैप्टिव ब्रीडिंग के लिए चिड़ियाघर में लाई गई प्रजाति तक को ठीक से पहचाना नहीं जा सका है।
सेंट्रल जू अथॉरिटी रिपोर्ट में कहा गया कि “यह मृग मुख्य रूप से मध्य से पूर्वी हिमालय में पाया जाता है और इसे नियोजित प्रजनन कार्यक्रम के लिए पहचाना गया है। लेकिन इसे हिमालयी कस्तूरी मृग (मॉसश ल्यूकोगैस्टर) से सही ढंग से अलग पहचानने में भ्रम रहा है, जो पश्चिमी से पूर्वी हिमालय तक फैला है। चूंकि इन दोनों की भौगोलिक सीमाएं एक-दूसरे से मिलती-जुलती हैं इसलिए संभव है कि चिड़ियाघरों ने इनकी पहचान में गलती की हो।”
रिपोर्ट में आगे कहा गया “ऐसा माना जाता है कि हिमाचल प्रदेश के चिड़ियाघरों में संभवतः मॉसश ल्यूकोगैस्टर रखा गया था, जबकि उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल के चिड़ियाघरों में संभवतः मॉसश क्रिसोगैस्टर रहा होगा। उत्तराखंड के चोपता के पास स्थित कस्तूरी मृग प्रजनन केंद्र और दार्जिलिंग के पद्मजा नायडू हिमालयन चिड़ियाघर में रखे गए मृग संभवतः मॉसश क्रिसोगैस्टर रहे होंगे।”
रिपोर्ट के मुताबिक “ आर्टियोडैक्टिला, कार्निवोरा और गालिफॉर्म्स जैसे जीवों के समूह (ऑर्डर) जैव विविधता से भरपूर हैं और इनकी कई प्रजातियां संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती हैं। इन समूहों के लिए प्रजनन की योजनाएं बनाई गई हैं लेकिन समीक्षा से पता चलता है कि इन योजनाओं में से कई या तो शुरू ही नहीं हुईं या फिर सही तरीके से नहीं चलाई जा रही हैं।”
उदाहरण के लिए, अल्पाइन कस्तूरी मृग ( मॉसश क्रिसोगैस्टर ) और हिमालयी सीरो ( कैप्रिकॉर्निस सुमाट्रेनसिस टार ) जैसी प्रजातियों की पहचान में हुई गलतियों ने आबादी के प्रबंधन को जटिल बना दिया है। साथ ही सीमित संख्या में मूल प्रजनक जानवरों का होना और जानवरों की पहचान या वंशावली को व्यवस्थित रूप से ट्रैक न कर पाना, कैद में रह रही आबादी की आनुवंशिक शुद्धता को प्रभावित कर रहा है।
हालांकि, गौर (बॉस गौरस) और भारतीय चिवरोटेन ( मॉशिओला इंडिका ) की प्रजनन योजनाओं में अच्छा विकास देखने को मिला है। लेकिन इन सफलताओं के साथ-साथ यह भी सामने आया है कि कई बड़े मुद्दे अभी बाकी हैं, जैसे रिकॉर्ड ठीक से न रखना, जानवरों का बिना समन्वय के स्थानांतरण और देखभाल की कमजोर व्यवस्था।
आईसीयूएन के द्वारा घोषित संकटग्रस्त प्रजातियां जिन्हें भारत में कैप्टिव ब्रीडिंग के द्वारा प्रजनन किया जाना था उनमें अकेले कस्तूरी मृग ही नहीं है, बल्कि तिब्बती मृग, नीलगिरी टार, गंगा नदी डॉल्फिन, जंगली जल भैंसा, पिग्मी हॉग, हंगुल / कश्मीरी बारहसिंगा का अभी तक कोई प्रजनन कार्यक्रम शुरू नहीं किया जा सका है।
रिपोर्ट के मुताबिक जंगली जल भैंसे की प्राकृतिक आबादी लगभग 2,500 आंकी गई है और यह घट रही है (आईयूसीएन, 2016 के अनुसार)। यह प्रजाति अति संकटग्रस्त की श्रेणी में है और भारत के किसी भी चिड़ियाघर में इसकी बंदी आबादी दर्ज नहीं है। छत्तीसगढ़ सरकार बरनवापारा वन्यजीव अभयारण्य में एक संरक्षण प्रजनन केंद्र स्थापित कर रही है, जिसमें असम के मानस राष्ट्रीय उद्यान से पकड़े गए 6 जंगली जन्मे भैंसे (1 नर-1 मादा वयस्क जोड़ी और 4 मादा किशोर) रखे जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त, उदंती-सितानदी वन्यजीव अभयारण्य में रखे गए 13 अनुमानित संकर (7 नर, 6 मादा) जल भैंसे, जो घरेलू पशुओं से मिश्रित हैं, को प्रजनन कार्यक्रमों से बाहर रखा गया है।
वहीं, पिग्मी हॉग की प्राकृतिक आबादी 100 से 250 के बीच मानी जाती है। यह प्रजाति भी अति संकटग्रस्त श्रेणी में है (आईयूसीएन, 2016)। भारत के कुछ चिड़ियाघरों में इसे कभी-कभार कम संख्या में रखा गया है। असम में इस प्रजाति के लिए एक संरक्षण कार्यक्रम चल रहा है, जिसे आरण्यक संस्था और असम सरकार मिलकर संचालित कर रहे हैं।
यह कार्यक्रम संरक्षण प्रजनन और पुनर्प्रवेश को शामिल करता है। वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 में हुए संशोधनों के अनुसार, भविष्य में इसके लिए केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण की मान्यता लेना जरूरी हो सकता है। हालांकि बंदी बनाकर रखे गए जानवरों की कोई आधिकारिक जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन आरण्यक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2008 से अब तक 116 जानवरों को जंगल में छोड़ा जा चुका है।
भारत में अब भी वैक्तिक या कुछ संस्थानो की तरफ से किए गए प्रयासों में अच्छे रिजल्ट देखने को मिले हैं। इसका गिद्ध एक बड़ा उदाहरण है। हालांकि, सेंट्रल जू अथॉरिटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है “गिद्धों के लिए संरक्षण प्रजनन कार्यक्रम, जैसे कि सफेद पीठ वाला गिद्ध और भारतीय गिद्ध ने स्थिर जनसंख्या वृद्धि हासिल की है। हालांकि, अज्ञात लिंग वाले व्यक्तियों और प्रजनन के लिए पर्याप्त रूप से इस्तेमाल न किए गए फाउंडर स्टॉक जैसी समस्याएं यह दिखाती हैं कि बेहतर आनुवंशिक और जनसंख्यिकीय निगरानी की जरूरत है।”
इसी तरह, कोलंबीफॉर्मीज वर्ग के तहत आने वाले निकोबार कबूतर और टेस्टुडीन्स वर्ग के तहत आने वाले लाल मुकुट वाले छतदार कछुए की आबादी छोटी और स्थिर तो है, लेकिन इनके संरक्षण को बेहतर बनाने के लिए व्यवस्थित प्रबंधन की कमी है।
इसके विपरीत, शाहीन फाल्कन और मालाबार पायड हॉर्नबिल जैसी प्रजातियों के लिए अभी तक कोई ठोस संरक्षण प्रयास शुरू नहीं किए गए हैं, और इनकी आबादी मुख्य रूप से अकेले पाए गए या बचाए गए व्यक्तियों पर आधारित है। रिपोर्ट में यह स्पष्ट किया गया है कि नियोजित प्रजनन कार्यक्रमों में अब नई प्रजाति को जोड़ना ठीक नहीं होगा। वहीं, आईयूसीएन रेड लिस्ट काफी पुरानी है और यह वैश्विक परिप्रेक्ष्य को दर्शाती हैं, न कि किसी देश विशेष की स्थिति को। ऐसे में भारत को अपनी सूची पर काम करना होगा।
चौधरी ने कहा कि डी-एक्सटिंशन विज्ञान जैसे मामलों पर काम करने के लिए यहां वैज्ञानिकों की कमी नहीं है। हालांकि, फंड की कमी और रिसर्च व डेवलपमेंट की कमी और पशुओं के ब्लड व टीश्यू के सैंपल तक लेने में आने वाली बाधाएं हमें पीछे धकेल रही हैं। फॉरेस्ट ऑफिशियल वन्यजीवों की क्षति का हवाला देते हुए टिश्यू और ब्लड के सैंपल लेने में कभी अनुमति नहीं देते। आज भी कई विलुप्तप्राय प्रजातियों की जीनोम जानकारियां हमारे पास नहीं हैं। हैदराबाद में लैब्रोटेरी फॉर द कंजर्वेशन ऑफ इंडैजर्ड स्पीशीज को स्थापित किया गया है। हालांकि, उन्हें भी जू के साथ संबद्ध नहीं किया गया है। लैब्रोटेरी के पास कुछ जीनोम जानकारियां मौजूद हैं लेकिन सभी विलुप्तप्राय जीवों की जानकारी उनके पास भी नहीं है। आज इनमें निवेश की जरूरत है।