दुनिया में ऐसे बहुत कम लोग होंगें जो कॉकरोच को पसंद करते हों। ज्यादातर तो इसे देखते ही या तो डर जाते हैं या फिर मारने के लिए दौड़ पड़ते हैं। हालांकि यह छह पैरों वाला कीट भी कुछ कम ढीठ नहीं, जो लाख जतन के बाद भी आसानी से नहीं मरता। यह एक ऐसा बिन बुलाया मेहमान है जो हमारे घरों में रहने का इतना अभ्यस्थ हो गया है कि इसे अक्सर रसोई के पाइप, बाथरूम या नम दराजों में छिपे देखा जा सकता है।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि कैसे यह छोटे सख्त जीव दुनिया भर के लिए परेशानी का सबब बन गए, क्योंकि आज हम जिन कॉकरोचों को अपने घरों में देख रहें हैं वो हमेशा से घरों के अंदर रहने वाले जीव नहीं थे। एक नए दिलचस्प अध्ययन में कॉकरोचों के आश्चर्यजनक इतिहास, महाद्वीपों में उनकी यात्रा का वर्णन किया गया है। साथ ही इस बात को भी उजागर किया गया है कि कैसे वो अनिगिनत चुनौतियों के बाद भी न केवल जीवित बच गए, बल्कि विकसित होने के साथ-साथ दुनिया भर में फैल गए।
देखा जाए तो इंसानी सभ्यता के उदय ने शहरी वातावरण के अनुकूल प्रजातियों के विकास और प्रसार को गति दी। कुछ प्रजातियां आक्रामक कीट बन गई, जिन्होंने मानव कल्याण और आर्थिक समृद्धि पर गहरा प्रभाव डाला है।
अपने इस नए अध्ययन में जेनेटिक्स का उपयोग करके यह दर्शाया है कि कैसे दक्षिण-पूर्व एशिया में छोटी सी शुरुआत से लेकर कॉकरोच यूरोप और दुनिया के अन्य हिस्सों में फैल गए। यह निष्कर्ष कॉकरोच के हजारों साल के इतिहास पर आधारित है, जो स्पष्ट करते हैं कि यह जीव इंसानों के साथ-साथ दुनिया के अन्य हिस्सों में फैल गए।
अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 17 देशों और छह महाद्वीपों के 280 से अधिक कॉकरोचों के जीन का अध्ययन किया है। उन्होंने पाया है कि जर्मन कॉकरोच, जो दुनिया भर में पाया जाने वाले कॉकरोच की सबसे आम प्रजाति है, वो असल में एशियाई कॉकरोच से उत्पन्न हुई थी। यह प्रजाति संभवतः करीब 2,100 साल पहले एशियाई कॉकरोच से विकसित हुई थी। संभवतः ऐसा भारत या म्यांमार में मानव बस्तियों के अनुकूल होने के कारण हुआ।
यह खोज उस सिद्धांत का भी समर्थन करती है, जिसमें जर्मन कॉकरोच की वंशावली को उसके पूर्वज, एशियाई कॉकरोच से जोड़ा गया है। इस तरह की कॉकरोच प्रजातियां अभी भी एशिया में मौजूद हैं।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कॉकरोचों के विकास और प्रवास के 2,000 वर्षों के इतिहास को जोड़ा है। इस अध्ययन में भारत, सिंगापुर, चीन, रूस, अमेरिका सहित दुनिया के कई अन्य देशों से जुड़े वैज्ञानिक शामिल थे। इस अध्ययन में भारत के अशोका विश्वविद्यालय के त्रिवेदी स्कूल ऑफ बायोसाइंसेज से जुड़े शोधकर्ता शामिल थे। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुए हैं।
इंसानों के साथ लम्बी यात्राएं कर दूर-दराज के क्षेत्रों में पहुंचे कॉकरोच
इस अध्ययन से पता चला है कि कॉकरोचों ने अपनी यात्रा दक्षिण पूर्व एशिया से शुरू की। इसके बाद वो दो प्रमुख मार्गों से दुनिया में फैल गए। उन्होंने करीब 1,200 साल पहले पहली बार पश्चिम से मध्य पूर्व यात्रा की। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि उन्होंने अपनी यह यात्रा सैनिकों के लिए भेजी जा रही रसद में छिपकर की थी।
देखा जाए तो 18वीं शताब्दी तक जर्मन कॉकरोच ज्यादातर एशिया में ही सीमित थे। यूरोप में उनके प्रवेश का हमारा अनुमानित समय 1760 के दशक के शुरूआती ऐतिहासिक अभिलेखों से मेल खाता है।
वैज्ञानिक शोधों और ऐतिहासिक रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि इसके बाद वो करीब 270 साल पहले डच और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारिक जहाजों पर सवार होकर हिचकोले लेते विशाल समुद्र को पार कर यूरोप तक पहुंच गए। आगे चलकर भाप इंजन और इनडोर प्लंबिंग जैसे आविष्कारों ने उन्हें कहीं दूर तक यात्रा करने और घर के अंदर पनपने में मदद की, जहां वे आज आम तौर पर पाए जाते हैं।
इन मार्गों ने कॉकरोचों को कई क्षेत्रों में फैलने, विभिन्न वातावरणों के अनुकूल ढलने और सबसे व्यापक और लचीले कीटों में से एक बनने में मदद की। इंसानों के साथ छिपकर यात्रा करने और बेहद जल्द नए परिवेश में ढलने की उनकी क्षमता ने उन्हें दुनिया भर में अपना प्रभुत्व स्थापित करने में मदद की। इसके बाद कॉकरोच की यह प्रजाति 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभ के बीच दुनिया के बाकी हिस्सों में फैल गई।
हैरानी की बात है कि अब यह प्राकृतिक आवासों में नहीं पाए जाते। शुरूआत में यह जीव जंगलों और खेतों में रहते हुए बाहर ही पनपते थे। जैसे-जैसे इंसानों ने शहरों और घरों के अंदर अनुकूल वातावरण का विकास किया, कॉकरोचों ने घर के अंदर जाने का अवसर भुनाया। भरपूर भोजन के साथ गर्म घरों ने इन जीवट जीवों को पनपने के लिए आदर्श माहौल दिया।
इस समय भी उनकी गजब की अनुकूलन क्षमता ने उनका साथ दिया। समय के साथ उनमें ऐसे गुण विकसित हुए जो उन्हें मुश्किल से मुश्किल जगहों पर जीवित रहने में मदद करते हैं। वे छोटी जगहों में छिपने, अंधेरे इलाकों में जाने और तेजी से प्रजनन करने में माहिर हो गए। इस अनुकूलन ने उन्हें घर के अंदर पनपने में मदद की, जहां के अब वो स्थाई निवासी बन गए हैं। इंसानी वातावरण का फायदा उठाने की उनकी क्षमता ने इस जीव को दुनिया भर के शहरी क्षेत्रों में सफल बनाया है। यही वजह है कि आज इन्हें नियंत्रित करने के लाख जतन करने के बाद भी यह जीव आसानी से घरों को छोड़ कर नहीं जाता।
इन कॉकरोचों को खत्म करना इतना मुश्किल क्यों है इस बारे में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में कीटों पर अध्ययन करने वाले पोस्टडॉक्टरल शोधकर्ता कियान तांग ने एसोसिएटेड प्रेस को जानकारी दी है कि इसके पीछे की वजह उनका तेजी से विकसित होना है। उनके मुताबिक कॉकरोच कीटनाशकों के प्रति बहुत जल्द प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं, जिससे उन्हें नियंत्रित करना बेहद कठिन हो जाता है।
देखा जाए तो तेजी से अनुकूलन का मतलब है कि कीटों को नियंत्रित करने के पारंपरिक तरीके अक्सर समय के साथ इनपर प्रभावी नहीं रहते। ऐसे में इनके विकास, प्रसार और गजब की अनुकूलन क्षमता को समझना इनके इतिहास के साथ-साथ इनकी कमजोरियों को समझने में भी मदद कर सकता है। इसकी मदद से इनकों नियंत्रित करने की वैकल्पिक तरीकों का विकास मुमकिन हो सकता है, जिनकी मदद से हम इन अनचाहे मेहमानों को हमेशा के लिए अलविदा कह सकेंगें।
रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनसे एक बाद तो पक्की है कि भले ही यह कॉकरोच हमारे घरों के अनचाहे मेहमान जरूर हैं, लेकिन इनका रोमांचक इतिहास, प्रसार की यात्रा इनकी गजब की अनुकूलन क्षमता का प्रमाण देती है।