चिपको आंदोलन: आधी सदी के बाद किस हाल में हैं गौरा देवी की सहेलियां?

जंगल बचाने के लिए पेड़ों से चिपकने वाली गौरा देवी के साथ गई कुछ महिलाएं अभी भी गांव में हैं, जंगल के प्रति उनका लगाव वही है, लेकिन समाज से शिकायतें भी हैं
फोटो : क्रिएटिव कॉमन्स द्वारा  एसए 4.0
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दुनिया के किसी कोने में, किसी भी भाषा में जब पर्यावरण बचाने के लिए संघर्ष का इतिहास लिखा जाएगा, तब हिंदी का एक शब्द जरूर शामिल किया जाएगा, वह है ''चिपको''। 1970 के दशक में हिमालयी गांव रैणी और मंडल की महिलाएं ठेकेदारों से अपने जंगल को बचाने के लिए पेड़ों से चिपक जाती थीं। इसे चिपको आंदोलन का नाम दिया गया। यह केवल जंगल बचाने की लड़ाई नहीं थी, बल्कि स्थानीय लोगों द्वारा अपने संसाधनों पर अधिकारों का दावा भी था। इस आंदोलन ने दुनिया को बताया कि पर्यावरण बिगड़ता है तो गरीब ही सबसे अधिक पीड़ित होते हैं, इसलिए पर्यावरण को बचाने की जिम्मेवारी स्थानीय लोगों को सौंपी जानी चाहिए। चिपको ने पूरे देश के लोगों को पर्यावरण के प्रति चिंताओं के लिए प्रेरित किया। चिपको आंदोलन अपनी 50वीं वर्षगांठ मना रहा है, राजू सजवान उन महिलाओं से मिलने के लिए उत्तराखंड की अलकनंदा घाटी की यात्रा की, जिन्होंने इस आंदोलन का नेतृत्व किया था। आधी सदी बीतने के बाद भी जंगल के प्रति महिलाओं का लगाव कम नहीं हुआ है, लेकिन उन्हें कुछ शिकायतें भी हैं

युवाओं को नहीं है अब जंगल बचाने की चिंता
—  ऊखा देवी

26 मार्च 1974 को जब ठेकेदार के लोग रैणी के जंगलों की ओर बढ़े तो हमारे महिला मंगल दल की प्रधान गौरा देवी ने सबको जंगल चलने के लिए आवाज लगाई। और सब एक साथ पांच किलोमीटर दूर जंगलों की ओर दौड़ पड़ी। मैं भी उनमें से एक थी। हमने अपने लिए अपना जंगल बचाया और सालांे तक हम रोज जंगल जाते थे। वहीं झूले डालती, खेल कूद करती और लौटते वक्त अपने साथ तरह-तरह की सब्जियां, जड़ी बूटियां ले आती। जड़ी बूटी ऐसी कि कभी कोई बीमार पड़ जाए तो किस मरीज को क्या जड़ी बूटी देनी है, सब महिलाएं जानती थीं। लेकिन अब आंदोलन की ज्यादातर महिलाओं की मौत हो गई है। जो बच गई हैं, उम्रदराज होने के कारण जंगल नहीं जा पाती।

दो साल पहले आई आपदा की वजह से जंगल जाने का रास्ता भी पूरी तरह खराब हो गया है, इसलिए भी लोग जंगल नहीं जा पाते। कभी-कभार गांव के पुरुष जंगल जाते हैं और सब्जी, जड़ी बूटी ले आते हैं। खासकर उन दिनों जब गांव के लोग कीड़ाजड़ी (वैज्ञानिक नाम ओफिओकोर्डीसेप्स साइनेंसिस) लेने जाते हैं, तब हमारे जंगल से होकर जाते हैं। बुजुर्ग होने के कारण गांव की महिलाएं नहीं जा पाती। गांव में युवाओं की संख्या बहुत कम हैं। युवा महिलाएं अपने पति के साथ आसपास के कस्बों या मैदानी इलाकों में चली गई हैं, इसलिए जंगल में अब कौन जाएगा?

जंगल की पहले जितनी जरूरत भी नहीं रही
—  जूटी देवी

गौरा देवी मेरा सास थी। कुछ महीने पहले ही मेरी शादी हुई थी। जैसे ही बाहर से आवाज आई कि ठेकेदार जंगल की ओर निकल गया तो उस समय मैं खाना बना रही थी, लेकिन मेरी सास ने कहा कि खाना छोड़ और जंगल चल। बस देखते ही गांव की महिलाएं जंगल की ओर दौड़ पड़ीं, लेकिन अब काफी हालात बदल गए हैं। जंगल की जरूरत पहले जितनी थी, उतनी अब नहीं रही। पहले घर का चूल्हा तब ही जलता था, जब जंगल से सूखी लकड़ियां आ जाती थी। अब घर-घर में रसोई गैस के सिलेंडर हैं। लकड़ी की जरूरतें भी कम हो गई हैं। पहले मकान में छत व छज्जे में लकड़ी इस्तेमाल होती थी, लेकिन अब मकान ईंट-सीमेंट के बनने लगे हैं।

पहले जंगल में उगने वाले रिंगाल (बांस की प्रजाति का एक पौधा) से कंडी यानी टोकरी बनाया करते थे, लेकिन अब प्लास्टिक की टोकरी सस्ते में मिल जाती है। जड़ी बूटियों के बारे में जानने वाले वैद्य भी अब नहीं रहे। जंगल में भोजपत्र लाकर खाना खाते थे, लेकिन अब बर्तनों में खाना खाते हैं, क्योंकि आज के दिन में यदि उन पत्तों पर खाना खाएंगे तो बच्चे हमें जंगली समझ लेंगे। अब साग-सब्जी बाजार से ले आते हैं।

घरों में आई दरारों की वजह से लगा रहता है डर
—  बाली देवी

3० साल की उम्र में विधवा हो गई थी, तीन बेटों का पाला पोसा, तब इस जंगल ने खूब साथ दिया। जंगल से सूखी लकड़ी, साग सब्जी, जड़ी-बूटियां इकट्ठा करके लाती थी। थोड़़ी बहुत खेती थी, कुछ अनाज उगा लेती थी। किसी तरह पेट काट कर बच्चों को पढ़ाया, अब तीनों बेटे अलग-अलग जगह काम करते हैं।

मैं अब गंाव में अकेली रहती हूं। मेरे बेटे चाहते हैं कि मैं उनके साथ रहूं, लेकिन मुझे अपने गांव से बहुत लगाव है। जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक मैं अपने घर में ही रहूंगी। हालांकि अब इस घर में रहते हुए डर भी लगता है। सात फरवरी 2021 के दिन नदी से इतनी डरावनी आवाज आई कि घर हिलने लगा। गांव के सब लोग डर गए और बचाव के लिए ऊपर जंगल की ओर भाग गए। तीन दिन तक सब लोग जंगल में रहे। ऋषिगंगा नदी में बाढ़ के कारण कंपनी (हाइड्रो प्रोजेक्ट) बह गया। जब घरों को लौटे तो देखा कि दीवारों में दरारें आ गई हैं। सरकार ने आश्वासन दिया था घरों का मुआवजा देंगे, लेकिन अब तक कुछ नहीं मिला। इसके बाद 17-18 जून में बहुत तेज बारिश के कारण बहुत नुकसान हुआ। उसके बाद से जब भी तेज बारिश होती है तो डर लग जाता है। कुछ परिवार तो इसलिए गांव में बने घर छोड़ कर दूसरी जगहों पर रह रहे हैं और गांव खाली हो रहा है। पता नहीं, सरकार कब इस बारे में कोई कदम उठाएगी।

न रोजगार, न शिक्षा, फिर गांव में क्यों रहें युवा?
—  कली देवी

पहले हम लोग अपने पूरे परिवार का पेट जंगल और खेतों से भरते थे। तरह-तरह की दालें, सब्जियां, मंडुवा,कौंणी आदि लगाते थे। आसपास चुल्लू के पेड़ों के बीज तोड़कर उनका तेल निकालते थे। अब भी यह तेल 1,000 रुपए प्रति किलो की दर से बिक जाता है, लेकिन अब गांव में खेती लगभग बंद हो गई है। जंगली सूअर, बंदर, लंगूर कुछ नहीं छोड़ते। खेती करने वाले लोग बचे भी नहीं है। गांव में जवान लोग नहीं रह गए हैं, केवल गौरा देवी की पीढ़ी के ही लोग रह गए हैं। बाकी गांव खाली होता जा रहा है। बच्चों की पढ़ाई के साधन नहीं हैं। ज्यादातर लोग या तो जोशीमठ चले गए हैं या देहरादून। गांव के आसपास रोजगार का साधन नहीं है, जिन लोगों को सरकारी नौकरी मिल जाती है, वो अपने बच्चों को साथ ले जा रहे हैं। साल में एक-दो बार एक-दो दिन के लिए गांव आते हैं, फिर वापस चले जाते हैं। कुछ घर तो ऐसे हैं, जहां कई साल से कोई नहीं लौटा है।

गांव में 52 परिवार हैं, लेकिन उनमें से 20 से 22 परिवार ही गांव में रहते हैं। बाकी परिवार शहरों में रहने चले गए हैं। गांव में युवाओं की संख्या बहुत कम है। कुछ साल पहले लोगों को पता चला कि जंगल से ऊपर बुग्यालों में कीड़ाजड़ी मिलती है, जो बहुत महंगी बिकती है। तब से हर साल लोग अप्रैल में गांव लौटकर कीड़ाजड़ी ढूंढ़ने जाते हैं। कुछ परिवार ऐसे हैं, जो इसी के भरोसे गांव में टिके हुए हैं, लेकिन ज्यादातर अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने के लिए गांव से पलायन कर गए हैं। केवल कुछ बुजुर्ग ही बचे हैं, जो गांव में टिके हुए हैं।

परिवर्तन की मिसाल
—  चंडीप्रसाद भट्ट

चिपको आंदोलन की भूमिका 1973 के मार्च में लिखी गई थी। जब गोपेश्वर से एक किलोमीटर दूर मंडल में जंगल बचाने के लिए मैंने प्रस्ताव रखा कि पेड़ों का “अंग्वाल्ठा” किया जाएगा। गढ़वाली बोली में आलिंगन को “अंग्वाल्ठा” कहा जाता है। बाद में इसे चिपको आंदोलन का नाम दिया गया। रैणी में मार्च 1974 में जब ठेकेदार व मजदूर जंगल काटने पहुंचे, तब कोई भी पुरुष गांव में नहीं था। महिलाओं ने हमारी बातें सुनी थी, इसलिए वे गौरा देवी के नेतृत्व में जंगलों में पहुंची और पेड़ों से चिपक गई।

इस घटना का असर यह हुआ कि चिपको आंदोलन को विश्व भर में पहचान मिल गई और रैणी ने हमारे आंदोलन को नई पहचान, नई मजबूती प्रदान की और हमें एक सीख दी। इससे पहले हम केवल पुरुषों तक की अपनी बात पहुंचा रहे थे और हर गांव में जंगलों की निगरानी के लिए पुरुषों की समिति बना रहे थे, लेकिन रैणी की घटना के बाद हमें यह बात समझ आई कि महिलाओं में जंगल के प्रति लगाव ज्यादा है। इसलिए महिलाओं को इस आंदोलन में आगे किया गया। इसका असर यह भी हुआ कि उसके बाद लगभग हर आंदोलन में महिलाएं आगे रहीं।

चिपको आंदोलन केवल पेड़ों को बचाने का नहीं था, बल्कि वन संपदा पर स्थानीय लोगों के हक का आंदोलन भी था। हम लगातार शासन-प्रशासन को यह समझा रहे थे कि हरे पेड़ों को बिल्कुल ना काटा जाए और सूखे पेड़ यदि काटने भी हैं तो हम यानी स्थानीय लोग उसका उपयोग करें। सोच यह थी कि वन संपदा पर स्थानीय लोगों का अधिकार होगा तो पहाड़ों से पलायन पर रोक लग सकती है। हालांकि रैणी के आंदोलन के दौरान हमें समझ में आया कि ऐसे संवेदनशील इलाकों में बाढ़ की घटनाओं को रोकने के लिए जंगलों को बचाना जरूरी है, क्योंकि 1970 में वहां एक भीषण बाढ़ आई थी, जिसने कई इलाकों को तबाह कर दिया था।

हाल के सालों में हिमालय पर आ रही आपदाओं ने यह साबित भी कर दिया है कि हमारी चिंताएं वाजिब थी। यही वजह है 50 साल बाद भी चिपको का असर दिख जाता है। लोग अब भी जंगल बचाने के लिए पेड़ों से चिपक कर अपनी नाराजगी का इजहार करते रहते हैं। लेकिन दुखद पहलू यह है कि शासन-प्रशासन ने ऐसे आंदोलनों को विकास विरोधी बताना शुरू कर दिया है। पहले शासन में बैठे लोग व मीडिया कर्मी संवेदनशील होते थे और जन आंदोलन की भाषा को समझते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है।

(चंडीप्रसाद भट्ट, दशोली ग्राम स्वराज्य संघ के संस्थापक हैं, जिसने  चिपको आंदोलन की शुरुआत की)

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