सूखाग्रस्त मराठवाड़ा के बच्चों ने पेड़ों को दिया जीवनदान, लौटाई हरियाली

मराठवाड़ा में पानी की किल्लत के बावजूद बच्चों ने अपने स्कूल परिसर में हरियाली लाने की मुहिम शुरू की और आज उनका स्कूल मिसाल बन गया है
फोटो: शिरीष खरे
फोटो: शिरीष खरे
Published on

शिरीष खरे

सूखाग्रस्त मराठवाड़ा के एक स्कूल के बच्चों ने पिछले दो वर्षों में सूखे के दौरान अपने स्कूल परिसर के कई पेड़ों को जीवनदान दिया है। शिक्षकों की पहल पर इन बच्चों ने अपने परिसर में कई फलदार पेड़ रोपे। दरअसल, इन्होंने संकल्प लिया कि सूखे के दिनों में पानी की किल्लत के बावजूद पेड़ों की प्यास बुझाएंगे। इन प्रयासों का नतीजा है कि इस स्कूल परिसर की हरियाली दूर से ही सबका ध्यान अपनी ओर खींचती है। इसके लिए बच्चे सिलाइन प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसमें पौधों की जड़ों में बूंद-बूंद पानी पहुंचाया जाता है। 

बात हो रही है जिला और तहसील मुख्यालय औरंगाबाद से करीब 15 किलोमीटर दूर शेन्द्रा कामगार गांव में शिवाजी नगर बस्ती के प्राथमिक स्कूल की। बता दें कि शेन्द्रा कामगार करीब छह हजार की आबादी का गांव है, जिसमें तीन हजार लोग शिवाजी नगर बस्ती में रहते हैं। यह मुख्यत: मजदूर परिवारों की बस्ती है। यहां मराठी माध्यम का यह स्कूल वर्ष 2002 में स्थापित हुआ था। इस स्कूल में दो शिक्षक और 58 बच्चे हैं।

इस स्कूल परिसर में नीम, बरगद, बादाम और इमली आदि के कई पेड़ लहलहा रहे हैं। किंतु, यहां की प्रधानाध्यापिका गीतांजलि बंदरे और जनार्दन शेजूल इन पेड़ों के हरे-भरे रहने के पीछे की बातें बताना चाहते हैं। वे बताते हैं कि लगातार सूखा पड़ने के कारण वर्ष 2017 में पूरा बगीचा सूखने की कगार पर पहुंच गया था। स्कूल की हरियाली छिन चुकी थी और परिसर की हरियाली लौटाने के लिए कोई गंभीर प्रयास नहीं हो रहे थे।

फिर दिसंबर, 2017 में इन शिक्षकों ने स्कूल की हरियाली लौटने के बारे में सोचा। गीतांजलि के अनुसार, उन्हें लगा कि स्कूल के बच्चों को पाठ्यक्रम से अलग मूल्यों की शिक्षा देनी चाहिए। मूल्यों की शिक्षा व्यवहारिक होनी चाहिए। इसका एक उद्देश्य बच्चों के मन में अपने आसपास का पर्यावरण और पानी को बचाने की भावना पैदा होनी चाहिए। यह मूल्य उन्हें जिम्मेदार नागरिक बना सकता है। फिर पानी का संकट न सिर्फ स्कूल, बल्कि पूरे क्षेत्र की बड़ी समस्या है। अच्छी बात यह है कि पानी के इस स्थानीय संकट को ध्यान में रखकर स्कूल ने शिक्षण की नई कई गतिविधियां तैयार कीं और उसे बदलाव के प्रमुख उपकरण के तौर पर इस्तेमाल किया।

वे कहती हैं, ''एक दिन हमने तीसरी कक्षा के बच्चों के साथ एक गतिविधि कराई। गतिविधि का नाम था- 'हम वृक्षों को कैसे बचा सकते हैं?' चर्चा में बच्चों ने बताया कि वे पेड़ों को बचाना चाहते हैं। उन्होंने बताया कि बिना पानी के पेड़ बच ही नहीं सकते हैं। तब हमने उनसे ही पूछा कि इतने सारे पेड़ों को तो बहुत पानी लगेगा। गांव में पानी की कमी है। इसलिए, इतना सारा पानी कहां से लाएंगे? हम उनसे तरह-तरह के उपाय पूछते रहें। पर, उस दिन हमें कोई भी व्यवहारिक उपाय नहीं मिला।''

इसके बाद वर्ष 2018 में जब गर्मियों के दिन शुरु होने लगे तो यहां के शिक्षकों ने सभी कक्षा के बच्चों के लिए एक संयुक्त सत्र आयोजित किया। इसमें एक बार फिर वृक्षों को बचाने के बारे में चर्चा की गई। इस दौरान सभी बच्चों ने अपने-अपने मत रखें।

हालांकि, शिक्षक के अनुसार बच्चों को पर्यावरण के प्रति सजग बनाने में मूल्यों पर आधारित पाठ्यक्रम में शामिल कई दूसरी गतिविधियां भी सहायक सिद्ध हुईं। जनार्दन ऐसी कुछ गतिविधियों के नाम गिनाते हैं। जैसे: 'हम वृक्षों को कैसे बचा सकते हैं,', 'पेड़ों का उपयोग', 'हमारे आसपास के पेड़-पौधे', 'हम वृक्षों को कैसे बचा सकते हैं?', 'पेड़ का उपयोग', 'पानी का नारा' और 'हम पानी की बचत कैसे कर सकते हैं?' आदि।

ऐसे सूझी यह तरकीब

गीतांजलि अपने अनुभव साझा करती हुई कहती हैं कि उस दौरान यह प्रश्न आया कि आदमी जब बीमार पड़ता है तो डॉक्टर उसकी जान बचाने के लिए क्या-क्या करता है। तब चौथी के कुछ बच्चों ने बताया कि डॉक्टर ऐसे आदमी को सिलाइन भी लगाता है। तब बच्चों से पूछा गया कि क्या वृक्षों को भी सिलाइन लगाई जा सकती है। तब उन बच्चों ने जवाब दिया-हां। पूछने पर उन्होंने पेड़ों को पानी की सिलाइन लगाने की तरकीब भी बताई। सभी को उनकी वह तरकीब पसंद आई।

स्कूल की छत पर जमा किया बरसात का पानी

यही नहीं, इस वर्ष इस स्कूल ने पेड़ों की सिंचाई के लिए बरसात का बहुत सारा पानी जमा कर लिया है। इससे पानी की समस्या कुछ हद तक कम हुई है।

जनार्दन ने बताया कि इसके बाद स्कूल ने पेड़ों की सिंचाई की बात को ध्यान में रखते हुए बरसात के पानी को जमा करने के बारे में निर्णय लिया। उनकी मानें तो उनहोंने तय किया कि बरसात के पानी को स्कूल की छत पर जमा करेंगे, ताकि इस पानी को पाइप के जरिए सौख गड्ढ़े तक पहुंचाया जा सके।

जब उन्होंने ऐसा किया तो सौच गड्ढे के आसपास का जलस्तर बढ़ गया। इससे स्कूल का बोर पंप जो हर साल मार्च-अप्रैल में ही पानी देना बंद कर देता था, अब 15 मई तक पानी देता है। इससे पानी की कमी की समस्या पहले से काफी कम हो गई।

लेकिन, कहने में जो उपाय इतना आसान लग रहा था, हकीकत में उतना भी आसान नहीं था। कक्षा चौथी कि कशिश शेख इस मुहिम को शुरु करने के पहले की दिक्कतों के बारे में बताती है कि गांव में पानी की कमी रहती है, इसलिए स्कूल के पेड़ों को पानी देने के नाम पर या तो ज्यादातर लोग बहाना बना रहे थे, या साफ मना कर रहे थे।

यूं हल की मुश्किल

कशिश के शब्दों में ''हमें पचास से ज्यादा बोतले चाहिए थीं। सभी बच्चों ने कहा कि वे अपने-अपने घर से एक-एक बोतल लाएंगे। पर, स्कूल के पास जो हैंडपंप था, उससे (गर्मियों में) पानी निकलना बंद हो गया था। तब सबने यह तय किया कि हर बच्चा हर दिन अपने घर से सिर्फ एक बोतल पानी लेकर स्कूल आएगा।''

इस तरह, हर दिन स्कूल में पेड़ों को पानी देने के लिए 50 बोतलों में 50 लीटर से ज्यादा पानी का इंतजाम होने लगा। इस तरह, बच्चों ने 90 से 100 दिनों तक हर दिन 50 लीटर से ज्यादा पानी बूंद-बूंद करके पेड़ों की जड़ों तक पहुंचाया। इससे, विशेष तौर पर छोटे पौधे जो प्रचंड धूप और पानी की कमी के कारण सूखने की कगार पर पहुंच गए थे, फिर हरे हो गए और स्कूल परिसर की हरियाली लौट आई।

बदले व्यवहार से जागी उम्मीद

दूसरी तरफ, इस पूरी मुहिम की अच्छी बात यह रही कि बच्चों ने पेड़ों को तो बचाया ही, इसके साथ-साथ पेड़ों के महत्त्व को भी भली-भांति समझा। तीसरी की आरती कुटे कहती है, ''हमने पेड़ों को पानी देकर बचाया, क्योंकि पेड़ बड़े होकर हमें छाया देते हैं। फल-फूल देते हैं। उनसे हमे शुद्ध हवा मिलती है। पेड़ों से आग में जलाने के लिए लकड़ियां मिलती हैं।''

तीसरी का कोमल शागले बताता है कि पहले वह जैसा सोचता था, अब वैसा नहीं सोचता। पहले वे अपने दोस्तों के साथ छोटे पेड़ की डालियों पर लटकता था। इससे कई बार डालियां टूट भी जाती थीं। पर, अब वह पेड़ों को किसी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुंचाता है।

बतौर प्रधानाध्यापिका गीतांजलि अपनी अगली योजना के बारे में बताती हैं। वे चाहती हैं कि इस स्कूल परिसर में 4 मेगावाट का एक सौर ऊर्जा प्लांट हो। इसमें करीब 80 हजार रुपए की लागत आएगी। इसके लिए स्कूल की अगुवाई में 'स्कूल प्रबंधन समिति' और सरपंच के साथ बैठक हो चुकी है।

अंत में गीतांजलि भरोसा जताती हुई कहती हैं, ''लोगों ने चाहा तो अगले साल तक हम एक और सफलता हासिल कर लेंगे। क्योंकि, हमने बच्चों के साथ मिलकर सबके साथ काम करने और निर्णय लेने का तरीके सीख लिए हैं।''

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in