साक्षात्कार: पौधों के बेहतर अभिभावक होते हैं बच्चे

नूरसराय के रहने वाले राजीव के नेतृत्व में स्वयंसेवकों का एक समूह 500 से 600 पौधों को मिनी वैन में लेकर स्कूलों, बाजारों या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर जाता है
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
इलस्ट्रेशन: योगेन्द्र आनंद / सीएसई
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“तरुवर फल नहीं खात हैं, सरवर पियहिं न पान” यानी पेड़ न तो अपना फल खाते हैं और न ही सरोवर अपना पानी पीते हैं। ये दूसरों के लिए फलते और बहते हैं। हमारे आसपास बहुत कम लोग ऐसे हैं जो ऐसा काम शुरू कर पाते हैं जो उनके आगे की पीढ़ी के जीवन में हरियाली लाए। अगर कोई आपके घर तक पहुंचे और पौधों को पकड़ा कर कहे कि इसे पेड़ बनने तक पालिए-पोसिए और मीठे फल खाइए तो कैसा लगेगा? बहुत से लोग अपने हाथों तक पहुंचे पौधों को पाल-पोस कर पेड़ बनाने के लिए तैयार हो जाते हैं। ऐसा ही मिशन शुरू किया राजीव रंजन भारती ने। उनकी इसी मुहिम की बदौलत बिहार के नालंदा के नूरसराय ब्लॉक के गांवों में कम से कम 4,000 से 5,000 पौधे हैं। यहां के निवासी इन पौधोंे के न केवल फल खाते हैं बल्कि आय के लिए उन्हें बेचते भी हैं। नूरसराय के रहने वाले राजीव ने 2016 में मिशन हरियाली की शुरुआत की थी। हर दिन, उनके नेतृत्व में स्वयंसेवकों का एक समूह 500 से 600 पौधों को मिनी वैन में लेकर निकलता है और स्कूलों, बाजारों या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर जाता है। उनका मिशन सरल है, बच्चों और बड़ों से संपर्क करना और उन्हें घर पर लगाने के लिए पौधे देना और उसकी देखभाल करना। दाक्षिआणी पलीचा ने राजीव रंजन भारती से उनके इस अनूठे अभियान के संबंध में बातचीत की

बहुत कुछ खोने के बाद आम लोगों में पर्यावरण को लेकर जागरुकता आ रही है। आपने किस भरोसे के साथ यह काम शुरू किया? क्या आसपास के लोगों से खारिज होने का डर नहीं था?

आपकी बात सच है कि अब आम लोग पर्यावरण को लेकर संवेदनशील हैं। ऐसा नहीं है कि पहले नहीं थे। हमारे पुराने रीति-रिवाज, किस्से-कहानियां सभी प्रकृति से जुड़े हुए हैं। फलदार वृक्षों को तो घर के कमाऊ सदस्य की तरह देखा जाता है जिससे एक अपनापन हो जाता है। हमने यह भी देखा है कि किस तरह आंगन या बगीचे में पुराने पेड़ सूख जाने या किसी कारण से नष्ट हो जाने के बाद किसी प्रियजन के खोने सा दुख होता है। इंसान अपनी मूल प्रवृत्ति में प्रकृति विरोधी नहीं है। हरे-भरे फलों के बाग किसे अच्छे नहीं लगते। लेकिन एकतरफा विकास की दौड़ में लगने लगा कि हमारे पास इतने संसाधन ही नहीं हैं कि हम अपने साथ पेड़-पौधों को रख सकें। शहरीकरण के साथ सिर्फ संयुक्त परिवार नहीं टूटे बल्कि पेड़-पौधों का साथ भी छूटा। लेकिन, अब लोग चाहे गमले में एक छोटा पौधा क्यों न हो, रस्मी ही सही, आलंकारिक ही सही उसे अपने साथ रखना चाहते हैं। घरों की बालकनियों, ऊंची इमारतों की छतों से पेड़-पौधे झांकने लगे हैं। इसी से उम्मीद बंधी कि लोग साथ तो आएंगे ही।

फिर, मिशन हरियाली की शुरूआत कब हुई?

मेरे इस मिशन में अहम पड़ाव 2016 में आया, जब स्थानीय पंचायत के चुनाव के दौरान हममें से कुछ स्थानीय निवासियों ने मांग की थी कि उसी उम्मीदवार को वोट दिया जाएगा जो अधिक पेड़ लगाने का वादा करें। लेकिन, हर चुनावी वादे की तरह पेड़ लगाने की बात भी वादा ही रही और जमीन पर पौधे नहीं लग पाए। ऐसी परिस्थिति में हमने अपने परिवार के सदस्यों और नजदीकी दोस्तों से कुछ पैसे एकत्र किए और खुद ही पौधे खरीदे। बिहार के नालंदा जिले के नूरसराय में हमने 2016 में मिशन हरियाली की शुरुआत की। इसके लिए हमारे स्वयंसेवकों का एक समूह 500-600 पौधों को एक सफेद मिनी वैन में लोड करता है। इसके बाद शुरू होती है हमारी पौधों को देने की कवायद। हम स्कूल-बाजार से लेकर हर उस सार्वजनिक जगह तक जाते हैं, जहां पौधों की अहमियत हो सकती है। तब से अब तक हमने नालंदा में 11 लाख पौधों को वितरित किया। इन वितरित पौधों में 80 से 90 हजार तो अकेले अमरूद के ही हैं। इसके अलावा कटहल, सीताफल, आम और करौंदा जैसे कुछ अन्य पौधे हैं, जिन्हें कुल 33 स्वयंसेवक जिले भर में वितरित करते हैं।

इस मिशन को लेकर कोई ऐसी याद जो आप हमारे साथ साझा करना चाहते हैं?

मैं आपको रहुई प्रखंड के शमाबाद गांव में कक्षा सात की छात्रा रिया कुमारी की बात बताना चाहूंगा। रिया कुमारी ने हमारे दिए गए आंवले के पौधे के बारे में कहा था, “दो महीने पहले मिशन हरियाली से आंवले का पौधा मिला। मिशन स्वयंसेवकों ने मुझे इस पौधे के सभी लाभों के बारे में बताया और इसे उगाने और इसकी देखभाल करने के लिए मेरा मार्गदर्शन भी किया। इसके बाद मैं उनके दिए गए दिशा-निर्देशों का अक्षरश: पालन करने की कोशिश करती रही। इसी का नतीजा है कि आज आंवले का पौधा धीरे-धीरे मुझसे भी ऊंचा होता जा रहा है।” हम उसकी खुशी को शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकते जो उसे आंवले के पौधे को बढ़ते हुए देख कर हो रही थी। जिस पौधे को उसने अपने हाथों से लगाया था, वो उससे लंबा हो रहा था। हम पेड़ों को लेकर यही भाव विकसित करना चाहते हैं कि उसका बढ़ना-फलना आपको निजी उपलब्धि लगे और उसके नुकसान से आप दुखी हों। नूरसराय ब्लॉक के गांवों में हमने कम से कम चार से पांच हजार पौधों को बांटा था। आज की स्थिति देखिए कि वहां के ग्रामीण न केवल फल खा रहे हैं बल्कि अब उनके लिए यह आय का एक बड़ा स्रोत बनता जा रहा है।

आपका यह मिशन स्कूल और छात्रों से किस तरह से जुड़ा?

हमने सबसे पहले स्कूलों में ही पौधा बांटने की सोची। और कुछ महीनों बाद मैंने 50-60 अमरूद के पौधे खरीदे, लेकिन हमें पता नहीं था कि उन्हें कहां लगाया जाए? इसलिए मैंने अपने बच्चों के स्कूल से संपर्क किया। शिक्षकों से पूछा कि क्या हम छात्रों को पौधे बांट सकते हैं? सभी शिक्षकों ने खुशी-खुशी इसकी इजाजत दे दी। फिर यह सिलसिला चल पड़ा।

स्कूलों में जब आपने मिशन हरियाली का काम शुरू किया तो वहां छात्रों की क्या प्रतिक्रिया थी?

जब हम स्कूलों में गए, तो कई बच्चों ने हमें बताया कि वे फलों के लाभों के बारे में जानते हैं और पौधे लगाना चाहेंगे। इसी बात ने हमें और प्रेरित किया। हम और स्कूलों में जाने लगे। मैं तो यह भी कहना चाहूंगा कि हमारे मिशन की सफलता में स्कूली बच्चों की सबसे अहम भूमिका है। हमने अक्सर देखा है कि भले ही वयस्क हमसे लिए गए पौधों की देखभाल करने में सफल नहीं हो पाते, लेकिन बच्चे ऐसा कभी नहीं करते हैं। वे पूरी लगन और शिद्दत से अपने पौधों का न केवल ख्याल रखते हैं बल्कि जब तक उसे उनकी जरूरत होती है तब तक उसकी देखभाल करने में पीछे नहीं हटते। बच्चे पौधों के जीवनचक्र से अपना राब्ता कायम करते हैं। पौधे का बढ़ना, फूल लगना उन्हें चौंकाता है खुशी देता है। हमने यही देखा कि बच्चे पौधों के बेहतर अभिभावक हैं।

आम लोगों को इस मिशन के लिए तैयार करने में कितनी दिक्कत हुई?

हमारे मिशन का फार्मूला बहुत ही सरल है। इसके लिए हम बच्चों और बड़ों से सीधे संपर्क करते हैं और अपने मिशन के बारे में पूरी शिद्दत से समझाते हैं। इसके बाद हम उनसे यह आग्रह करते हैं कि आप अपने घरों में हमारे द्वारा दिए गए पौधों को रोपें। बस इसी साधारण से फार्मूले से हम अपने मिशन को एक से दो और दो से चार करने में अब तक सफल होते आ रहे हैं। भविष्य में भी उम्मीद है कि हमारा यह पौधा रोपने का सिलसिला चलता रहेगा।

इस मिशन के लिए आपने नालंदा जिले को ही क्यों चुना?

मेरे पिता एक डॉक्टर हैं और मेरे परिवार ने इसके कारण पूरे बिहार की काफी यात्राएं कीं। इन यात्राओं से मुझे पता चला कि अन्य जगहों की तुलना में, हमारा ब्लॉक लगभग पूरी तरह से वृक्ष रहित है। बस इसी बात ने मुझे प्रेरित किया कि हर हाल में इस इलाके में भी अन्य इलाकों के बराबर ही हरियाली लानी है।

क्या नालंदा की हालात पर आपके इस मिशन का कुछ फर्क पड़ा?

नालंदा में पेड़ों की वापसी के कई फायदे हुए हैं। नूरसराय प्रखंड के बेलदारी गांव में कुछ साल पहले तक मुश्किल से तीन चार ही फलों के पेड़ हुआ करते थे और लोग इसके फलों को लेकर आए दिन आपस में झगड़ते रहते थे। जब से हमने यहां कम से कम 4,000-5,000 पौधे वितरित किए हैं तब से ग्रामीणों के बीच न केवल झगड़े खत्म हो गए हैं बल्कि अब पूरा का पूरा गांव पेट भर कर फल खाता है। इसके बाद भी उनके फल खत्म नहीं होते हैं। ऐसे में वे इसका विक्रय कर अतिरिक्त आय भी अर्जित कर रहे हैं।

क्या आपने अब तक मिशन के अंतर्गत केवल फलों के पौधों को ही वितरित किया है?

अब तो हमने महोगनी के पौधों को भी वितरित करना शुरू कर दिया है, क्योंकि इसकी लकड़ी से ग्रामीणों को अच्छी-खासी आमदनी होती है। ऐसे में जब तक हम अपने इस मिशन को चला सकते हैं तब तक हम इस अभियान को जारी रखने की पूरी कोशिश करेंगे।

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