राजस्थान की सांभर झील में पक्षियों की मौत, कहां हो रही है चूक?
साल 2019 में एवियन बोटुलिज्म संक्रमण के कारण मारे गए हजारों प्रवासी पक्षियों की त्रासदी के बाद राजस्थान की सांभर झील पुनः बीते कुछ दिनों से विदेशी मेहमान परिंदों के लिए कब्रगाह बनी हुई है, जहां पिछले 10 दिनों में 500 से अधिक पक्षियों की मौत हो चुकी है।
सांभर झील भारत की सबसे बड़ी अंतर्देशीय खारी आर्द्रभूमि (वेटलैंड) है जो 230 वर्ग किलोमीटर में फैली हुई है। चार मौसमी नदियों - मेंढा, रूपनगढ़, खारी और खंडेल से पोषित इस झील का जलग्रहण क्षेत्र 5700 वर्ग किलोमीटर है। भारत में नमक के कुल उत्पादन का लगभग नौ फीसदी नमक यहां से निकाला जाता है। नमक उत्पादन का प्रबंधन सांभर साल्ट्स लिमिटेड द्वारा किया जाता है, जो हिन्दुस्तान साल्ट्स लिमिटेड और राजस्थान सरकार का एक संयुक्त उद्यम है।
अपनी लवणीय प्रकृति तथा स्थलीय और जलीय जैव- विविधताओं का मिलन स्थल होने के कारण सांभर आर्द्र भूमि एक विशिष्ट प्रकार का महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र है जो प्रवासी पक्षियों को अनूठा पर्यावास (हैबिटैट) प्रदान करती है। सांभर झील में प्रत्येक वर्ष उत्तरी एशिया एवं यूरोप से सर्दियों के दौरान लाखों की संख्या में विभिन्न प्रजातियों के प्रवासी पक्षी आते हैं जिनमें ग्रेटर फ्लेमिंगो, लेसर फ्लेमिंगो, नॉर्दर्न शॉवलर, केंटिश प्लॉवर, कॉमन कूट, नॉर्दर्न पिंटेल, गडवॉल, मैलार्ड, गार्गेनी और कॉमन टील प्रमुख हैं। इस झील के अंतरराष्ट्रीय एवं जैविक महत्व को समझते हुए इसे वर्ष 1990 में रामसर स्थल के रूप में नामित किया गया।
रिपोर्ट्स के अनुसार वर्तमान में हो रही प्रवासी पक्षियों की मौत का कारण भी 2019 में फैली एवियन बोटुलिज़्म बीमारी ही हैं जिससे लगभग 23000 पक्षियों की जान गई थी।
25 फरवरी 2023 को करंट साइंस जर्नल में प्रकाशित शोध के अनुसार जुलाई और अगस्त 2019 के दौरान सामान्य से ज़्यादा बारिश के परिणामस्वरूप झील क्षेत्र का जल स्तर बढ़ गया, जिससे नए दलदली क्षेत्र और आर्द्रभूमि का निर्माण हुआ।
नए जलभराव वाले क्षेत्रों में पहले से मौजूद बैक्टीरिया के बीजाणु (स्पोर) बड़े पैमाने पर फैल गए। भारी वर्षा के कारण पानी की कम लवणता ने अकशेरुकी, क्रस्टेशियन और प्लवक (प्लैंकेटन) जो अपने शरीर में क्लोस्ट्रिडियम बोटुलिनम को आश्रय देते हैं, के विकास और प्रसार के लिए अनुकूल वातावरण बनाया।
जब जल स्तर कम होने लगा, तो लवणता के स्तर में वृद्धि हुई, जिसके फलस्वरूप अकशेरुकी, क्रस्टेशियन और प्लवकों की मृत्यु हो गई। मृत जीवों में क्लोस्ट्रिडियम बोटुलिनम की और अधिक वृद्धि हुई, जिससे विषाक्त पदार्थ एकत्रित हो गए। इनको खाने वाले मांसाहारी एवं सर्वाहारी पक्षी क्लोस्ट्रिडियम बोटुलिनम बैक्टीरिया के कारण एवियन बोटुलिज़्म के शिकार हो गए।
इन पक्षियों की मृत्यु के बाद, शवों में कीड़े लग गए, जो बोटुलिनम विष को जैविक रूप से संचित करते हैं। इन कीड़ों को खाने से नए पक्षी भी बोटुलिनम विष के शिकार हो गए, जिससे कीड़ा-शव चक्र की शुरुआत हुई जिसके फलस्वरूप देश में पहली बार बड़े पैमाने पर पक्षियों की मृत्यु हुई। शोध में कहा गया है कि लवणता के बदलते स्तर से क्लोस्ट्रिडियम बोटुलिनम बैक्टीरिया की वृद्धि हुई। अध्ययन में यह भी पाया गया कि मीठे पानी की झील रतन तालाब में किसी पक्षी की मृत्यु नहीं हुई, जो सांभर झील से लगभग 55 किमी दूर है।
बोटूलिज्म एक गम्भीर बीमारी है जो पक्षियों के तंत्रिका तंत्र और उनकी मांसपेशियों को प्रभावित करती है जिससे उनके पंखों ओर पैरों में शिथिल पक्षाघात हो जाता है यानी पक्षियों को लकवा मार जाता है और गर्दन जमीन को छूने लगती है। मृत पक्षियों में ज्यादातर नॉर्दन शॉवलर व केंटिश प्लॉवर मिले हैं। मांसाहारी नहीं होने के कारण फ्लेमिंगो पक्षी एवं अन्य स्थानीय पक्षी संक्रमित नहीं हुए हैं।
विगत कुछ वर्षों से सांभर आर्द्र भूमि क्षेत्र में लगातार प्रदूषण की मात्रा बढ़ने से भी यह स्थान पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील पक्षियों के लिए सुरक्षित नहीं रहा है। औद्योगिक प्रदूषण, ठोस व घरेलू अपशिष्ट पदार्थों के झील में प्रवाहित होने से पानी और खराब होता गया है जिससे पक्षियों के इम्यून सिस्टम के कमजोर होने से वें सहज संक्रमित होने लगे। सांभर आर्द्रभूमि के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ लंबे समय से की जा रही छेड़छाड़ पक्षियों के यहाँ से मुंह मोड़ने का बड़ा कारण है।
लम्पी बीमारी की चपेट में आकर मरे मवेशियों के शव सांभर झील के आसपास लावारिस पड़े होते हैं। इन संक्रमित शवों पर भोजन के लिए पक्षी भी बैठ रहे हैं। झील में मछली पालन का ठेका दिया हुआ है। पक्षी मछली ना खा लें, इसके लिए चौकीदार लगाए गए हैं। जब पक्षियों को ताजा मछली नहीं मिलती तो वह झील में तैर रही गंदगी, मृत विषाक्त जीव या अन्य अपशिष्ठ खाने लगते हैं।
सांभर साल्ट लिमिटेड को सांभर झील के सतही जल का उपयोग करने का एकमात्र अधिकार है। मगर कई ऐसी निजी कंपनियां भी हैं जिन्हें बोरवेल के माध्यम से भूजल का उपयोग करके नमक बनाने का लाइसेंस दिया गया है। साथ ही झील से पानी निकालने के लिए अवैध रूप से बोरवेल व पाइपलाइनें खोदी गई है। भूजल तथा नमक के अवैध व अत्यधिक दोहन से सांभर आर्द्रभूमि का प्राकृतिक हैबिटैट तथा पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील यह नमस्थल संकट में है।
राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी), नागपुर के शोध के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में जिस गति से सांभर झील का भूमि उपयोग परिवर्तित हुआ है उससे भविष्य में सांभर झील का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।
सनद रहे हमारे यहां हर वर्ष प्रवासी पक्षियों की संख्या घटती जा रही है। प्रकृति संतुलन में प्रवासी पक्षियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। सांभर आर्द्रभूमि क्षेत्र में आने वाले पक्षियों की देखभाल एवं संरक्षण के लिए हर संभव प्रयास की महत्ती आवश्यकता है।
झील के आस-पास के दो किमी क्षेत्र को बफर जोन घोषित करने एवं अवैध बोरवेल, झील क्षेत्र में गंदे पानी की निकासी तथा जल ग्रहण क्षेत्र में छोटे बांध व एनिकट के निर्माण पर जल्द पाबंदी व झील के आस-पास के क्षेत्र में साफ सफाई की व्यवस्था दुरुस्त रखने और वेटलैंड के नियम लागू करने चाहिए। परंपरागत वर्षा जल संरक्षण गतिविधियों को प्रोत्साहित करना तथा झील संरक्षण को लेकर स्थानीय लोगों को जागरूक करना चाहिए।
उच्च लवणता तथा शुष्क क्षेत्र के मद्देनजर उपयुक्त पौधों द्वारा बायो- फेंसिंग से झील क्षेत्र की सीमा निर्धारित कर अतिक्रमण रोकने की प्रभावशाली रणनीति अमल में लाई जा सकती है।
पृथ्वी पर जीवों के विकास की एक लंबी कहानी है और इस कहानी का सार यह है कि धरती पर सिर्फ हमारा ही अधिकार नहीं है अपितु इसके विभिन्न भागों में विद्यमान करोड़ों प्रजातियों का भी इस पर उतना ही अधिकार है जितना हमारा। विकास की यह यात्रा इन मूक जीवों के प्रति अन्याय की राह से होकर नहीं गुजरनी चाहिए।
सांभर आर्द्रभूमि आज संकटग्रस्त है, सरकार को इसकी जैव-विविधता को संरक्षित करने के लिए नीति बनानी चाहिए। इस दिशा में भारत सरकार की अमृत धरोहर योजना एक दूरदर्शी पहल है जिसका उद्देश्य स्थानीय समुदायों की मदद से देश के रामसर स्थलों के संरक्षण के साथ उनकी प्राकृतिक सुंदरता, इको-टूरिज्म, कार्बन स्टॉक व जैव विविधता को समृद्ध करना है।
डॉ. बबीता एल. बी. एस. राजकीय महाविद्यालय, कोटपूतली, जयपुर में, भूगोल की प्रोफेसर हैं, जबकि डॉ. सुभाष चंद्र यादव, एल. बी. एस. राजकीय महाविद्यालय, कोटपूतली, जयपुर में, भूगोल के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। लेख में व्यक्त लेखकों के निजी विचार हैं