बिहार के किशनगंज के कोचाधामन ब्लॉक के कवईया गांव के रहने वाले मोहम्मद जावेद के लिए कबई मछली का स्वाद अब बीते जमाने की बात हो गई है। 45 साल के जावेद के लिए कबई मछली उनके बचपन की स्मृतियों का हिस्सा है।
वो बताते हैं, “ बचपन में हम लोग हरे रंग की कवई मछली से खेलते थे। हमारे यहां की चिकनी मिट्टी के तालाब में ये सबसे ज्यादा पाई जाती थी। उसे बहादुर मछली कहा जाता है, क्योंकि वो पानी के बिना भी कई घंटों तक जिंदा रह सकती है। हम लोगों को कहा जाता था कि कवई मछली की तरह बहादुर बनो जो आखिर तक अपने अस्तित्व (जिंदा रहने के लिए) के लिए संघर्ष करती है। हमारे गांव का नाम उसी मछली पर है, लेकिन कवई तो अब विलुप्त हो गई।”
किशनगंज का कवईया अकेला गांव नहीं है जिसका नाम किसी स्थानीय मछली के नाम से मिलता झुलता हो। किशनगंज के दिघलबैंक प्रखंड की सिंघीमारी पंचायत – सिंघी मछली पर, किशनगंज प्रखंड के गाछपारा पंचायत का टेंगरामारी गांव – टेंगरा मछली पर, टूपामारी गांव – टूपा मछली, पोठिया अंचल – पोठिया मछली, ठाकुरगंज प्रखंड की बुआली बस्ती – बुआरी मछली पर जैसे दर्जनों नाम मिल जाएंगें।
किशनगंज के पड़ोसी जिले पूर्णिया में ही देखें तो यहां केनगर प्रखंड के रहुआ गांव, रेहू मछली के स्वाद के लिए प्रसिद्ध था। रहुआ गांव सूख चुकी कोसी की उपधारा के किनारे बसा हुआ है। इसी तरह डगरूआ प्रखंड का सौरा गांव – सौरा मछली के लिए, मांगुरजान गांव – मांगुर मछली के लिए प्रसिध्द था। जिले में सिंघिया, पोठिया, बुआरी, कबई नाम के गांव है जो स्थानीय मछलियों के नाम से ही मिलते झुलते है।
दरभंगा में तालाब बचाओ अभियान के संयोजक नारायणजी चौधरी कहते है, “ पूरे उत्तर बिहार में इस तरह के गांव मिल जाएंगे, जिनके नाम स्थानीय मछलियों के नाम जैसे हैं। अब स्थानीय मछलियां विलुप्त होती जा रही हैंं, लेकिन ये गांव मौजूद है उनके स्वाद की याद दिलाने के लिए।”
कभी कोसी के एक बाजार में मिलती थी 131 मछलियां
उत्तर बिहार बाढ़ का इलाका है और यहां जब बाढ़ आती थी तो मछलियों की कई प्रजातियां अपने साथ लेकर आती थी। बाढ़ के साथ आई इन मछलियों से खेत और तालाब भर जाते थे और ये लोगों के खानपान का हिस्सा बन जाती थी।
बाढ़ के साथ आने वाली इन मछलियों ने लोगों के खानपान और संस्कृति को तो समृद्ध किया ही, लेकिन साथ-साथ उनके आम जीवन को भी प्रभावित किया। यही वजह थी कि कई गांव के नाम मछलियों के नाम पर पड़े।
जल विशेषज्ञ और बिहार सरकार में जल संसाधन विभाग के पूर्व सचिव रहे गजानन मिश्र बताते हैं कि सन् 1800 में अररिया के नरपतगंज (पहले पूर्णिया जिला) में नाथनगर नाम की जगह थी। उस वक्त नरपतगंज से अपस्ट्रीम कोसी बहती थी और नाथनगर में एक बड़ा बाजार लगता था।
गजानन मिश्र कहते है, “सर्वेयर फ्रांसिस बुकानन ने सन् 1807 -1808 में नाथनगर के इस बाजार में मिलने वाली मछलियों की लिस्ट बनाई थी, जिसमें 131 मछलियों को उनके नाम के साथ दर्ज किया था। बुकानन ने इस इलाके को फिश ज्वैलरी कहा था। बाद में मैंने साल 2005 में सहरसा में अपनी पोस्टिंग के दौरान कोसी नदी के बलुआहा घाट पर मछुआरों की मदद से एक सर्वे किया था, जिसमें इन 131 में से सिर्फ 43 की पहचान मछुआरे कर पाए थे और सिर्फ 32 तरह की मछलियां उपलब्ध थी।”
बुकानन की सूची में कवई, सिंघी, पोठिया, मांगुर, गरैई, भुल्ला, मारा, बमच्छ, कोतरी, गरचुन्नी, कौआ, टेंगरा, सौरा, बीघट, गागर, गुर्ता, पतासी, चन्ना, लट्टा, कुरसा, चामर, हारा, पंसी, पनही, चचरा, भौरा, वामी, नैनी, बुआरी जैसी मछलियां के नाम है।
नॉन कल्चरेबल है स्थानीय मछलियां
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान से जुड़े और मिथिला यूनिवर्सिटी में साइंस फैकल्टी के डीन रह चुके प्रोफेसर एसके वर्मा ने मछली पर शोधपत्र लिखे हैं। वो बताते है, “भारत में दो तरह की मछलियां हैं, कल्चरेबल और नॉन कल्चरेबल। कल्चरेबल, जिसका मानवीय प्रयासों से पालन पोषण हो सकता है। इन कल्चरेबल मछलियों में तीन देसी मछलियां है – रोहू, कतला और नैनी। बाकी सभी देसी मछलियां नॉन कल्चरेबल हैं। स्थानीय मछलियों खासतौर पर मानव स्वास्थ्य के लिहाज से महत्वपूर्ण सिंघी और मांगुर को कल्चरेबल बनाने की कोशिश सेंट्रल इनस्टीट्यूट ऑफ फिशरिज ने की, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिल पाई।”
बिहार आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक साल 2017-18 में जहां मछली उत्पादन 5.87 लाख मीट्रिक टन था वो 2021 -22 में बढ़कर 7.62 लाख मीट्रिक टन हो गया है। राज्य के चौथे कृषि रोडमैप के मुताबिक राज्य में 8.02 लाख मीट्रिक टन मछलियों की सालाना डिमांड है, जो 2027-28 तक 9.91 लाख मीट्रिक टन हो जाने का अनुमान है। राज्य अपनी मछली की खपत आंध्रप्रदेश से मंगाकर पूरा करता रहा है जहां वॉटर टैंक में वैज्ञानिक तरीके से मछली उत्पादन किया जाता है।
आंध्रप्रदेश मॉडल अपनाने से मछलियों की प्रजातियां खत्म हुई
नारायण जी चौधरी बताते हैं,“आंध्रप्रदेश में वॉटर टैंक में कई लेयर्स बनाकर सेलेक्टिव ब्रीडिंग से मछली उत्पादन होता है, बिहार ने इसी मॉडल को अपने पारंपरिक तालाबों में लागू कर दिया। इस मॉडल में पहला काम है कि तालाब में मौजूद सभी नॉन प्रॉफिट चीज को खत्म करना। जिसके लिए बिहार के लोगों ने तालाब की पॉयजिनिंग (जहर डालना) करनी शुरू की, जिससे तालाब में मौजूद घोंघा, कछुआ, सितुआ, डोका, केकड़ा और मछलियों की प्रजाति खत्म हो गई।”
प्रोफेसर एसके वर्मा इसकी तीन वजह बताते है, “ एक्वॉटिक पॉल्यूशन , शहरीकरण के चलते मछलियों के प्राकृतिक प्रवास के क्षेत्रों में कमी और नदी या तालाब से अंधाधुंध तरीके से मछली पकड़ कर मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति। हम ये नहीं सोचते है कि मछली को कुछ समय के लिए छोड़ दिया जाए तो वो बच्चे देगी।”
पग-पग पोखर माछ मखान वाले मिथिला में स्वीमिंग पूल बने तालाब
बिहार के मिथिला इलाके के लिए मशहूर है- "पग पग पोखर माछ मखान" यानी मिथिला में थोड़ी थोड़ी दूर पर तालाब, मछली और मखाना मिलता है। स्थानीय मछलियों के संरक्षण के लिए मधुबनी जिले में ज्योतिरर्वेद विज्ञान संस्थान बीते दो साल से माछ (मछली) महोत्सव का आयोजन दीप नाम के गांव में कर रहा है।
आयोजन से जुड़े अमल झा बताते है कि पहले यहां 200 किस्म की स्थानीय मछलियां मिलती थी, लेकिन अब सिर्फ रेहू, कतला, नैनी, रेवा ही मिल पाती है। पहले कमला, कोसी, गंडक, बागमती में बाढ़ के साथ मछलियां आती थी, जो बहुत आसानी से मिल जाती थी, लेकिन अब तालाब की इकोलॉजी को कंट्रोल करके उसे स्वीमिंग पूल बनाकर मछली उत्पादन किया जा रहा है। साथ ही अब तालाब किराए पर लेकर मछली उत्पादन किया जाता है जिसमें ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना मुख्य मकसद है।”
मछली की उपलब्धता को लेकर फ्रांसिस बुकानन का किया गया सर्वे दिलचस्प है। गजानन मिश्र बताते है, “ बुकानन में पूर्णिया की पूरी जनसंख्या को 91 भाग में बांट दिया था। उन्होने अपने अध्ययन में पाया कि 91 में से 27 भाग ऐसे थे, जहां जब चाहे मछली पकड़ कर खा सकते थे, 27 ऐसे भाग थेे, जो हर सप्ताह हाट से तीन दिन मछली खरीदकर खा सकते थे और 27 भाग ऐसे थे जहां महीने में दो या तीन दिन ही मछली खा सकते थे। बाकी वैष्णव थे।”
नारायणजी चौधरी बताते है कि पहले मिथिला के एक -एक तालाब में 30 से 40 किस्म की मछली की प्रजाति मिलती थी। वो कहते है, “मछलियों की प्रजाति के महत्व को समझते हुए अंग्रेजों ने इसके संरक्षण के लिए इंडियन फिशरीज एक्ट 1897 कानून बनाया था, जिसमें पानी के स्रोत में जहर डालने पर 2 महीने की सजा या 200 रुपए के जुर्माना का प्रावधान था। लेकिन बिहार सरकार ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया। जबकि राज्य में इतनी नदियां है और एक बड़ी आबादी की संस्कृति ही मछली से जुड़ी है। मछली देखकर निकलना शुभ मानना, बहु दुरागमन में आती है तो मछली बनाकर खिलाती है, श्राद्ध कर्म में भी मछली खाई जाती है।”