बिहार:  समुदाय ने बनाया मोर गांव, सरकारी उदासीनता ने किया बंटाधार

आरण और माधोपुर गांव में स्थानीय लोगों की कोशिशों के चलते ही मोर गांव बने, लेकिन सरकार अपनी भागीदारी नहीं निभा पाई
बिहार के सहरसा के आरण गांव को मोर गांव के नाम से भी जाना जाता है। फोटो: बिपिन सिंह
बिहार के सहरसा के आरण गांव को मोर गांव के नाम से भी जाना जाता है। फोटो: बिपिन सिंह
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पुराने दिनों को याद करते ही जयमाला देवी की आंखे खुशी से खिल उठती है। वो बताती है, “रोटी बनाते रहते थे तो चले आते थे। कभी आटा नोंच के तो कभी रोटी ले भागते थे। उसको भगाने के लिए छोटी सी छड़ी पास में रखनी पड़ती थी। मेरी लड़की की आंख के ऊपर अपनी चोंच मार दी थी। जिस पर टांके लगे थे और अभी भी निशान हैं। बहुत बदमाश थे वो। अब तो कभी कभार ही आता है, पूरा गाछ (पेड़) आसपास वाला कट गया है।”

जयमाला ये बातें मोरों के बारे में कर रही हैं जो बीते 34 साल से उनके आंगन में आ रहे हैं। जयमाला बिहार के सहरसा के आरण गांव की है जो मोर गांव के तौर पर पूरे राज्य में मशहुर है। लेकिन गांव के कटते पेड़ और मोर को लेकर सरकारी उदासीनता ने गांव की इस पहचान पर संकट की रेखाएं खींच दी है।

आरण के मोर गांव बनने की कहानी बहुत दिलचस्प है। ये गांव बिहार के सहरसा जिले के सत्तरकटैया प्रखंड की विशनपुर पंचायत में है। मोर भारत का राष्ट्रीय पक्षी है और वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची 1 के तहत संरक्षित है।

आज की तरह ही, 1990 में भी बड़ी तादाद में यहां से पुरूष मजदूरी करने पंजाब जाते थे। इन्हीं में से एक मजदूर को गांव के ही अभिनन्दन यादव उर्फ कारी झा ने कहा कि वो पंजाब से मोर ले आए। दरअसल पंजाब के ऊधम सिंह के पास कई मोर थे, ये पता चलने पर कारी झा ने ऊधम सिंह से नर और मादा मोर मंगा लिया। 

जिस गुमनाम मजदूर को कारी झा ने ये जिम्मेदारी सौंपी थी वो टीन के कनस्तर में दो मोर रखकर पंजाब से ले आए। इसके बाद कारी झा के ही आंगन में मोर के लिए बाड़ा बनाया गया और उसे खाने के लिए चावल, मकई, रोटी, आटे की गोली दी गई। 

कारी झा की पत्नी जयमाला देवी बताती है, “ मई जून के वक्त में पहली बार मोर ने अंडे दिए थे, लेकिन वो बचे नहीं। बाद में फिर मोर ने अंडे दिए और उसके बाद तो गांव में जगह जगह उनके अंडे दिखने लगे। मोर की संख्या आंगन में बढ़ने लगी तो उसे अगल बगल की गाछ में छोड़ दिया। गांव वाले भी उनकी रक्षा करते थे तो मोर बढ़कर पांच सौ से ज्यादा हो गए। बाद में मुख्यमंत्री (नीतीश कुमार) आए तो इनसे (कारी झा) से मंच पर मिले।”

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इस गांव में दिसंबर 2016 में ‘निश्चय यात्रा’ के दौरान आए थे। यहां उन्होने गांव में मोर देखा और मोर पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म देखी थी। हालांकि उस वक्त छपी मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक नीतीश कुमार ने मोर के लिए किसी तरह का अभयारण्य बनाने की घोषणा से इंकार कर दिया था। 

मुख्यमंत्री के आने से पहले तत्कालीन डिवीजनल फॉरेस्ट ऑफिसर (डीएफओ) सुनील कुमार सिन्हा ने मई 2016 में पक्षी प्रेमी अरविंद मिश्रा से आरण गांव का फील्ड सर्वे और मोर के संरक्षण के लिए अनुशंसा मांगी। अरविंद मिश्रा, इंडियन बर्ड कंजरवेशन नेटवर्क के राज्य संयोजक है। पर्यावरण एवं वन विभाग को अरविंद मिश्रा ने जो रिपोर्ट सौंपी उसके मुताबिक, उनकी टीम ने गांव में दो से तीन घंटे बिताए। वो सिर्फ गांव का एक हिस्सा(मध्य हिस्सा) ही देख पाए जहां उन्होने 12 मोर देखे। 

राष्ट्रीय पक्षी मोर ने यहां सेमल, कटहल, आम और बांस के पेड़ों पर अपना बसेरा बनाया हुआ था। मोर आलू, मूंग, मटर, धान, गेंहू, मक्का, गोभी खाते थे, जिसको किसान खेती पर होने वाले खर्च का हिस्सा ही मानते थे।

तीन किलोमीटर के दायरे में फैले इस गांव के बारे में रिपोर्ट में लिखा है, “ मोर बहुत आजादी से लोगों के घर में चले जाते थे। वो घर में पली गाय भैंस के खाने की जगहों में जाकर खुद भी खाते रहते थे। आरण एक अच्छा उदाहरण है कि समुदाय की भागीदारी से पक्षियों को संरक्षित किया जा सकता है।”

यादव जाति बहुल इस गांव में अभिनन्दन यादव उर्फ कारी झा की पत्नी जयमाला देवी बताती भी हैं, “ ये (कारी झा) गांव वालों को कह देते थे कि मोर के अंडे का ध्यान रखिए या फसल बर्बाद करें तो मोर को नुकसान नहीं पहुचाएं। गांव वाले भी बात मानते थे तो मोर यहां अच्छे से पल गया।” 

आरण गांव के ही एक चौक पर सहरसा वन प्रमंडल का बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है कि मोर को संरक्षित करने में ग्रामवासियों का प्रयास सराहनीय है। 

आरण गांव के दिनेश यादव इस चौक पर बीते 25 साल से दुकानदारी कर रहे है। वो कहते है, “ हम लोग तो मोर को भगवान मानकर पूजा करते हैं। मोर जहां होगा, वहां सर्प नहीं होगा। लेकिन नीतीश कुमार आए और यहां से घूमकर चले गए। वन विभाग का भी वही हाल है। वो लोग वक्त वक्त पर आते रहते है, लेकिन मोर के लिए आज तक कुछ नहीं किया। सिर्फ इस बोर्ड को चमकाते रहते हैं।”

दिनेश जैसा गुस्सा आरण गांव के अन्य लोग भी डाउन टू अर्थ से जाहिर करते है। जैसा कि बोर्ड के पास खड़े रूपेश कुमार कहते है, “ हम लोग मोर देख देखकर बड़े हुए। गांव वाले ही जो करते है, वो करते है। राष्ट्रीय पक्षी की तरफ सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं। एक दिन बचा हुआ मोर भी सब खत्म हो जाएगा। जंगली जानवर मोर को खा ही रहा है।” 

डिवीजनल फारेस्ट ऑफिसर प्रतीक आनंद, सहरसा जिले के प्रभारी डीएफओ है। वह कहते हैं कि आरण गांव मोर के लिए बहुत अच्छा है, लेकिन हमें अब तक जमीन ही नहीं मिली है कि हम वहां पर मोर के लिए ब्रीडिंग सेंटर विकसित कर सके।

बिहार राज्य में मोर कॉरीडोर बनने की संभावनाएं है। साल 2016 में आरण जाने से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अप्रैल 2012 में पूर्वी चंपारण जिले के माधोपुर गोविंद गांव गए थे। ये गांव भी मोर की संख्या के चलते स्थानीय इलाके में मोर गांव के तौर पर मशहूर है। साल 2012 में ग्रामीणों का दावा था कि यहां 200 मोर है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने माधोपुर गोविंद के दौरे के वक्त वन एवं पर्यावरण विभाग को सर्वे और संरक्षण का निर्देश दिया था।

उस वक्त माधोपुर गोविंद में 10 से 13 मई के बीच हुए सर्वे में 70 मोर की गणना हुई थी। ये काम भी पक्षी प्रेमी अरविंद मिश्रा ने ही किया था। अरविंद मिश्रा कहते है, “ मैंने दो जगह आरण और माधोपुर में सर्वे करके रिपोर्ट सौंप दी थी, लेकिन इसके बाद कुछ हुआ नहीं। माधोपुर में 2016 तक मोर की संख्या बहुत घट गई थी और मैंने अपनी रिपोर्ट में चेताया था कि अगर आरण में जरूरी कदम नहीं उठाए गए तो वहां भी माधोपुर जैसा हाल होगा।”

माधोपुर और आरण दोनों ही गांव में स्थानीय लोगों की कोशिशों के चलते ही मोर गांव बसे। माधोपुर गोविंद जो फौजियों के गांव के तौर पर भी मशहूर रहा है, वहां स्थानीय लोग 1950 में सोनपुर मेले से मोर का जोड़ा खरीदकर लाए थे। 

अरविंद मिश्रा ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि समस्तीपुर के दलसिंहसराय के पास गढ़ सेसई नाम के गांव में भी मोर होने की सूचनाएं है। ऐसे में राज्य में इनकी गणना करके मोर कॉरीडोर तैयार किया जा सकता है।

मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में अप्रैल 2022 को राज्य की वन्यप्राणी परिषद की बैठक में राष्ट्रीय पक्षी मोर के संरक्षण पर विशेष ध्यान देने की जरूरत बताई गई ताकि उनकी संख्या में बढ़ोतरी हो सके। हालांकि सरकारी स्तर पर ऐसा कुछ होता दिख नहीं रहा है।

अभिनंदन यादव उर्फ कारी झा जिन्होनें आरण को मोर गांव बनाया वो अब अपने घर में बीमार पड़े हैं। वो दमे की बीमारी से जूझ रहे है और बहुत कम बोलते है। लेकिन अभी भी वो अपने आंगन में मोर देखकर किसी बच्चे की तरह चिंहुक उठते है। बदकिस्मती से, बिहार राज्य में दशकों से चली आ रही प्रशासकीय तानाशाही में ना तो अभिनंदन जैसे लोगों के लिए कोई सम्मान है और ना ही संरक्षित वन्यप्राणी मोर के लिए कोई लगाव। 

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