भारत में पिग्मी हॉग को बचाने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों में बड़ी सफलता मिली है। इसी का नतीजा है कि पिछले सप्ताह करीब एक दर्जन शूकरों को जंगल में छोड़ा गया है। इनमें करीब 7 वयस्क नर और 5 मादाएं हैं। पिग्मी हॉग दुनिया के सबसे छोटे सुअर हैं जोकि सुडाय परिवार से सम्बन्ध रखते हैं। 1960 में एक समय ऐसा था जब इस प्रजाति को विलुप्त मान लिया गया था।
यदि आईसीयूएन द्वारा जारी रिपोर्ट को देखें तो आज दुनिया भर में इस प्रजाति के केवल 100 से 250 वयस्क ही बचे हैं। जिनमें से ज्यादातर तो संरक्षण में हैं। यही वजह है कि इन्हें आईसीयूएन की रेड लिस्ट में संकट ग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखा गया है।
पिग्मी हॉग, जिनका वैज्ञानिक नाम पोर्कुला साल्वेनिया है, यह लंबे, गीले घास के मैदानों में पाए जाने वाले जीव हैं, जो भारत, नेपाल और भूटान में हिमालय की तलहटी में मौजूद मैदानी इलाकों में पाए जाते हैं। यह दुर्लभ जीव अपने आकार की वजह से प्रसिद्ध है जिसकी ऊंचाई करीब 25 सेंटीमीटर और लंबाई 65 सेंटीमीटर होती है, जबकि इसका वजन सिर्फ 8 से 9 किलोग्राम के बीच होता है।
1960 में इनकी आबादी इतनी कम हो गई थी कि इस जीव को विलुप्त मान लिया गया था। पर 1971 में जब भारत के पूर्वोत्तर राज्य असम में जब इन्हें फिर से खोजा गया तो तबसे इन्हें बचाने की कवायद शुरू हो गई थी। इन जीवों को उस समय ढूंढा गया था जब यह बरनार्डी वन अभ्यारण्य आग लगने के बाद पास के एक चाय बागान में छुपने की कोशिश कर रहे थे। 1993 तक यह जीव केवल असम के मानस राष्ट्रीय उद्यान के कुछ हिस्सों में ही देखे गए थे।
बढ़ती मानव गतिविधियों के चलते इनके आवास और आबादी को पहुंचा है नुकसान
इन्हें बचाने के लिए केंद्र, राज्य और कई संगठनो की मदद से 1995 में छह शूकरों के साथ पिग्मी हॉग संरक्षण कार्यक्रम शुरु किया गया था। जिसकी योजना इस जीव की आबादी को पुनर्जीवित करने की थी। इस बार संगठन ने 12 पिग्मी हॉग जंगलों में छोड़े हैं।
इससे पहले पिछले साल करीब 14 पिग्मी शूकरों को जंगल में छोड़ा गया था, जिससे वो अपनी आबादी बढ़ा सकें। इस समय इस केंद्र में करीब 70 पिग्मी हॉग हैं। जिन्हें संरक्षण में रखा गया है, जबकि यह संगठन अब तक करीब 142 पिग्मी हॉग को जंगलों में छोड़ चुका है।
विशेषज्ञों का कहना है कि बढ़ती मानव गतिविधियों जैसे कि बसावट और कृषि के चलते इन जीवों के आवासों को नुकसान पहुंचा है। साथ ही इन घास के मैदानों में लगने वाली आग और जीवों द्वारा उनकी चराई के कारण भी इनके आवास पर असर पड़ा है। ऊपर से प्रबंधन की कमी के चलते इनकी आबादी में गिरावट आई है जिससे इस प्रजाति का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। लेकिन एक बार जिस तरह से इन्हें बचाने का प्रयास किया जा रहा है उसे देखते हुए लगता है कि इस प्रजाति पर मंडराने वाला विलुप्त होने का संकट जल्द ही टल जाएगा।