जंगल के घरों की दीवारों से निकल कर शहरी कद्रदानों की बैठकी तक पहुंच गई है भील चित्रकारी

आदिवासी समुदाय के कुछ चित्रकार इस शैली को खत्म होने से बचाने के लिए पूरी दुनिया में इस कला को लोगों के बीच बांट रहे हैं, शांता भूरिया उनमें से एक है
जंगल के घरों की दीवारों से निकल कर शहरी कद्रदानों की बैठकी तक पहुंच गई है भील चित्रकारी
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जंगल और आदिवासी संस्कृति की प्रतिनिधि तस्वीर है मध्य प्रदेश का झाबुआ जिला। आदिवासी संस्कृति में अहम होती है वहां की चित्रकला। भील चित्रकारी आदिवासी कला-संस्कृति का वह अभिन्न हिस्सा है जो आज देश-दुनिया में जानी जाती है। आदिवासी समुदाय मिट्टी के घर की दीवारों को इससे सजाते हैं। इसलिए इस पेंटिंग के कथ्य में पूरी आदिवासी जीवनशैली ही उकेरी होती है। आदिवासी समुदाय के कुछ चित्रकार इस शैली को खत्म होने से बचाने के लिए पूरी दुनिया में इस कला को लोगों के बीच बांट रहे हैं। पहले प्राकृतिक रंगों का कैनवास मिट्टी की दीवारें होती थीं तो अब यह कागज और अन्य वस्तुओं पर उकेरा जा रहा है। शांता भूरिया कलाकार हैं जो भील पेंटिंग की परंपरा का आधुनिक उत्पादों के साथ कदमताल करा उसे बचाने को युद्धरत हैं। जंगल के घरों की दीवारों से निकल कर यह कला शहरी कद्रदानों की बैठकी तक पहुंच गई है। शांता भूरिया समझती हैं कि कोई कला तभी जीवित रह सकती है जब उसे नई पीढ़ी तक पहुंचाया जाए। आदिवासी खान-पान हो या चित्रकारी इनके कथ्य में पर्यावरण जागरुकता की कदमताल होती ही है। भील चित्रकारी के लिए समर्पित कलाकार शांता भूरिया से अनिल अश्विनी शर्मा की खास बातचीत

आपकी भील पेंटिंग की यात्रा कब शुरू हुई?

कहने के लिए तो मेरी यह कला यात्रा बचपन में शुरू हो गई थी। गांव के घरों की दीवारों पर मेरी मां इसे बनाती थी। उन्हें चित्र उकेरते देखना ही मेरे लिए इस कला का पहला स्कूल था। थोड़ी बड़ी होने पर इसकी बारीकियां सीखी।

आपकी भील चित्रकला की क्या खासियत है?

गौंड चित्रकला में रेखाओं का महत्व होता है, वहीं भील चित्रकारी में बिंदी का बहुत अधिक महत्व होता है। चित्रकारी का ज्यादातर हिस्सा बिंदी के माध्यम से ही उकेरा जाता है। कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि भील चित्रकारी बिंदुओं पर ही आधारित है।

भील चित्रकारी की विरासत को बचाने के लिए आपके क्या प्रयास हैं?

मैं चाहती हूं कि मेरे बाद भी आदिवासियों की यह भील चित्रकारी बची रहे। इसलिए मैंने पिछले 15 सालों में दर्जनों कार्यशाला कर युवाओं को इसे सीखने के लिए न केवल प्रेरित किया बल्कि उनको लगातार इस पेंटिंग की बारीकियां सिखाने की कोशिश में लगी रहती हूं।

हमारी कोशिश है कि हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को भील चित्रकारी सिखाएं क्योंकि कोई भी एक बार इसे सीख लेगा तो उसकी आजीविका का साधन अवश्य बन जाएगी। हमारी कार्यशाला में जो सीखने आते हैं, उनकी लगन देखकर हमेशा अच्छा लगता है। इन कार्यशालाओं में युवा बढ़-चढ़ कर भागीदारी करते हैं। कार्यशाला खत्म होने के बाद भी हमसे लगातार संपर्क बनाकर रखते हैं।

चित्रकारी करना तो उत्साहजनक है ही, इस कला को दूसरों को हस्तांतरित करने का भी अपना सुख है। मैं इस सुख को भरपूर जी रही हूं। कला के किसी भी रूप को संरक्षित करने के लिए ज्ञान का आदान-प्रदान अहम है। इसलिए मैं सेंधवा वन प्रभाग द्वारा आयोजित प्रशिक्षण सत्रों में लोगों को लगातार कला सिखाने के लिए तैयार हो गई। यह युवाओं को इस कला की ओर आकर्षित करने का प्रयास था।

आज की पीढ़ी मोबाइल और इंटरनेट से चिपकी हुई है। ज्यातार युवाओं में कलात्मक स्थिरता व संवेदनशीलता की कमी होती है। लेकिन मैं यह जरूर कहना चाहूंगी कि 15 से 40 वर्ष की आयु के प्रतिभागियों ने मुझसे भील पिथौरा कला सीखने में जो रुचि दिखाई, उससे मैं अभिभूत हूं। इस तरह के प्रयास ही कला को जीवित रखेंगे।

भील चित्रकारी में आपका पसंदीदा कथ्य क्या रहता है?

शुरू में तो मैंने पेंसिल से ड्राइंग करते हुए अपनी रचनात्मकता को पूरी तरह से मुक्त होने दिया। इसके बाद मैंने इस पेंटिंग की असली शैली को अपनाया यानी चित्रों में छोटे बिंदुओं का भरपूर प्रयोग करना। बिंदुओं का समुच्चय ही कथ्य तैयार करता है जो मेरी आस-पास से हासिल संवेदनाओं से जुड़ा होता है। मेरा मुख्य कथ्य तो प्रकृति ही है। मैं जब भी प्रकृति को कैनवास पर जीवंत करती हूं तो अपनी कल्पना में आए मोर को अलग तरह से चित्रित करने का प्रयास रहता है। मोर तो सबने देखा होता है। मेरा मन-मयूर कल्पनाशील होकर अलग ही मोर रचता है। हालांकि, मैंने अपनी मां से काफी कुछ सीखा है, फिर भी मेरे चित्रों पर मेरे देखे-सुने महसूसे का सबसे ज्यादा असर होता है।

आपकी चित्रकारी के साथ पारिवारिक सहयोग कितना रहता है?

चार बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी के साथ कलात्मक कल्पना की उड़ान भरनी होती है। जब वे स्कूल जाते हैं तब मैं दोपहर में पेंटिंग करती हूं। लेकिन मेरा परिवार, खासकर मेरे पति, मेरे काम में सहयोग कर रहे हैं। मेरी पेंटिंग दिल्ली और बेंगलुरु सहित कई शहरों में प्रदर्शित की गई है। अभी बड़ी संख्या में लोग मेरी पेंटिंग खरीदना चाहते हैं। उन को कभी निराश नहीं करती हूं।

आपकी भील चित्रकारी में पर्यावरण जागरुकता को लेकर भी संदेश रहता है। क्या इसे लेकर खास सजगता है ? देखिए चमकीले रंग मेरे चित्रों को हमेशा से विशिष्ट बनाते हैं, विशेष रूप से पेड़ और जानवर। इसे आप गहराई से समझें तो यह पर्यावरण जागरुकता फैलाने का सबसे अच्छा तरीका भी है।

आपकी भील चित्रकारी आदिवासी घरों से निकल कर हर जगह पहुंच चुकी है। अब पूरा देश इसे जानता है। आप इसे कैसे देखती हैं ?

भील चित्रकारी तो झाबुआ संस्कृति की जीवनरेखा थी, जहां मैं पैदा हुई थी। मैंने यह कला अपनी मां भूरी बाई से सीखी। उन्हें इस कला की सेवा के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया। मेरी मां के समय में त्योहारों और शादियों के दौरान ग्रामीण घरों की मिट्टी की दीवारों पर चित्रकारी की जाती थी। चिकनाई के लिए पहले गाय का गोबर उपयोग में लाया जाता था। साथ में कुचले हुए पत्तों और हल्दी के पेस्ट का उपयोग करके हम अपना पेंट बनाया करते थे। प्राकृतिक रंग हमेशा से मिट्टी की दीवारों को एक अनूठा आकर्षण प्रदान करते हैं। अब ऐसी मिट्टी की दीवारें मिलनी मुश्किल है। स्वाभाविक रूप से इसके कारण पेंटिंग लगभग गायब होने लगी। लेकिन यह अच्छी बात है कि इस कला ने कैनवास और कागज पर अपनी कला को उकेरने का रास्ता खोज लिया, वरना अब तक यह गायब हो चुकी होती। वर्तमान में मुट्ठी भर चित्रकार ही इस अनूठी कला को जीवित रखे हुए हैं। आज मेरे हाथ ब्रश पकड़ते हैं, वे कभी शारीरिक श्रम करते थे।

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