देशी प्रजातियों पर विदेशी हमला, भाग-दो: जंगली जानवरों को नहीं मिल रहा उनका प्रिय भोजन

आक्रामक पौधे तेजी से देसी घास की प्रजातियों की जगह ले रहे हैं, जिससे जानवरों के पसंदीदा भोजन की उपब्लधता में कमी आ रही है
फोटो:जयंता गुहा
फोटो:जयंता गुहा
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भारत के जंगल तेजी से आक्रामक विदेशी प्रजातियों से भरते जा रहे हैं, जिससे न केवल जंगल की जैव विविधता खतरे में पड़ गई है बल्कि जानवरों के मौलिक आवास स्थल शाकाहारी और मांसाहारी जीवों को पर्याप्त भोजन मुहैया कराने में नाकाम साबित हो रहे हैं। आक्रामक प्रजातियां देसी और मौलिक वनस्पतियों को तेजी से बेदखल कर जीवों को भोजन की तलाश में जंगल से बाहर निकलने को विवश कर रही हैं। इससे जीवों की खानपान की आदतें बदल रही हैं, साथ ही मानव बस्तियों में उनके पहुंचने से मानव-पशु संघर्ष भी तेज हो रहा है। नई दिल्ली से हिमांशु एन के साथ तमिलनाडु से शिवानी चतुर्वेदी, असम से अनुपम चक्रवर्ती, केरल से केए शाजी, कर्नाटक से एम रघुराम और उत्तराखंड से वर्षा सिंह ने जंगली जानवरों पर मंडरा रहे अस्तित्व के इस संकट का विस्तृत आकलन किया। इसे चार कड़ी में प्रकाशित किया जा रहा है। आज पढ़ें पहली कड़ी-  

र साल जैसे ही गर्मी दस्तक देती है, तमिलनाडु के नागरकोइल, केरल के वायनाड, कर्नाटक के बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान के हाथी भवानीसागर झील तक पहुंचने के लिए सत्यमंगलम बाघ अभयारण्य का गलियारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं। तमिलनाडु के नीलगिरी में स्थित यह झील पश्चिमी और पूर्वी घाट के बीच स्थित बाघ अभयारण्य से घिरी हुई है। गर्मी में पानी कम होते ही गलियारा हरी घास से भर जाता है। यह घास हाथियों को आकर्षित करती है।

जंगल में रहने वाले बड़े शाकाहारी जीव (मेगाहर्बिवोर्स) अपनी पोषण संबंधी आवश्यकताओं के लिए इन घासों पर निर्भर हैं। नीलगिरी में मुदुमलाई टाइगर रिजर्व के वन संरक्षक व फील्ड निदेशक डी वेंकटेश कहते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि जानवरों की इस पसंदीदा घास में भारी कमी आई है।

इसी तरह दक्षिण भारत से हजारों हाथी नदी किनारे उगी घास खाने के लिए कर्नाटक के काबिनी बैकवाटर में पहुंचते हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में इस स्थान पर बमुश्किल सौ हाथी देखे गए हैं। भारत में सभी वनों, संरक्षित क्षेत्रों और यहां तक कि बफर जोन के आवास जंगली शाकाहारी जानवरों के लिए मुख्य भोजन उपलब्ध कराने में विफल हो रहे हैं।

इसका कारण यह है कि आक्रामक पौधे तेजी से देसी घास की प्रजातियों की जगह ले रहे हैं, जिससे जानवरों के पसंदीदा भोजन की उपब्लधता में कमी आ रही है। वेंकटेश का कहना है कि राज्य के वन क्षेत्रों में आक्रामक विदेशी प्रजातियों में से एक प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा (विलायती कीकर) इस गलियारे में तेजी से घास की जगह ले रही है। कर्नाटक के कुवेम्पु विश्वविद्यालय के वन्यजीव और प्रबंधन विभाग के रिसर्च स्कॉलर कार्तिक चार्ली कहते हैं, “आक्रामक खरपतवार हाथियों की प्रिय घास को बढ़ने नहीं दे रही है और यह पूरे बैकवाटर घास के मैदान में फैल रही है।”

आक्रामक प्रजातियों के कारण भोजन की कमी का यह मुद्दा केवल दक्षिण भारतीय क्षेत्र और हाथियों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि भारत की सभी प्रजातियों और वन क्षेत्रों में इनका असर है। लगभग सभी जगह जंगली शाकाहारी जीवों को इनकी वजह से पर्याप्त भोजन नहीं मिल रहा है। चीतल, साही, भालू जैसे जंगली शाकाहारी जानवर एवं जल भैंस, गैंडा जैसे मेगाहर्बिवोर्स ही नहीं बाघ, तेंदुए, चीता जैसे मांसाहारी और भारतीय जंगलों में रहने वाले अन्य वन्यजीव समान रूप से खतरे में हैं।

कर्नाटक के पूर्व प्रिंसिपल चीफ कन्जरवेटर ऑफ फॉरेस्ट (पीसीसीएफ वन्यजीव) विनय लूथरा कहते हैं कि आक्रामक पौधों की प्रजातियां जंगली आम, जंगली कटहल, जंगली केला, काले बेर और जामुन जैसे वनीय पेड़ों पर भारी असर डाल रही हैं जो जानवरों, कृंतकों और वानरों (सिमियन) के भोजन के महत्वपूर्ण स्रोत हैं।

आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रभाव के बारे में बताते हुए एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन (एमएसएसआरएफ) के गिरिगन गोपी कहते हैं, “पश्चिमी और पूर्वी घाट में विदेशी आक्रामक पौधों की प्रजातियां जंगली जानवरों के भोजन स्रोतों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र का प्राकृतिक संतुलन बाधित हो रहा है।”

सितंबर 2023 में जारी सीएजी रिपोर्ट “परफॉर्मेंस ऑडिट ऑफ प्रोटेक्शन, कन्जरवेशन एंड मैनेजमेंट ऑफ वाइल्डलाइफ सैंक्चुरीज इन गुजरात” में कहा गया है कि आक्रामक प्रजातियां स्लॉथ भालू के लिए भी खतरा पैदा कर रही हैं। इसी वजह से गुजरात स्थित रतनमहल अभयारण्य की 2014-24 की प्रबंधन योजना ने स्लॉथ भालू की पोषण आवश्यकताओं को पूरा करने और उसके निवास स्थान को समृद्ध करने के लिए रोटेशन चराई को बढ़ावा देने और चारा प्रजातियों को उगाने के लिए सालाना 100 हेक्टेयर से आक्रामक प्रजातियों को हटाने की सिफारिश की है। इसी तरह राज्य के शूलपनेश्वर अभयारण्य की प्रबंधन योजना 2017-27 में जानवरों की आवास स्थितियां बेहतर करने के लिए आक्रामक पौधों का सफाया और फल, चारा व दुर्लभ, लुप्तप्राय प्रजातियों को लगाने का सुझाव दिया गया।

आक्रामक प्रजातियां शाकाहारी के अलावा मांसाहारी जानवरों के लिए भी खतरा हैं क्योंकि यह शिकार की उपलब्धता को सीधे तौर पर प्रभावित करती हैं। केंद्र सरकार द्वारा जनवरी 2022 में प्रकाशित चीता एक्शन प्लान रिपोर्ट के अनुसार, मध्य भारत में आक्रामक प्रजातियां तेंदुए की मौजूदा आबादी के लिए खतरा हैं।

भारत ने घास के मैदानों और विभिन्न प्रजातियों सहित खुले प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिए दक्षिण अफ्रीका व नामीबिया से लाए गए चीतों को सितंबर 2022 में मध्य प्रदेश के कुनो राष्ट्रीय उद्यान में छोड़ा था। रिपोर्ट में कहा गया है, “घास के मैदानों से प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, कैसिया टोरा, लैंटाना कैमारा, एग्रेटम कोनीजोइड्स और यूपेटोरियम जैसी खरपतवार प्रजातियों को खत्म करने के लिए निरंतर प्रयास किए जाएंगे। अकैसिया ल्यूकोफोलिया, विटेक्स नेगुंडो और ब्यूटिया मोनोस्पर्मा जैसी प्रजातियों द्वारा घास के मैदानों में अतिक्रमण एक अन्य खतरा है, जो घास के मैदानों को सीमित कर सकता है।

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