पशुओं और पौधों के लिए अपना आवास या पारिस्थितिकी बदलना आम है। लेकिन जब ये बेहद तेज गति से बढ़ने लगें तो जैविक हमला कहलाता है। यह तेजी लाभ के लिए मनुष्यों द्वारा इन्हें जानबूझकर भेजने या अनजाने में वैश्विक शिपमेंट के जरिए पहुंचने का नतीजा हो सकती है। आक्रामक प्रजातियां अपने मूल पारिस्थितिकी से दूर बहुत तेजी से फैलती हैं, अधिक क्षेत्रों को अपनी जद में लेती हैं और नए क्षेत्र में बदलाव कर देसी प्रजातियां को बेदखल कर देती हैं। यह जैविक हमला वैश्विक स्तर पर इस हद तक बढ़ गया है कि प्रकृति को नष्ट करने वाले पांच प्रमुख खतरों में शामिल हो गया है। इसके अतिरिक्त अन्य चार खतरे भूमि एवं समुद्र के उपयोग में परिवर्तन, जीवों का प्रत्यक्ष शोषण, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण हैं। धरती पर ऐसी कोई जगह नहीं बची है जो जैविक आक्रमण से अछूती हो। यह हजारों प्रजातियों को विलुप्ति की ओर ले जा रही है।
सितंबर 2023 में 140 सदस्य देशों वाले स्वतंत्र निकाय इंटरगवर्नमेंटल प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड ईकोसिस्टम सर्विसेस (आईपीबीईएस) ने विदेशी आक्रामक प्रजातियों और लोगों व जैव विविधता पर उसके प्रभाव पर एक आकलन जारी किया। “असेसमेंट रिपोर्ट ऑन इनवेसिव एलियन स्पीसीज एंड देयर कंट्रोल” नामक यह रिपोर्ट अब तक की सबसे विस्तृत रिपोर्ट है। इसे 49 देशों के 86 विशेषज्ञों ने साढ़े चार साल में करीब 13,000 अध्ययनों के गहन विश्लेषण के बाद जारी किया है। रिपोर्ट में चिंताजनक निष्कर्ष तथ्य निकाला गया है कि आने वाले समय में भी आक्रामक प्रजातियां नए क्षेत्रों में दखल बढ़ाती रहेंगी और प्रकृति पर इतना गहरा प्रभाव डालेंगी कि उसे दुरुस्त कर पाना संभव नहीं होगा।
मानव गतिविधियों ने करीब 37,000 आक्रामक प्रजातियों को पूरी दुनिया में फैला दिया है। हर साल 200 नई आक्रामक प्रजातियां सामने आ रही हैं। आकलन रिपोर्ट के अनुसार, “इन प्रजातियों में 3,500 ऐसी हैं जिनका नकारात्मक प्रभाव अध्ययन में साबित हुआ है। इन्हें आक्रामक विदेशी प्रजाति के तौर पर सूचीबद्ध किया गया है। आक्रामक मानी जाने वाली स्थापित विदेशी प्रजातियों का अनुपात वर्गीकरण समूहों के बीच भिन्न-भिन्न है, जो सभी पौधों के 6 प्रतिशत से लेकर सभी विदेशी अकशेरुकी जीवों में 22 प्रतिशत तक है।” रिपोर्ट की सह-अध्यक्ष हेलेन रॉय कहती हैं, “आक्रामक विदेशी प्रजातियां जैव विविधता के लिए एक बड़ा खतरा हैं। ये स्थानीय व वैश्विक प्रजातियों के विलुप्त होने सहित प्रकृति की अपरिवर्तनकारी क्षति का कारण बन सकती हैं। साथ ही मानव कल्याण के लिए भी खतरा पैदा कर सकती हैं (देखें, तिहरा बोझ,)।”
यह निष्कर्ष धरती के लिए अंतिम चेतावनी की तरह है। 2019 में आईपीबीईएस द्वारा पहली बार जारी “ग्लोबल असेसमेंट रिपोर्ट ऑन बायोडायवर्सिटी एंड ईकोसिस्टम सर्विसेस” रिपोर्ट के जरिए चेताया गया था, “मानव इतिहास में वैश्विक स्तर पर अभूतपूर्व दर से प्रकृति में गिरावट आ रही है और प्रजातियों के विलुप्त होने की दर दुनिया भर के लोगों पर गंभीर प्रभाव के साथ तेज हो रही है।” इसमें कहा गया है कि 10 लाख जानवरों और पौधों की प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं, जिनमें से हजारों के अगले कुछ दशकों में विलुप्त होने की आशंका है।
2019 की रिपोर्ट ने आक्रामक प्रजातियों से खतरे को चिह्नित किया था, लेकिन नवीनतम मूल्यांकन रिपोर्ट की तरह जोखिम का स्तर निर्धारित नहीं किया गया था। नई मूल्यांकन रिपोर्ट में कहा गया है, “आक्रामक विदेशी प्रजातियों ने 60 प्रतिशत दर्ज वैश्विक विलुप्तियों में अकेले या अन्य कारकों के साथ योगदान दिया है जबकि 16 प्रतिशत वैश्विक जानवरों और पौधों के विलुप्ति में अकेले इनका योगदान है।” रिपोर्ट में आगे कहा गया है, “मुख्य रूप से आक्रामक विदेशी प्रजातियों को जिम्मेदार ठहराई जाने वाली अधिकांश वैश्विक विलुप्तियां द्वीपों (90 प्रतिशत) पर हुई हैं। द्वीपों पर आक्रामक विदेशी प्रजातियों के प्रभावस्वरूप 9 प्रतिशत स्थानीय विलुप्तियां हुई हैं।” रिपोर्ट के सह अध्यक्ष एनिबल पौचार्ड कहते हैं कि कम से कम 218 आक्रामक विदेशी प्रजातियां 1,200 से अधिक स्थानीय विलुप्तियों के लिए जिम्मेदार हैं। देसी प्रजातियों पर जैविक आक्रमण के 85 प्रतिशत प्रभाव नकारात्मक होते हैं।
आक्रमण की कीमत
वर्ष 1500 में उपनिवेशवाद और वैश्विक व्यापार की मौटे तौर शुरुआत हुई थी। तभी से प्रजातियां विदेशी भूमि की ओर जा रही हैं और आक्रामक हो रही हैं। लेकिन वैश्विक व्यापार और बड़े पैमाने पर परिवहन प्रणालियों में वृद्धि के कारण पिछले 50 वर्षों में वैश्विक अर्थव्यवस्था के आकार में पांच गुना वृद्धि हुई है। इसी अवधि में आक्रामक प्रजातियों में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई। उदाहरण के लिए 1970 के बाद से 37,000 ज्ञात आक्रामक प्रजातियों में से एक तिहाई से थोड़ा अधिक दर्ज हैं। नवीनतम आईपीबीएस मूल्यांकन पूर्वानुमान के लिए संदर्भित वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चलता है कि भविष्य में यह दर अधिक होने वाली है। अनुमान है कि 2050 तक आक्रामक प्रजातियों की कुल संख्या 2005 की तुलना में 33 प्रतिशत अधिक होगी।
आक्रामक प्रजातियां न केवल स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र को बदल देती हैं, बल्कि जल, जीव विज्ञान और मिट्टी की सुरक्षा को भी प्रभावित करती हैं। इससे स्थानीय आजीविका कठिन हो जाती है, खासकर उन लोगों के लिए जो जीवनयापन के लिए पारिस्थितिक तंत्र पर निर्भर हैं। अनुमान है कि 2019 में ऐसे आक्रमणों से दुनिया को 423 बिलियन अमेरिकी डॉलर का भारी नुकसान हुआ। मूल्यांकन रिपोर्ट के मुताबिक, “इस नुकसान का अधिकांश हिस्सा (92 प्रतिशत) लोगों के लिए प्रकृति के योगदान या जीवन की अच्छी गुणवत्ता पर आक्रामक विदेशी प्रजातियों के नकारात्मक प्रभाव और शेष 8 प्रतिशत जैविक आक्रमणों के प्रबंधन व्यय से संबंधित है।”
1970 के बाद से हर दशक में आर्थिक कीमत चार गुना बढ़ गई है। अप्रैल 2022 में बायोलॉजिकल इनवेजन जर्नल में प्रकाशित अध्ययन “मैसिव इकॉनोमिक कॉस्ट ऑफ बॉयोलॉजिकल इनवेजंस डिस्पाइट वाइडस्प्रेड नॉलेज गैप्स: ए ड्यूल सेटबैक फॉर इंडिया” कहता है कि 1960 से 2020 तक छह दशकों के दौरान भारत को आक्रामक प्रजातियों के चलते कम से कम 127.3 से 182.6 बिलियन डॉलर का नुकसान पहुंचा है। यह कीमत मुख्यत: पहले से ही गरीब और वंचित आबादी द्वारा चुकाई गई है।
आईपीबीएस के आकलन में कहा गया है, “आक्रामक विदेशी प्रजातियां हाशिए पर पहुंचाने के साथ असमानता को भी बढ़ा सकती हैं। इसके दुष्प्रभावों में लिंगभेद और उम्रभेद भी शामिल हैं।” दुनियाभर में गरीब खराब वातावरण में रहते हैं जो विदेशी प्रजातियों से बुरी तरह प्रभावित हैं। मसलन, आईपीबीएस के आकलन से पता चलता है कि स्वदेशी समुदायों द्वारा उपयोग की जाने वाली भूमि में 2,300 से अधिक आक्रामक विदेशी प्रजातियां पाई जाती हैं।
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