अनिल अग्रवाल डायलॉग: वनों को गलत तरीके से चिन्हित और परिभाषित कर रहा है भारत

डाउन टू अर्थ के लिए वन सर्वेक्षण रिपोर्ट 2021 के विश्लेषण में सुनीता नारायण ने पाया कि लगभग 2.587 करोड़ हेक्टेयर वन कहां गए? यह पता लगाना चाहिए
सीएसई द्वारा आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग में वनों के सर्वेक्षण पर बात की गई। फोटो: विकास चौधरी
सीएसई द्वारा आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग में वनों के सर्वेक्षण पर बात की गई। फोटो: विकास चौधरी
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‘जहां एक ओर इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2021 (आईएसएफआर 2021) बता रही है कि भारत में वन आवरण का क्षेत्रफल बढ़ा है, वहीं दूसरी ओर वन सर्वेक्षण में दूसरी चीज दिखाई जा रही है।' ये बात सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के चार दिवसीय मीडिया कान्क्लेव, अनिल अग्रवाल डायलॉग 2022 में एमडी मधुसूदन और राष्ट्रीय जैव विज्ञान केन्द्र, बेंगलुरू में विज्ञान और इतिहास की संस्कृति के प्रमुख ओबेद सिद्दीकी ने कही। 

सुनीता नारायण का आकलन इस जांच पर केंद्रित था कि इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2021 इस बारे में विस्तार से क्यों नहीं बताती कि आकार में उत्तर प्रदेश के क्षेत्रफल के बराबर की वन भूमि पर क्या हो रहा है। उनके मुताबिक, ‘ देश के कुछ राज्य ऐसे हैं, जिनमें वन के तौर पर दर्ज भूमि का तीस से 35 फीसद हिस्सा ‘गायब’ के तौर पर दर्ज है।

उदाहरण के लिए मध्य प्रदेश में तीस लाख हेक्टेयर वन भूमि गायब है। ‘यह हमारे देश में वनों के कम होने की असली कहानी है, जिस पर हमें गहराई से चिंता करनी चाहिए।’

एएडी सत्र के अपने संबोधन में मधुसूदन ने महसूस किया कि यह गलत पहचान, वर्गीकरण और परिभाषा का प्रश्न है। उन्होंने कहा, ‘चाय के बागानों वाले राज्यों, नारियल के पौधारोपण और शहरों की आवासीय कॉलोनियों को, यहां तक कि मरुस्थल वाले ़क्षेत्रों को भी खुले वनों के तौर पर वर्गीकृत किया गया है।

वनों को वर्गीकृत करने में कोई तकनीकी बाधा नहीं है - हमारे पास विभिन्न प्रकार के वनों और वृक्षारोपण के बीच अंतर करने की तकनीकी क्षमता है। मेरा मानना है कि नारियल और चाय के बागानों को वन कहना, एक सचेतन फैसला है।’ 

उन्होंने इस बारे में आगे विस्तार से बताया, ‘ 2001 में आकड़ों को सटीक बनाने के प्रयास किए गए, लेकिन हुआ ठीक इसके उलट। इस्तेमाल में लाई गई परिभाषा के कारण, वन आवरण तेजी से बढ़ता हुआ दिखाया गया था, जबकि जमीन पर वन आवरण में कोई परिवर्तन या नकारात्मक परिवर्तन नहीं हुआ था।’

उनके मुताबिक, ‘अगर आप एक जंगल को काट कर चाय उगाते हैं, तो इसे अब वनों की कटाई नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह पहले जंगल था और बाद में भी जंगल है। हमने इस बदलाव को व्यक्त करने के लिए शब्दावली खो दी है - इसलिए यह जरूरी है कि इन श्रेणियों में अंतर किया जाए।’

नारायण आगे कहती हैं, ‘परिभाषा के तौर पर आधिकारिक तौर पर दर्ज वन-क्षेत्र के बाहर के वन-क्षेत्र में ऐसी जगह शमिल होती है, जहां गैर-वनीय पौधारोपण होता है। चूंकि वन की परिभाषा में कोई भी ऐसी जमीन शामिल होती है, जिसके दस फीसदी या उससे ज्यादा हिस्से में ट्री-कवर एरिया होता है, इसलिए बाहरी वन-क्षेत्र वाली जगहों में नारियल से लेकर सभी तरह का पौधारोपण शामिल किया जा सकता है, यहां तक कि चाय का बागान भी।’

दरअसल, 2019 से 2021 के बीच के आकलन के मुताबिक,देश का वन आवरण-क्षेत्र महज 0.2 फीसदी बढ़ा है और यह बढ़त भी ज्यादातर खुले वनों की वजह से हुई है। ये वन ऐसे हैं, जो आधिकारिक तौर पर दर्ज वन-क्षेत्र के बाहर की जमीन पर थे और जिनका ट्री-कवर एरिया 10 से 14 फीसद तक था।’

वह कहती हैं, ‘इस वक्त बहुत जरूरी मुद्दा यह है कि हम भविष्य की खातिर वनों के प्रबंधन के नए तरीके खोजें ताकि हम लकड़ी का इस्तेमाल भी कर सकें और पारिस्थितिक तौर पर संवदेनशील और नाजुक क्षेत्रों की सुरक्षा भी कर सकें।’

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