अनिल अग्रवाल डायलॉग 2025: शहरीकरण और विकास से बढ़ा मानव-वन्यजीव संघर्ष

विशेषज्ञों ने कहा, वन्यप्राणी और मनुष्यों के संघर्ष को कम करने के लिए नीति निर्धारकों को वाइल्ड लाइफ कॉरिडोर संरक्षित करने की जरूरत है
फोटो: विकास चौधरी
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विकास की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं और तेजी से बढ़ रहे शहरीकरण की वजह से जंगली जानवरों और इंसानों के बीच झड़पे बढ़ रही हैं, बल्कि जंगली जानवरों का प्राकृतिक आवास भी बदल रहा है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग के पहले दिन मानव-वन्यजीव संघर्ष के बारे में चर्चा करते हुए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ, इंडिया में प्रजाति संरक्षण विंग के प्रमुख डॉ. प्रणव चंचानी ने कहा कि शहरीकरण, भूमि के बदलते प्रयोग, जंगलों के घटते आकार और आसानी से उपलब्ध होने वाले आकर्षक आहार की वजह से वन्यप्राणी अपनी रिहायश में बदलाव कर रहे हैं।

खासकर हाथी और बाघों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा कि अब इन जीवों को ऐसे स्थानों में भी देखा जा रहा है, जहां वे पहले कभी नहीं दिखा करते थे।

उन्होंने कहा कि वर्ष 2006 तक जिन क्षेत्रों में बाघ देखे नहीं जाते थे, वहां 2018 के बाद बाघों को समूहों में देखा जा रहा है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि उत्तराखंड में 3,431 मीटर की ऊंचाई में बुरांश के जंगलों में भी बाघों को देखा गया है जो चौंकाने वाली बात है। डॉ. प्रणव ने कहा कि बदलते परिवेश में मनुष्यों के जंगलों में दखल और वन्य प्राणियों के मानव बस्तियों में दखल की वजह से मानव और वन्यजीवों के बीच संघर्ष बढ़ता देखा जा रहा है जिसके चलते हर साल कई लोगों की जानें भी जा रही हैं।

इसके अलावा उन्होंने कहा कि टकराव की इस स्थिति के बीच में एक नई चीज भी देखने को मिल रही है जहां दोनों वन्यप्राणी और मनुष्य धीरे-धीरे अब एक दूसरे के साथ मिलकर रहना भी शुरू कर चुके हैं। मानव-वन्यजीवों के बीच में संघर्ष की स्थितियों में सुधार के लिए उन्होंने सुझाव दिया कि सरकारों को वाइल्ड लाइफ कॉरिडोर को सुरक्षित करना चाहिए।

इस दौरान डाउन टू अर्थ पत्रिका के प्रबंध संपादक रिचर्ड महापात्रा ने खत्म होती प्रजातियों के प्रति चिंता जाहिर करते हुए कहा कि हर 24 घंटे में धरती पर मौजूद 27 प्रजातियां खत्म हो जाती हैं।

उन्होंने कहा कि एक वर्ष में 10 हजार से अधिक प्रजातियां खत्म हो रही हैं और इनकी विलुप्ति की दर बहुत तेज है। रिचर्ड महापात्रा ने कहा कि प्रजातियों के विलुप्त होने की गति उनकी प्राकृतिक दर से 1500 प्रतिशत अधिक है, जिसके बारे में हमें गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

जंगल और उनके बाहर पेड़ों के बारे में व्याख्यान देते हुए एटीआरईई बंगलुरू के डॉक्टोरल स्कॉलर अनिरबान रॉय ने कहा कि देश में जंगल के बाहर पेड़ों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है और इसमें देश के छह राज्य गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तेलंगाना, उड़ीसा और पंजाब बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।

उन्होंने कहा कि वर्तमान समय में जंगल के बाहर पेड़ों की जरूरत को महसूस किया जा रहा है। इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से कई योजनाएं भी ला जा रही हैं जिसके तहत किसान-बागवानों को कई तरह के लाभ देकर उन्हें पेड़ लगाने के लिए प्रेरित किया जा रहा है।

अनिरबान ने कहा कि जंगलों के बाहर तैयार हो रहे इन नए पेड़ों को नए तरीके से मैनेज करने और इन्हें और बढ़ाने के लिए नई पॉलिसी की भी जरूरत देखी जा रही है।

इसके अलावा डायलॉग के दौरान सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट में बायोडायवर्सिटी एंड फूड विंग की प्रमुख विभा वार्ष्णेय ने जैव-विविधता संरक्षण के क्षेत्र में देश और दुनिया में किए जा रहे कार्यों के बारे में विस्तृत जानकारी दी।

पहले दिन के अंतिम सत्र में केमिकल इन एनवायरनमेंट विषय पर इम्परी के विजिटिंग सीनियर फेलो, डॉ. डीएन रेड्डी और प्लैनेट ट्रैकर के वरिष्ठ निवेश विश्लेष्क रिचर्ड वेलचोस्की के साथ डाउन टू अर्थ की संवाददाता रोहिणी कृष्णमूर्ति ने विशेष चर्चा की।

चर्चा के दौरान विशेषज्ञों ने बताया कि ग्लोबल केमिकल आउटलुक की रिपोर्ट के अनुसार 2000 से 2017 के बीच विश्व भर में रसायनों का उत्पादन 1.02 बिलियन टन से बढ़कर 2.3 बिलियन टन हो गया है। रिपोर्ट में 2030 तक रसायनों का उत्पादन 2017 के आंकड़े से 2 गुना बढ़ने का अनुमान लगाया गया है।

वहीं 2020 में छपे एक शोध के अनुसार विश्व भर में 3,50,000 रासायन और उनके मिश्रण इस्तेमाल हेतु पंजीकृत हैं लेकिन इनमें से 1,20,000 (लगभग आधे के करीब) रासायनों के बारे में पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है क्योंकि कंपनियां गोपनीयता भंग होने का हवाला देकर या तो जानकारियां नहीं देती या फिर आधी अधूरी जानकारियां सामने रखती हैं। इसके अलावा नए रसायनों का उनके स्वास्थ्य पर हो रहे दुष्प्रभावों का आकलन किए बिना उन्हें रिलीज किया जाना वैज्ञानिकों के लिए भी एक चुनौती बनकर उभरा है।

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