जैसे-जैसे राष्ट्र अपनी सीमाओं पर सख्ती (कुछ मामलों में ठोस किलेबंदी) बरत रहे हैं, वैसे-वैसे अप्रवासियों के लिए मुश्किलें बढ़ रही हैं। हमारा यही जीनोफोबिया यानी विदेशियों को पसंद न करने का आचरण आक्रामक विदेशी प्रजातियों पर भी लागू होता है। इसी नजरिए का एक प्रतीकात्मक उदाहरण है हाल ही में दिल्ली सरकार द्वारा लिया गया एक निर्णय। दरअसल दिल्ली सरकार ने शहर के जंगलों से एक मजबूत पकड़ वाली दबंग प्रजाति विलायती कीकर (विदेशी बबूल) की पूरी तरह सफाई का निर्णय लिया है। पारिस्थितिकीविदों का कहना है कि यहां की देसी वनस्पतियों, खासकर अपनी ही देसी बिरादरी को दबाते हुए इसने राजधानी के लगातार घट रहे जंगलों के 80 प्रतिशत भाग पर एकाधिकार जमा लिया है।
वैज्ञानिक मानते हैं और निराशाजनक ढंग से उम्मीद करते हैं कि जंगलों से आक्रामक प्रजातियों की सफाई कर देने और विलुप्त हो गई मूल प्रजातियों को फिर से यहां लगा देने से जंगलों की व्यवस्था को नए सिरे से पुनर्जीवित किया जा सकेगा। जैसा कि विलायती कीकर या विलायती बबूल नाम से ही पता चलता है, यह मैक्सिको से आयातित पादप प्रजाति है, जहां इसे मेसकीट नाम से जाना जाता है। विज्ञानी इसे प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा के नाम से जानते हैं। यह प्रोसोपिस कुल की 44 ज्ञात प्रजातियों में से एक है। हजारों अन्य प्रजातियों की तरह यह भी ब्रिटिश साम्राज्य के सहारे दुनियाभर की विदेशी भूमि पर पसर गई। अंग्रेज 20वीं शताब्दी के आरंभिक दौर में ही इसे दिल्ली ले आए थे और यह जंगल की आग की तरह फैलती चली गई, क्योंकि यह सूखा जैसी त्रासद परिस्थितियों में भी अपना अस्तित्व बचा सकती थी। विडंबना यह कि इसके इसी गुण ने भूजलस्तर घटा दिया और यह कई देसी प्रजातियों के लिए जानलेवा साबित हुआ।
अब कोई विश्वासपूर्वक यह नहीं कह सकता कि इसको (विलायती कीकर) नायक माना जाए या खलनायक। 1970 के दशक में संयुक्त राष्ट्र जैसी अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों ने इसे करिश्माई पेड़ कहा था, जो बड़ी तेजी से बढ़ रहे उप-सहाराई अफ्रीका के रेगिस्तान को पूरी मजबूती से रोक सकता था। शुरू में इसकी तारीफों को देखते हुए इसके आकर्षण से खुद को बचाया नहीं जा सकता था। मसलन, कई और चीजों के अलावा लोग इसका उपयोग जलावन लकड़ी के तौर पर कर सकते थे, यह नाइट्रोजन का स्तर स्थिर बनाए रखकर मिट्टी की गुणवत्ता को सुधार सकता था और पक्षी इसमें अपने बसेरे बना सकते थे। इसलिए आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यह दो दशकों के भीतर ही भारत समेत दुनिया के कई सूखाग्रस्त क्षेत्रों के दृश्य पटल पर छा गया।
कई समुदायों के लिए यह व्यापार के साथ-साथ आजीविका का भी महत्वपूर्ण स्रोत बन गया। उदाहरण के लिए, भारत के राजस्थान और कच्छ जैसे सूखे क्षेत्रों में ग्रामीणों की जलावन लकड़ी का 75 प्रतिशत हिस्सा विलायती कीकर से आता है। भारत के तमिलनाडु और केन्या के कुछ भागों में कुछ उद्यमियों ने स्थानीय उद्योगों को कीकर की लकड़ी का चारकोल बेचकर एक नया लाभकारी व्यापार खड़ा कर लिया है। दक्षिण अफ्रीका में एक निजी कंपनी तो बबूल के बीजों को दवा के रूप में बेचकर मोटा मुनाफा कमा रही है। यह दवा रक्तशर्करा (ब्लड शुगर) के स्तर को स्थिर रखने के काम आने वाली बताई जाती है।
वैसे इसका यह अच्छा समय बहुत कम दिनों तक ही रहा। 2013 में अफ्रीका की विदेशी आक्रामक प्रजातियों पर आई पुस्तक में एक यूएनईपी (युनाइटेड नेशन एनवायरमेंट प्रोग्राम) के परामर्शदाता ने लिखा, “प्रोसोपिस की बहुप्रचारित प्रजातियां बहुत निर्मम रूप से आक्रामक आक्रांता में बदल चुकी हैं।” उसमें यह भी कहा गया कि यह प्रजाति जलस्तर को घटाकर और देसी प्रजातियों को नष्ट करके “नए हरे रेगिस्तान” तैयार कर रही हैं। असल में 2005 में एक केन्याई समुदाय ने खाद्य एवं कृषि संगठन तथा केन्या सरकार पर केन्या में बबूल लाने पर अभियोग चलाया था।
इसका नतीजा यह हुआ कि अभी तक जिसे “करिश्माई पेड़” कहा जा रहा था, वही अब “शैतानी वृक्ष” में बदल चुका था। अब दुनियाभर में इसे नष्ट करने का पागलपन छाया हुआ है। ऊहापोह भरे इस उलट-पुलट से कुछ बड़े तीखे सवाल उठते हैं। जैसे आखिर विदेशी आक्रामक प्रजातियों को हम कितना समझते हैं? पारिस्थितिकी तंत्र का जो नुकसान हो चुका है, क्या उसकी भरपाई हम अब किसी तरह से कर सकते हैं? विदेशी प्रजातियों के खतरनाक होने की धारणा अपेक्षाकृत नई है। 20वीं शताब्दी के आरंभ तक ज्यादातर संस्कृतियों के लिए ये विदेशी थे, लेकिन जब वैज्ञानिकों ने पारिस्थितिकी तंत्र के बारे में ऐसी मशीन की तरह सोचना शुरू किया, जिसमें हर देसी प्रजाति एक अनूठे पुर्जे की तरह फिट थी, तब ये प्रजातियां शिकार, शिकारी, परजीवी या मुर्दाखोर की तरह पहचानी जाने लगी।
दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इसे इस तरह से बांध दिया गया कि कोई बाहरी प्रजाति आसानी से जगह नहीं बना सकती। इस तरह अगर एक विदेशी प्रजाति किसी अज्ञात पारिस्थितिकी तंत्र में अपना बसेरा बनाने का प्रयास करता है तो यह एक देसी प्रजाति को हमेशा के लिए बाहर कर देने जैसा है। इस परिप्रेक्ष्य से देखने पर सभी विदेशी प्रजातियां, जैसा कि विज्ञान लेखक फ्रेड पियर्स अपनी विचारोत्तेजक कृति “द न्यू वाइल्ड” में कहते हैं, “तब तक दोषी ही हैं, जब तक निर्दोष न सिद्ध हो जाएं”। पियर्स का यह सिद्धांत इस बात के लिए प्रेरित करता है कि परंपरागत रहवासों को विदेशी प्रजातियों से मुक्त कराया जाए और उन्हें फिर से पहले जैसा बना दिया जाए। इनमें से जिन कुछ प्रजातियों को नामजद किया जा सकता है वे हैं, गैलापगोस द्वीपों पर बकरियां, न्यूजीलैंड पर सभी शिकारी प्रजातियां और दक्षिण अफ्रीका में आक्रामक वृक्ष।
लेकिन विदेशियों को बुरी और देसी प्रजातियों को अच्छी बताने वाली इस रूढ़ि को खारिज भी किया जाने लगा है। मिथक यह है कि प्रकृति तब तक स्थिर और संतुलित ही रहती है जब तक कि मनुष्य उससे छेड़छाड़ न करे। प्रकृति की इस योजना में विदेशी अपने आप ही अवांछित तत्व में बदल जाते हैं। जबकि अलग मत रखने वाले लोग मानते हैं कि प्रकृति में संतुलन जैसी कोई चीज है ही नहीं और इसीलिए विदेशी प्रजातियों से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। वास्तव में वे प्रकृति के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।
एक और पुराना मिथक यह भी है कि प्रकृति अपरिवर्तनीय है। लेकिन सच यह है कि जैसा कि ब्रिटिश लैंडस्केप इतिहासकार ऑलिवर रैकहम लिखते हैं, “लंबे समय से चल रही इंसानी गतिविधियों और प्राकृतिक हलचलों के कारण दुनिया के भूतल में बदलाव दिख रहा है। “एंथ्रोपोसीन युग में प्रकृति को इंसान से अलग करने वाली परंपरागत रेखा हमेशा के लिए धुंधली पड़ गई।
पोर्टो रीको में जिस तरह जंगल फिर से हरे भरे हो रहे हैं, वह एक बेहतरीन उदाहरण है। यहां कुछ कॉलोनी बनाने वालों ने स्थानीय लोगों की मदद से एक नया पारिस्थितिकी तंत्र विकसित किया है, जिसे आज की भाषा में लैंडस्केप्स कहा जाता है। हालांकि कई पाखंडी पारिस्थितिकी विज्ञानियों का मानना है कि ये नए पारिस्थितिकी तंत्र ही भविष्य के एंथ्रोपोसीन हैं।
विदेशी प्रजातियों पर नई सोच को देखते हुए विलायती कीकर को नष्ट करके दिल्ली के पारिस्थितिकी तंत्र के पुराने वैभव को लौटाने का सपना थोड़ा भ्रांति में डालता है। हालांकि हमें प्रकृति को अपनी आवश्यकताओं या सौंदर्यबोध या राजनीति के अनुकूल तैयार करना बिलकुल सही है, लेकिन हमें यह बात भी साफ तौर पर समझ लेनी चाहिए कि जैसा कि पियर्स ने अपनी एक कृति में हमें चेताया था, “जब हम ऐसा करते हैं तो यह हमारे लिए होता है, न कि प्रकृति के लिए, जबकि प्रकृति की जरूरतें हमसे बहुत अलग हैं।”