
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में विदेशी पौधों का बढ़ता प्रभाव – लगभग 10,000 विदेशी प्रजातियां मौजूद, द्वीप विशेष रूप से हॉटस्पॉट।
भारत में लैंटाना का फैलाव – पश्चिमी घाट में आदिवासी समुदायों की आजीविका प्रभावित, 3 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में कब्जा।
पारिस्थितिकी और मानव जीवन पर असर – मूल खाद्य पौधों की कमी से शाकाहारी कम, शिकारियों और लोगों के बीच संघर्ष बढ़ा।
जलवायु परिवर्तन और बढ़ते खतरे – आग, तापमान वृद्धि और सीओ2 बढ़ने से विदेशी पौधों का फैलाव तेज हुआ।
सकारात्मक समाधान और स्थानीय पहल – बड़े शाकाहारी जानवर और स्थानीय समुदायों द्वारा उपजीवी पौधों का प्रबंधन और उपयोग।
उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में विदेशी या उपजीवी पौधों का बढ़ता प्रभाव पारिस्थितिकी को बदल रहा है और स्थानीय लोगों के जीवन को भी प्रभावित कर रहा है। डेनमार्क के आरहस विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई है।
शोध के अनुसार, बड़े उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में लगभग दस हजार विदेशी पौधे पाए गए हैं। द्वीप विशेष रूप से इनवेशन हॉटस्पॉट हैं, जहां कई जगह विदेशी पौधे मूल पौधों से अधिक हैं। हालांकि ज्यादातर विदेशी पौधे समस्या नहीं पैदा करते। कई पौधे उनकी उपयोगिता और मूल्य के कारण लाए गए हैं, लेकिन केवल कुछ ही "उपजीवी" बनकर पारिस्थितिकी पर बुरा प्रभाव डालते हैं। इस अध्ययन को नेचर रिव्यु बायोडायवर्सिटी नामक पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।
भारत में लैंटाना का प्रभाव
भारत में लैंटाना कैमारा नामक विदेशी पौधे ने पश्चिमी घाट के जंगलों पर कब्जा कर लिया। इससे सोलिगा जैसे आदिवासी समुदाय अपनी पारंपरिक आजीविका छोड़ने को मजबूर हो गए। लैंटाना मूल रूप से ट्रॉपिकल अमेरिका का पौधा है, जिसे 1600 के दशक में यूरोप लाया गया और बाद में पुर्तगालियों ने इसे भारत में फैलाया। आज यह भारत में तीन करोड़ हेक्टेयर, ऑस्ट्रेलिया में 40 लाख हेक्टेयर और हवाई में 1.6 लाख हेक्टेयर भूमि पर फैल चुका है।
पारिस्थितिकी और मानव जीवन पर असर
उपजीवी पौधे मूल खाद्य पौधों को दबा देते हैं, जिससे हिरण और अन्य शाकाहारी प्राणी कम हो जाते हैं। इसका असर शिकारियों और स्थानीय लोगों पर भी पड़ता है। गरीब और पारिस्थितिकी पर निर्भर समुदायों में इससे मानव-वन्यजीव संघर्ष बढ़ता है और लोगों का प्रकृति के साथ संबंध बदल जाता है।
विदेशी व आक्रामक पौधों का इतिहास और कारण
विदेशी पौधों का परिचय कोई नई घटना नहीं है। यह कृषि के आरंभ से होता रहा है, लेकिन औपनिवेशिक काल और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वैश्विक व्यापार के कारण यह तेज हुआ। जंगलों के काटे जाने, प्रदूषण और भूमि उपयोग में बदलाव जैसे कारणों मने इन पौधों के फैलाव को बढ़ा दिया है।
जलवायु परिवर्तन का असर
जलवायु परिवर्तन से जंगल और सवाना कमजोर हो रहे हैं। अमेजन में आग, तापमान वृद्धि और जंगलों के काटे जाने से पेड़ मुरझा रहे हैं। विदेशी घास और झाड़ियां आग को बढ़ावा देती हैं और मूल पौधों की पुनर्जीवन प्रक्रिया रोकती हैं। कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) बढ़ने से कुछ झाड़ी और पेड़ तेजी से बढ़ते हैं, जिससे विदेशी पौधों को फायदा होता है।
सकारात्मक पहलू और प्रबंधन
सभी विदेशी पौधे खतरे का कारण नहीं हैं। कुछ पौधे पारिस्थितिक रूप से मददगार भी हो सकते हैं। शोधकर्ताओं ने "नेचर-बेस्ड सॉल्यूशंस फॉर बायोलॉजिकल इनोवेशन" की सलाह दी है, जिसमें बड़े शाकाहारी जानवर जैसे भैंस और हाथी प्राकृतिक रूप से इन पौधों के फैलाव को रोक सकते हैं।
कुछ जगहों पर स्थानीय लोग इन पौधों का उपयोग कर अपनी आजीविका सुधार रहे हैं। उदाहरण के लिए, लैंटाना से फर्नीचर और शिल्प बनाना, प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा से बायोचार और जलकुंभी से व्यावसायिक उत्पाद तैयार करना।
उपजीवी पौधे केवल खतरा नहीं हैं, बल्कि अवसर भी पेश करते हैं। उनके नकारात्मक और लाभकारी प्रभावों को समझना और स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर प्रबंधन करना, उष्णकटिबंधीय पारिस्थितिकी के लिए स्थायी समाधान है।