लगभग चार सौ साल पुराना पेड़ । फोटो: स्वस्ति पचौरी
लगभग चार सौ साल पुराना पेड़ । फोटो: स्वस्ति पचौरी

'ओक' की तलाश में...

अमेरिका के न्यूयॉर्क स्टेट के शहर इथका में एक 400 साल पुराने पेड़ की तलाश का सफर
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इथका (न्यूयॉर्क स्टेट, अमेरिका) पहुंचे हुए कुछ हफ्ते ही हुए थे इस बार सर्दी के मौसम में। हर तरफ बर्फ पड़ रही थी और सारे पेड़ एकदम बंजर। मैं सोच रही थी अभी कुछ ही महीने पहले तो इन पेड़ों ने यहां दिवाली मनायी थी। लाल, पीले, हरे, भूरे, रंगों से भरे पेड़। अब एकदम सूने-सूने, जैसे जीवन के अंतिम पड़ाव पर हों। न ही पत्तों की वो खिलखिलाहट न लहराना, एक दम शांत, चुप। स्थिर!  पतझड़ यही तो सिखाता है हमें कि कोई भी ऋतु आये, चाहे जीवन में कुछ भी हो जाए - आगे तो बढ़ना ही है!

जहां पतझड़ के पत्ते झड़ा करते हैं, वहां पर बसंत के फूल भी खिला करते हैं।

मैं रोज की तरह हाथ में चाय का फ्लास्क लिए कॉलेज को चल देती। सुन्दर नजारा होता। बर्फीली सड़क, बर्फ में जमा हुआ तालाब, और ऊपर नीला आसमान। जब धूप निकलती तो बर्फ शीशे की तरह चमक उठती। गुन-गुनी धूप, बर्फ और तालाब पर पड़ती और बर्फ के उन बंजर नजारों को फिर से जीवंत कर देती। कभी एक दम बर्फ गिरने लगती। कोई अपना छाता निकाल बचता, तो कोई किसी भी बिल्डिंग के अंदर प्रवेश कर अपने को ठण्ड से बचाता।

रह जाते बाहर तो सिर्फ हर मौसम में साथ देने वाले ये पेड़।

प्राचीन, पुराने, और पुरखों जैसे बूढ़े पेड़ हमेशा कितने प्रेरणादायक होते हैं। बचपन से ही मुझे प्राचीन और बूढ़े पेड़ों को देखने का, उनके पत्ते इकट्ठे करने का शौक है। कई बार जब किसी  कारणवश कोई पेड़ हटा दिया जाता तो मुझे बहुत दुःख होता। कॉलेज जाते हुए भी मैंने कई बार ऐसे पेड़ों को देखा, जिनका सिर्फ तना भर रह गया था। कितने पुराने रहे होंगे ये पेड़? न जाने इन पेड़ों ने क्या-क्या देखा होगा?

कितने छात्र-छात्राएं यहां से गुजरे होंगे, लेकिन ये बूढ़े पेड़ अभी भी यहीं है।

मानों हमारी रक्षा कर रहे हों। हमें आश्वासन दे रहे हों कि तो क्या हुआ कि तुम सब घरों से दूर परदेस में रह रहे हो? हम हैं न तुम्हारे साथ!

बर्फीले मौसम में जो बात सबसे ज्यादा विचित्र लगती वो थी 'पाइन' अथवा 'चीड़ के पेड़' जो इस मौसम में लम्बे, हरे भरे जमे हुए थे। इन्हे देख मन में प्रफुल्ल्ता होती। सड़क के एक तरफ बंजर पेड़ और दूसरी तरफ हरियाली।

इससे बेहतर सह अस्तित्व या 'कोएक्सिस्टेंस' का उदहारण तो हो नहीं सकता? मैं सोचती।

इन नजारों के बीच मुझे भारत के पेड़ों की बहुत याद आती। मैं अक्सर अपनी सोसाइटी के आम, नीम, पीपल के पेड़ों की यादों में खो जाती। उनको याद करती। देखते-देखते वे भी तो बूढ़े हो चले थे। और उन्होंने भी तो मुझे बड़े होते देखा था।

दिल्ली के मंडी हाउस के आम और सुन्दर बैंगनी रंग के फूलों वाले जरुल के पेड़। सेंट्रल दिल्ली के अमलतास, गुलमोहर, और जामुन के पेड़। मेरे कॉलेज के परिसर के विशाल अशोक और बरगद के पेड़। इन पेड़ों ने भी न जाने कितना जीवन देखा है। लोगों की हंसी-खुशी, दुःख-दर्द, उनका आना, बिछड़ जाना - ये प्राचीन पेड़ इन सब भावनाओं के साक्षी हैं और फिर भी किसी से कुछ नहीं कहते, शान्त एकटक देखते रहते हैं।

चाहे जीवन का कोई भी मौसम हो।

एक दिन मैंने लाइब्रेरी से एक किताब ली, जो कि इथका के स्थानीय पेड़ों और उसकी वनस्पति के बारे में थी। इस किताब में कम्युनिटी गार्डनिंग और तमाम बहुत से उपयोगी विषयों पर  निबंध थे, तस्वीरों के साथ। पढ़ते-पढ़ते एक पन्ने पर नजर पड़ी जिस पर एक 400 साल पुराने 'सफेद ओक' का उल्लेख था। मैंने पढ़ा कि कैसे यह ओक का वृक्ष इतने सालों से यहां खड़ा है। इसके अलावा उसके बारे में अन्य बोटैनिकल एवं वनस्पति शास्त्र से सम्बंधित बातें लिखी गयी थीं।

मैंने सोचा, अब इस ओक की तलाश में निकलूंगी और ढूंढूंगी कि कहां है यह पेड़! आमतौर पर पुराने पेड़ मुझे अपनी और आकर्षित करते हैं, लेकिन यह पेड़ कैसे मिस हो गया? मैंने सोचा।

लाइब्रेरी से बाहर निकली तो देखा ठण्ड बढ़ी हुई थी। यहां का मौसम है ही ऐसा। पल भर में धूप और अगले ही पल बारिश, फिर बर्फ। यह भी भला कोई मौसम है। और चलो ठीक है अगर ऐसा मौसम है भी तो - ऑटो क्यों नहीं चल सकते यहां? या फिर रिक्शा ?

दिल्ली में तो कहीं भी बैठ कर चल देती थी। लोधी गार्डन और लोधी रोड पर कितनी बार पुराने पेड़ों को, बोगनविलिया के झाड़ों को निहारा हैं। अनगिनत बार कितने प्राचीन मंदिरों में जाकर वहां के पीपल, नीम, आंवला के पेड़ों के फोटो लिए हैं और चांदनी चौक में तो सैकड़ों बार बरगद के विशाल वृक्षों  की तस्वीरें ली हैं।

न जाने कितने पुराने पेड़ थे वे। क्या अब भी होंगे वहां? यह सोचते-सोचते मैंने छाता खोला और घर की ओर चल दी।

यहां के रास्ते थोड़े ऊबड़ -खाबड़, ढलान वाले थे, क्योंकि हर एक कोने में कोई न कोई तालाब या फिर झरना है। तो रास्ता पथरीला, ऊपर-नीचे ढलान वाला है लेकिन बेहद खूबसूरत भी है। चलते फिरते रास्ता तय हो जाता है। फिर सड़क पर अन्य प्रोफेसर, छात्र भी दिखते हैं तो उनसे भी हौसला मिलता है चलते रहना का, फिर चाहे बर्फ पड़ी हो या तूफान आ रहा हो।

अगले दिन मैंने गूगल मैप पर उस जगह का पता डाला जहां यह विशालकाय ओक था।

मैंने चलना शुरू किया । फिर दोबारा गूगल इमेजेज पर जाकर बार-बार उसकी फोटो देख के याद किया कि आखिर यह पेड़ दिख कैसे रहा है? बर्फ वैसे है, तो पहचानना मुश्किल होगा क्योंकि पत्ते तो पेड़ पर होंगे नहीं।

सोचते-सोचते चलती रही। बीच में थोड़ी बहुत घास दिखाई देने लगी थी। बसंत आने-आने को था। कुछ चीजें इसका संकेत भी दे रही थीं। जैसे छोटे-छोटे बर्फ पर उगने वाले 'स्नोड्रॉप्स' के सफेद फूल। बर्फ के बींचो-बीच यह फूल बेहद ढाढस बनाने वाले होते हैं और एक उम्मीद सी जगाते हैं कि सर्दी से डरो नहीं बसंत पास ही है। फिर थोड़े सफेद, पीले नरगिस भी बस खिलने-खिलने को ही थे, उनकी लम्बी हरी पत्तियां बर्फ के बीचों-बीच इस बात का संकेत देती थीं।

मैं चलते हुए ढलान वाली 'लिब स्लोप' पर पहुंची। 'लिब स्लोप' उस चौराहे का नाम था जहाँ सड़क के दोनों तरफ दो बड़ी लाइब्रेरीज स्थित थीं। इधर भी बहुत से पेड़ थे, मगर किसी पर न तो कोई पत्ता और न ही कोई बोर्ड जो संकेत दे कि भई वो 400 साल पुराना पेड़ यहीं कहीं हैं। फिर कैंपस के बारे में पढ़ा था कि 7000 से ज्यादा पेड़ हैं, तो कोई ढूंढे़ भी तो कैसे?

मैंने फिर से गूगल पर ढूंढ़ा। मैंने सोचा कि क्या पता पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए संस्थाओं ने कोई बोर्ड लगाया हो, जिस पर इस बूढ़े ओक के बारे में कुछ लिखा गया हो ताकि और लोग इसको देखने आएं?

लेकिन फिर याद आया कि कैलिफ़ोर्निया में जो सबसे पुराना पेड़ जिसको 'मेथुसेलाह पेड़' के नाम से जाना जाता है वो तकरीबन 5000 साल पुराना है। उसको संस्थानों ने गुप्त रखा है, ताकि उसको कोई क्षति न पहुंचा सके। ऐसा कई बार किया जाता है, ताकि पर्यटक इन पेड़ों की प्राचीन विरासत को नुक्सान न पहुंचाए और यह ऐसे ही जीते जाएं। जाहिर सी बात है जब पेड़ बूढ़े हो जाते हैं तो सरकारों को उनकी देखभाल भी परस्पर करनी पड़ती है।

ओक की तलाश में गोते लगाते- लगाते मुझे अपने मध्य प्रदेश के दिनों का भी एक किस्सा याद आया। फील्ड-वर्क करते, आते-जाते हम अक्सर एक जगह चाय पीने रुक जाते थे। यहां पर एक 500 से भी अधिक साल पुराना विशाल वट वृक्ष था जिस पर प्रशासन ने लाल और सफेद पेंट लगाकर उसको चिन्हित किया हुआ था और बाकायदा बोर्ड लगा कर यह भी गुहार लगायी थी कि इस पेड़ को किसी भी तरह का नुक्सान न हो। इस पेड़ की जटाएं खूब लम्बी थीं और विराट इतना जैसे किसी ने शाखाओं से और पत्तों से मंडप ही बना दिया हो! इस वृक्ष की टहनियों पर कई रस्सी से झूले भी लटके थे। इस वटवृक्ष को देख मैंने छत्रछाया शब्द का वास्तविक अर्थ जाना था।  

इस बीच मैंने गूगल पर फिर से ओक की फोटो देखी। इस बार मैंने देखा कि सफ़ेद ओक जिसकी तलाश में मैं निकली थी उसकी दाहिनी और एक बड़ी, झुकी हुई शाखा है। मैंने बस इसी दृश्य को याद कर लिया और आगे चलने लगी।

थोड़ी दूर कुछ पुराने से पेड़ दिखाई देने लगे थे। मैं इस जगह आ भी पहली बार रही थी तो मुझे इस इलाके का इतना अंदाजा नहीं था। चलती गयी और फिर थोड़ी दूर पर एक  विशाल, पुराने तने वाला पेड़ दिखा। फोटो चेक की लेकिन मायूस हो गयी।

प्राचीन पेड़ों की स्मृतियों के बीच मुझे भारत में घर के पास के एक शनिदेव मंदिर की याद आयी। यहां पर भी एक बहुत विराट वट वृक्ष था। लोग अक्सर इस पेड़ के तने को छू कर जाते और अपना प्रणाम कहते। एक बार एक अंकल किसी से कह रहे थे कि कैसे अगर हम इन पुराने पेड़ों को स्पर्श करते हैं, और इनको प्रेमपूर्वक संबोधित करते हैं तो इनका जीवन और बढ़ जाता है, और ऐसा करने से हमारे पूर्वज भी खुश होते हैं। पेड़ों को कभी नुक्सान नहीं पहुँचाना चाहिए, गर्मी में इनको मटके से पानी देना चाहिए, ऐसा करने से वे हमें गर्मी की मौसमी आपदाओं से बचाते हैं। हमारा संरक्षण करते हैं।

उनकी बातें सुनकर मैंने अपने पोस्ट ग्रेजुएशन में पढ़े हुए कुछ विषयों को याद किया। पेड़ों की पूजा भी कितनी संस्कृतियों में होती है। प्राचीन काल से ही भारत के पवित्र उपवनों को ख़ास महत्ता दी जाती है।

मैं चलती जा रही थी। ढलान भी ऊपर नीचे। सांस भी चढ़ने लगी थी। क्योंकि लगातार तकरीबन एक घंटे से चल रही थी। आसपास नजरें घुमाते हुए देखती रही। अब ये बूढ़े वृक्ष भी मेरे मन में आदर सम्मान के भाव को निरंतर जगाते हैं। इतने दिनों घर के आसपास चलने से यहां के सभी पेड़ मेरे हर मौसम के साथी ही बन गए थे।

मैं इनका अक्सर शुक्राना करते हुए निकलती थी। मुझे लगता ये सभी पेड़, पौधे, जीव, जंतु, यहां मेरे जैसे तमाम उन लोगों का साथ देने के लिए ही तो हैं जो यहां अकेले, अपने घरोंदो से दूर घर की तलाश में रहते हैं। यह सभी, हमें वही आशीर्वाद देने के लिए हैं, जो यदि हमारे पूर्वज ज़िंदा होते तो दिया करते।

सूरज ढलने लगा था। आसमान में लालिमा और नीलिमा दोनों ही थीं। अचानक पीछे चर्च की मनमोहक घंटी बजी। मैं मुड़ी, घूमी तो पाया कि एक विशाल पेड़ मेरे सामने खड़ा है। उसकी दाहिनी शाख थोड़ा धरती की तरफ झुकी हुई सी लगती है, जैसे धरती को स्पर्श कर रही हो। उसकी विशाल टहनियां ऐसे लगता है जैसे पूरे कैंपस को गले से लगा कह रही हों और आश्वासन दे रही हों कि "मैं सदैव यहां तुम्हारे लिए हूं ।"

मैंने मुसकुराते हुए उसके तने को छुआ, आसमान की ओर देखा, और घर की और चल दी। 

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