कैरेबियन सागर में मौजूद पिलर कोरल रीफ और मछलियों; फोटो: आईस्टॉक
कैरेबियन सागर में मौजूद पिलर कोरल रीफ और मछलियों; फोटो: आईस्टॉक

पिलर कोरल्स की आबादी में आई 80 फीसदी की गिरावट, इंसानी हस्तक्षेप बनी वजह

इंसानी हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के चलते मूंगे की खूबसूरत प्रजाति पिलर कोरल पर भी विलुप्त होने का खतरा मंडराने लगा है। पता चला है कि 1990 के बाद से इनकी आबादी में 80 फीसदी की गिरावट आई है
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पर्यावरण पर बढ़ता इंसानी हस्तक्षेप यूं तो सभी जीवों लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है, लेकिन कुछ के लिए यह कहीं ज्यादा बड़ा संकट बन चुका है। इन्हीं जीवों में से एक समुद्रों में मिलने वाले मूंगें की एक खूबसूरत प्रजाति पिलर कोरल भी शामिल है। पता चला है कि 1990 के बाद से इनकी आबादी में 80 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है।

यही वजह है कि प्रकृति के संरक्षण के लिए काम कर रहे संगठन इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने भी इसे अपनी रेड लिस्ट में गंभीर रूप से खतरे में पड़ी प्रजातियों में शामिल किया है। इस बारे में हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट से भी पता चला है कि यदि ऐसा ही चलता रहा तो जल्द ही यह प्रजाति विलुप्त हो सकती है।

पोर्ट्समाउथ विश्वविद्यालय सहित विशेषज्ञों की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने इस पर किए अपने अध्ययन में पाया है कि बढ़ती इंसानी गतिविधियों के चलते समुद्री प्रजातियां गंभीर खतरे का सामना कर रही हैं।

इस बारे में एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर और आईयूसीएन एसएससी कोरल स्पेशलिस्ट ग्रुप से जुड़े रेड लिस्ट के समन्वयक डॉक्टर बेथ पोलिडोरो का कहना है कि पिलर कोरल, अटलांटिक महासागर में गंभीर रूप से संकटग्रस्त के रूप में रेड लिस्ट में सूचीबद्ध 26 कोरल में से एक हैं। जहां करीब आधी कोरल प्रजातियों पर जलवायु परिवर्तन और अन्य खतरों के चलते विलुप्त होने का संकट मंडरा रहा है।

गौरतलब है कि आईयूसीएन एसएससी कोरल स्पेशलिस्ट ग्रुप ने समुद्र की सतह के तापमान में होती वृद्धि के साथ-साथ एंटीबायोटिक्स, ओवरफिशिंग, उर्वरकों और सीवेज के प्रभावों का भी अध्ययन किया है। पता चला है कि बढ़ते तापमान के चलते कोरल ब्लीचिंग की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसके साथ ही इन घटनाओं ने पिछले चार वर्षों में पिलर कोरल्स की आबादी को तबाह कर दिया है।

पता चला है कि इन कोरल्स के लिए सबसे बड़ा खतरा स्टोनी कोरल टिश्यू लॉस डिजीज है, जो 2014 में उभरी थी और अत्यधिक संक्रामक बीमारी है। कोरल्स की यह बीमारी हर दिन तकरीबन 90 से 100 मीटर रीफ को संक्रमित कर रही है।

ऐसे में डॉक्टर बेथ पोलिडोरो का कहना है कि, "ये खतरनाक परिणाम समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र पर जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों को दूर करने के लिए वैश्विक सहयोग और कार्रवाई की तात्कालिकता पर जोर देते हैं।"

जानकारी मिली है कि आईयूसीएन रेड लिस्ट में शामिल 42,108 प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इनमें मूल्यांकन किए गए 17,903 समुद्री जीवों और पौधों में से 1,550 समुद्री प्रजातियों पर विलुप्ति के खतरे के बादल मंडरा रहे हैं।

समुद्री जीवों के लिए बड़ा संकट बन चुका है जलवायु परिवर्तन

रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन से कम से कम 41 फीसदी संकटग्रस्त समुद्री प्रजातियों पर असर पड़ा है। इसके कारण डगोंग जिसे आमतौर पर समुद्री गायों के रूप में जाना जाता है, उसके साथ ऐबालोन कर्णसीप जैसी प्रजातियां भी हमेशा के लिए गायब हो सकती हैं।

हाल ही में अंतराष्ट्रीय स्तर पर प्रवाल भित्तियों पर किए एक शोध से पता चला है कि यदि वैश्विक उत्सर्जन में होती तीव्र वृद्धि जारी रहती है तो अगले 28 वर्षों में करीब 94 फीसदी प्रवाल भित्तियां खत्म हो जाएंगी|  हालांकि रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया है कि उम्मीदें अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई हैं। हमारे पास अभी भी इन प्रवाल भित्तियों को बचाने का समय है, पर वो समय बहुत तेजी से हमारे हाथों से निकला जा रहा है|

वहीं यदि आरसीपी 2.6 जलवायु परिदृश्य के तहत देखें तो अनुमान है कि सदी के अंत तक 63 फीसदी प्रवाल भित्तियों में वृद्धि जारी रहेगी, लेकिन देखा जाए तो यह तभी मुमकिन होगा जब उत्सर्जन में कटौती की जाए जिससे वैश्विक तापमान में होती वृद्धि को कम किया जा सके|

देखा जाए तो कोरल भित्तियों का कंकाल कैल्शियम कार्बोनेट से बना होता है, समुद्रों में जिस तरह से अम्लीकरण बढ़ रहा है वो इन भित्तियों में कंकाल को विकसित करने की क्षमता को प्रभावित कर रहा है। इसका असर उनके विकास पर भी पड़ रहा है| नतीजन समुद्र में बढ़ते अम्लीकरण के साथ इन प्रवाल भित्तियों के बढ़ने की क्षमता भी खतरे में पड़ गई है

वहीं हिन्द महासागर में मौजूद प्रवाल भित्तियों पर जर्नल नेचर सस्टेनेबिलिटी में छपी एक अन्य रिसर्च से पता चला है कि अगले 50 वर्षों में पश्चिमी हिंद महासागर में मौजूद सभी प्रवाल भित्तियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार ऐसा वैश्विक तापमान में होती तीव्र वृद्धि और मछलियों के जरूरत से ज्यादा किए जा रहे शिकार के कारण हो रहा है।

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