परागण की कमी के चलते फल, सब्जियों, बादाम और अखरोट जैसे कड़े छिलके वाले फलों के उत्पादन में पांच फीसदी तक की गिरावट आ रही है। शोधकर्ताओं ने जानकारी दी है कि यह गिरावट हर साल और 427,000 लोगों की जान ले रही है। रिसर्च के मुताबिक यह मौतें स्वस्थ भोजन को होते नुकसान और उनसे होने वाली बीमारियों जैसे हृदय रोग, स्ट्रोक, मधुमेह, और कैंसर आदि के चलते हो रही हैं।
हार्वर्ड टीएच चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के नेतृत्व में किया गया यह अपनी तरह का पहला अध्ययन है जिसमें परागणकों के मानव स्वास्थ्य पर पड़ते असर को समझने का प्रयास किया गया है। इस अध्ययन के नतीजे जर्नल एनवायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव्स में प्रकाशित हुए हैं। अनुमान है कि अपर्याप्त परागण के चलते वैश्विक स्तर पर कुल फल उत्पादन में जहां 4.7 फीसदी, सब्जियों के 3.2 फीसदी और नट्स के कुल उत्पादन में 4.7 फीसदी की गिरावट आ रही है।
इस बारे में शोध से जुड़े प्रमुख शोधकर्ता सैमुअल मायर्स का कहना है कि जैव विविधता को लेकर होती चर्चाओं में एक जो मानव स्वास्थ्य से जुड़ा अहम हिस्सा है वो सीधे सम्बन्धी की कमी के चलते हमेशा ही नदारद रहा है। ऐसे में यह शोध इस बात को स्पष्ट करता है कि परागणकों को होता नुकसान स्वास्थ्य को भी बड़े पैमाने पर प्रभावित कर रहा है।
रिसर्च के मुताबिक प्राकृतिक प्रणालियों पर बढ़ते इंसानी दबाव से जैव विविधता को भारी नुकसान हो रहा है। इसमें कीटों की आबादी में हर साल आ रही एक से दो फीसदी की गिरावट भी शामिल है। इन कीटों में परागणकर्ता प्रजातियां भी शामिल हैं, जो फसल की करीब तीन-चौथाई किस्मों की पैदावार को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। देखा जाए तो परागण करने वाले यह जीव फल, सब्जियों और नट्स जैसे स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थों की पैदावार के लिए मायने रखते हैं।
रिसर्च के मुताबिक भूमि उपयोग में आता बदलाव, जलवायु परिवर्तन और कीटनाशकों का बढ़ता उपयोग इन परागणकर्ताओं के लिए बड़ा खतरा हैं। जो पोषण से भरपूर खाद्य पदार्थों के उत्पादन की आपूर्ति को खतरे में डाल रहा है। इसी को देखते हुए हाल ही में मॉन्ट्रियल में सम्पन्न हुए कॉप 15, संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन में भी 30 फीसदी भूमि और जल क्षेत्र को संरक्षित करने का लक्ष्य रखा गया है।
शोधकर्ताओं ने एक मॉडल की मदद से यह भी समझने का प्रयास किया है कि अपर्याप्त परागण के कारण फसल को कितना नुकसान पहुंचा है। इसकी मदद से परागणकों पर निर्भर फसलों और उनकी उपज पर पड़ते प्रभावों का आंकलन किया गया है।
इसके बाद वैज्ञानिकों ने वैश्विक जोखिम और बीमारी मॉडल का उपयोग करके इसके स्वास्थ्य पर पड़ते प्रभावों का अनुमान लगाने का प्रयास किया है। निष्कर्षों से पता चला है कि परागण में बदलाव देश में खाद्य सुरक्षा और मृत्यु दर को प्रभावित कर सकता है। साथ ही शोधकर्ताओं ने परागण में गिरावट से होते आर्थिक नुकसान की भी गणना की है।
अपर्याप्त परागण से किसानों की आय पर भी पड़ रहा है व्यापक असर
शोध के जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके अनुसार जहां अपर्याप्त परागण से खाद्य उत्पादन में आई गिरावट कम आय वाले देशों में केंद्रित थी, वहीं इसका स्वास्थ्य पर सबसे ज्यादा बोझ मध्यम और उच्च आय वाले देशों में दर्ज किया गया है। इन देशों में गैर-संचारी रोगों की दर अधिक है।
वैश्विक पर्यावरण में आते बदलावों से स्वास्थ्य पर पड़ता प्रभाव दक्षिण एशिया और उप-सहारा अफ्रीका जैसे देशों में केंद्रित हैं जहां कमजोर आबादी इससे सबसे ज्यादा त्रस्त है। इसका सबसे ज्यादा बोझ मध्यम आय वाले देशों जैसे भारत, चीन, इंडोनेशिया और रूस झेलना पड़ रहा है।
विश्लेषण से यह भी पता चला है कि कम आय वाले देशों ने अपर्याप्त परागण और कम पैदावार के चलते अपनी महत्वपूर्ण कृषि आय खो दी है, जोकि उनकी कुल कृषि मूल्य का 12 से 31 फीसदी हिस्सा है।
जर्नल वन अर्थ में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन से पता चला है कि परागणकों में आ रही है गिरावट के चलते करीब 90 फीसदी जंगली पौधों का अस्तित्व खतरे में है। इतना ही नहीं यह नन्हें जीव दुनिया की करीब 85 फीसदी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण फसलों के लिए भी बहुत मायने रखते हैं।
गौरतलब है कि परागण करने वाली यह मधुमखियां और अन्य छोटे कीट दुनिया के करीब 35 फीसदी खाद्य उत्पादन में अपना योगदान देते हैं। इतना ही नहीं शोधकर्ताओं के मुताबिक दुनिया भर में करीब 200 करोड़ छोटे किसानों की पैदावार के लिए इन छोटे जीवों द्वारा प्रदान की जा रही सेवाएं विशेष रूप से मायने रखती हैं।
ऐसे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता मैथ्यू स्मिथ का कहना है कि जंगली परागणकर्ताओं को बचाने की रणनीति न केवल पर्यावरण बल्कि स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था से भी जुड़ा मुद्दा है। ऐसे में इन परागणकर्ताओं को बचाने के प्रयासों में दी गई ढील न केवल प्रकृति बल्कि इंसानी स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचा सकती है।