एक ही भारतीय चीज ऐसी है जो गांव-शहर, गरीब-अमीर में बंटे सभी लोगों के बीच फैली है। वह है मानसून, जिसे हम हर वर्ष देखने के लिए बेसब्री से इंतजार करते हैं। तापमान का चढ़ना और मानसून का पहले दस्तक देना, यह हर वर्ष बिना किसी बाधा के होता है। किसान बहुत ही बेसब्री से इसका इंतजार करते हैं क्योंकि उन्हें नई फसल की बुआई के लिए समय पर बारिश चाहिए। शहर के प्रबंधकों को भी मानसून का इंतजार होता है क्योंकि हर वर्ष मानसून की शुरुआत से पहले उनके जलाशय खाली होते हैं और शहर की जलापूर्ति सामान्य से कम होती है। हम सब भी इंतजार करते हैं, इसके बावजूद कि हम वातानुकूलित कमरों और घरों में दुबके रहते हैं। बारिश हमें झुलसा देने वाली धूप और धूल से राहत दिलाती है। यह शायद ऐसा समय होता है जब पूरा देश एक तरह की मायूसी में होता है, बारिश होने तक सांसे थमी होती हैं।
लेकिन जब मैं यह लिख रही हूं, कई तरह के सवाल मेरे दिमाग में आ रहे हैं। आखिर हम कितना इस अवधारणा के बारे में जानते हैं, जो हर एक भारतीय के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। क्या हम वाकई जानते हैं कि बारिश क्यों होती है? क्या आपको पता है कि वैज्ञानिक खुद मानसून की परिभाषा को लेकर लड़ रहे हैं। उनके पास एकमात्र परिभाषा है जो कि एक मौसमी पवन पर आधारित है। यह पवन एक निश्चित दिशा में जब बहती है तो मानसून आता है। जैसे ही यह पवन अपना रास्ता बदलती है वे भौचक्के रह जाते हैं।
क्या हम जानते हैं कि हमारा मानसून एक वैश्वीकृत अवधारणा है? सुदूर प्रशांत महासागर की समुद्री जलधाराएं हों या फिर तिब्बत के पठार का तापमान, यूरेशिया की बर्फ यहां तक कि बंगाल की खाड़ी का ताजा पानी, मानसून इन सभी से जुड़ा है और एकीकृत है। क्या हम यह भी जानते हैं कि भारतीय मानसून वैज्ञानिक इस अप्रत्याशित और विविधता वाले मानसून का ठीक से पीछा करने के लिए कितनी तल्लीनता से अध्ययन कर रहे हैं? शायद नहीं जानते। हमने स्कूल में कुछ विज्ञान पढ़ा था लेकिन असल जिंदगी में कभी नहीं। यह उपयोगिता वाले ज्ञान का हिस्सा नहीं है। हम यह सोचते हैं कि आज हमारी इस दुनिया को बचाए रखने के लिए जानने की बेहद जरूरत है, लेकिन हम गलत हैं। भारतीय मानसून के बारे में एक बड़े जानकार और बुजुर्ग, जो अब दुनिया में नहीं हैं, पीआर पिशोरती ने बताया था कि सालाना घटने वाली इस घटना के तहत सिर्फ 100 घंटों में समूची बारिश हो जाती है। जबकि एक वर्ष में कुल 8765 घंटे होते हैं।
इसका मतलब है कि यह हमारी चुनौती है कि हम इस बारिश का प्रबंध किस तरह से करें। पर्यावरणविद अनिल अग्रवाल ने मानसून की इस घटना के बारे में विस्तार से बताया था कि कैसे प्रकृति इस काम के लिए अपने केंद्रित बल के बजाए कमजोर बल का इस्तेमाल करती है। जरा सोचिए तापमान का छोटा सा अंतर 40,000 अरब टन पानी समुद्रों से उठा कर पूरे भारत के हजारों किलोमीटर में गिरा देता है। प्रकृति के इस अनूठे ज्ञान से बेवाकिफ रहना ही आज के पर्यावरणीय संकट का मूल है।
इसे समझिए : हम कोयला और ईंधन जैसे केंद्रित ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसकी वजह से स्थानीय वायु प्रदूषण और वैश्विक जलवायु परिवर्तन जैसी समस्याएं पैदा हो रही हैं। यदि हम प्रकृति के रास्ते को समझें तो हम प्रकृति के ही कमजोर ऊर्जा स्रोतों का इस्तेमाल कर सकते हैं। जैसे सौर ऊर्जा और वर्षा के पानी का इस्तेमाल। हमें इंतजार नहीं करना चाहिए कि पानी बहकर नदियों और जलाशयों तक जाए। अग्रवाल अक्सर कहा करते थे कि बीते 100 वर्षों में मानव समाज केंद्रित जल स्रोतों जैसे नदियों और जलाशयों के इस्तेमाल पर ज्यादा आश्रित हुआ है। इसका अत्यधिक इस्तेमाल अत्यधिक दोहन को बढ़ाएगा। वह जोर देते थे कि 21 शताब्दी में मानव को एक बार फिर कमजोर जल स्रोतों जैसे बारिश के पानी का इस्तेमाल करने की ओर बढ़ना होगा। यदि दूसरे लफ्जों में कहें तो जितना ज्यादा हम मानसून को समझेंगे उतना ज्यादा हम समावेशी विकास को समझेंगे।
एक और प्रश्न है मेरे पास : क्या हम यह भी जानते हैं कि मानसून के बिना कैसे जीवित रहा जाए? मैं एकदम निश्चित हूं कि आपने यह तर्क भी जल्द ही सुना होगा कि हम विकसित होंगे और हमें मानसून की बिल्कुल जरूरत नहीं रहेगी। यहां आपको स्पष्ट कर दें कि यह किसी भी समय और जल्दी नहीं होने जा रहा। आजादी के इतने वर्षों बाद और सतह पर सिंचाई के लिए सोचनीय निवेश के बाद भी बड़ी संख्या में किसान पानी को लेकर चिंतित हैं। इसका आशय है कि किसान इस मनमौजी और गैरभरोसेमंद देवता की दया पर निर्भर हैं। लेकिन यह पूरी तस्वीर नहीं है। 60 से 80 फीसदी सिंचित क्षेत्र भू-जल पर निर्भर है। इस भू-जल को दोबारा इस्तेमाल करने के लिए बारिश के जरिए रीचार्ज करने की जरूरत होती है। इसलिए भी बारिश चाहिए। यही कारण है कि हर वर्ष जब मानसून केरल से कश्मीर या बंगाल से राजस्थान की ओर बढ़ता है और कहीं रुक जाता है तो हमारे दिल की धड़कनें थम जाती हैं या मंद पड़कर रुक भी जाती हैं। न्यून दबाव क्षेत्र और डिप्रेशन जैसे शब्द संग्रह भारतीय शब्दकोश का ही हिस्सा हैं।
मानसून सही मायने में अब भी भारत का वित्त मंत्री है। इसलिए, मैं मानती हूं कि मानसून पर निर्भरता खत्म करने की चाह के बजाए हमें हमें मानसून का उत्सव मनाना चाहिए और उसके साथ अपने संबंधों को और गहरा करना चाहिए। हमारे मानसून कोश को भी जरूर विस्तार लेना चाहिए ताकि हम जहां भी और जब भी बारिश हो तो उसकी हर एक बूंद को इस्तेमाल में ला सकें। यह हमारा एक राष्ट्रीय जुनून होना चाहिए। बारिश की हर एक बूंद का मोल हमें समझना होगा। हमें अपने भविष्य को पानी पर निर्भरता के आधार पर बनाना होगा। चेक डैम, झील, कुएं, तालाब, घास और पेड़ हर चीज बारिश के पानी को समुद्र में जाने से रोक सकती है, उसके सफर को धीमा बना सकती है।
यदि हम ऐसा कर पाए तो हमारे अंतिम और दर्दभरे सवाल का जवाब शायद मिल जाए। हमें अपने शहर और मैदानों में बारिश का उत्सव कैसे मनाना चाहिए? आज जब बारिश नहीं होती है तो हम रोने लगते हैं। हम तब भी चिल्लाने लगते हैं जब बारिश की वजह से बाढ़ और बीमारियां आती है। शहरों में ट्रैफिक जाम होता है। जरा भयानक जल संकट और सालाना आने वाली बाढ़ का चक्र देखिए। इसमें 2016 की बाढ़ को भी शामिल करिए, जब भारत ने हाल-फिलहाल के वर्षों की सबसे वीभत्स बाढ़ देखी है। बदलाव सिर्फ तभी मुमकिन है जब हम दोबारा हर वर्ष गिरने वाले पानी के इस्तेमाल की कला सीख जाएं। मानसून हम सभी का हिस्सा है, अब हमें इसे वास्तविक बनाना होगा।
जारी रहेगा…