भूजल जांच की बड़ी योजना

भारत ने 3 साल के ठहराव के बाद भूजल में यूरेनियम का पता लगाने के लिए सबसे बड़ा अभियान शुरू करने का संकेत दिया
भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर की योजना 2019 तक  1.2 लाख भूजल नमूनों की जांच करने की है  (अक्षय देशमाने / सीएसई)
भाभा एटोमिक रिसर्च सेंटर की योजना 2019 तक 1.2 लाख भूजल नमूनों की जांच करने की है (अक्षय देशमाने / सीएसई)
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भारत ने भूजल में यूरेनियम प्रदूषण की जांच करने की अब तक की अपनी सबसे महत्वाकांक्षी योजना शुरू कर दी है। जांचों की इस श्रृंखला की शुरुआत भाभा एटोमिक एंड रिसर्च सेंटर (बीएआरसी) द्वारा वर्ष 2014 में की गई थी जो बीच में धीमी पड़ने के बाद हाल के महीनों में फिर से गति पकड़ चुकी है। इस योजना का लक्ष्य वर्ष 2019 के अंत तक 1.2 लाख नमूनों की जांच करना है। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) भी इस योजना में सहभागी है। हालांकि मार्च 2018 तक केवल 10,000 नमूनों की ही जांच हो पाई।

हालांकि बीएआरसी ने इस प्रोजेक्ट के बारे में अधिक जानकारी नहीं दी है लेकिन यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि हाल ही में प्रकाशित कई रिपोर्टों के अनुसार, भारत के भूजल में यूरेनियम प्रदूषण का स्तर चिंताजनक है। देश के पेयजल का कुल 85 प्रतिशत हिस्सा इसका शिकार है।

मई में अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने सीजीडब्ल्यूबी, राजस्थान ग्राउंडवाटर डिपार्टमेंट और गुजरात वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन के साथ मिलकर बताया कि राजस्थान और गुजरात में उनके द्वारा जांच किए गए 324 कुओं में से एक चौथाई से अधिक में यूरेनियम का स्तर डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित 30 माइक्रोग्राम प्रति लीटर के स्तर से अधिक था। एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलोजी लेटर्स नामक पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट ने पहले प्रकाशित हुए 68 अन्य शोधों की जांच में पाया कि देश के 16 राज्यों में यूरेनियम प्रदूषण की समस्या है।

सीजीडब्ल्यूबी में वैज्ञानिक और ड्यूक विश्वविद्यालय की रिपोर्ट के शोधार्थियों में से एक एसके श्रीवास्तव कहते हैं कि हालांकि यूरेनियम एक प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला रसायन है लेकिन इस प्रदूषण के लिए मानवजनित कारण भी जिम्मेदार हो सकते हैं। वह लगातार गिरते भूजल स्तर और उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। रिपोर्ट ने उर्वरकों के प्रयोग से होने वाले नाइट्रेट प्रदूषण और भूजल में बढ़ते यूरेनियम प्रदूषण में सहसम्बन्ध दर्शाए हैं।

बीएआरसी के एक सूत्र का कहना है कि 0.8 प्रतिशत नमूनों में तो यूरेनियम की मात्रा 600 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक पाई गई है। हालांकि उन्होंने यह भी जोड़ा कि इस आधार पर पूरे देश के बारे में अनुमान लगाना गलत होगा क्योंकि इस स्तर का प्रदूषण केवल कुछ ही नमूनों में पाया गया है।

किसी भी और रसायन की ही तरह, भूजल में यूरेनियम का पाया जाना अच्छा संकेत नहीं है। बीएआरसी की चालू योजना ऐसा ही एक कदम है जो खतरे की इन रिपोर्टों को ध्यान में रखते हुए उठाया गया है। हालांकि केंद्र कभी-कभी ऐसी आशंकाओं पर अपनी प्रतिक्रिया देता है लेकिन इस मामले में अनदेखी ही हुई है। 2012 में संसद में अपने जवाब में केंद्र सरकार ने दावा किया था कि पेय जल में यूरेनियम का कैंसर से कोई सम्बन्ध नहीं है। केंद्र ने अपने उत्तर में कनाडा और फिनलैंड में हुए शोधों का हवाला दिया था जहां पेय जल में अधिक मात्रा में यूरेनियम पाए जाने के बावजूद बीमारियों में कोई इजाफा नहीं हुआ है।



इन ताजा जांचों से मिले आंकड़ों के दूरगामी प्रभाव होंगे। पहला, यह अपने प्रकार की पहली इतनी व्यापक जांच है और इससे देश में यूरेनियम प्रदूषण की असली स्थिति का अंदाजा होगा। दूसरा, इससे एक ऐसा रोडमैप बनाया जा सकेगा जिससे भूजल स्रोतों में यूरेनियम प्रदूषण को कम करने की दिशा में नीतियां बनाई जा सकें।

केंद्र ने भूजल में यूरेनियम पाए जाने से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को नजरअंदाज किया है जिसके फलस्वरूप हमारे देश में यूरेनियम के लिए केवल रेडियोधर्मी विषाक्त्तता के मानक निर्धारित किए गए हैं, रासायनिक विषाक्त्तता के नहीं। और हमारे लिए वह मानक भी 60 माइक्रोग्राम प्रति लीटर है जो कि एटॉमिक एनर्जी रेगुलेटरी बोर्ड द्वारा निर्धारित किया गया है। यह संस्था एक राष्ट्रीय विनियामक बोर्ड है जो आणविक स्रोतों से होने वाले स्वास्थ्य सम्बन्धी खतरों से लड़ने के लिए बनाया गया था। यह डब्ल्यूएचओ मानक का दोगुना है।

ऐसा तब है जब शोध यह दिखा चुके हैं कि रासायनिक विषाक्त्तता रेडियोधर्मी विषाक्तता से अधिक खतरनाक है। इंदौर स्थित गैर लाभकारी संस्था कैंसर फाउंडेशन के दिग्पाल धारकर बताते हैं, “अगर निर्धारित मात्रा से ज्यादा यूरेनियम वाला पानी लम्बे समय तक पिया जाए तो उससे थायरायड कैंसर, ब्लड कैंसर, अवसाद और अन्य खतरनाक बीमारियां होने की आशंका होती है। कुछ शोधों ने यूरेनियम के लगातार, अत्यधिक अंतर्ग्रहण और किडनी की क्रोनिक बीमारियों में सम्बन्ध होने के संकेत दिए हैं।

जर्मनी के बावेरिया शहर में पेय जल में यूरेनियम का स्तर 40 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक मापा गया है। शोधार्थियों की एक टीम ने यूरेनियम की इस बढ़ी हुई सांद्रता को ट्यूमर, लिवर और थायरायड की बीमारियों से जोड़ा है। यह सम्बन्ध हल्का किन्तु महत्वपूर्ण है। यह शोध वर्ष 2017 में इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरमेंटल रिसर्च ऐंड पब्लिक हेल्थ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

सीजीडब्ल्यूबी के चेयरमैन केसी नायक का कहना है कि अगर बीएआरसी का शोध भारत में यूरेनियम प्रदूषण की व्यापकता को साबित करता है तो संभव है ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स भी पेयजल में यूरेनियम की अधिकतम मात्रा के कुछ मानक निर्धारित करे। वह बताते हैं कि अब तक ऐसा नहीं हो पाया है क्योंकि यूरेनियम सांद्रता में वृद्धि एक लगातार हो रही प्रक्रिया है।

उनके अनुसार स्वयं सीजीडब्ल्यूबी भी अपनी 16 प्रयोगशालाओं में नियमित रूप से यूरेनियम की जांच करने वाला है। उनके अनुसार, “हम सितम्बर में बीएआरसी के साथ एक मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग पर हस्ताक्षर करने वाले हैं जो प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण से संबंधित होगा।” बीएआरसी 2019 तक यह यह काम पूरा कर पाए, इसकी सम्भावना कम ही नजर आती है। ऐसे में सरकार पेयजल में यूरेनियम से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को लेकर कब गंभीर होगी?

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