आंध्र प्रदेश के अमरावती में कृष्णा नदी किनारे पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू के जरिए बनवाए गए प्रजा वेदिका (शिकायत हॉल) को जिस बिजली की गति के साथ तोड़ने की कार्रवाई हुई है क्या वह कृष्णा नदी के लिए एक नई उम्मीद जगाता है? संभवत: यह सियासी तौर पर पहली बार है कि जब पर्यावरणीय हवाले से किसी ताकतवर नेता के भवन को तोड़ने की विद्युत गति से कार्रवाई हुई है। अब सवाल है कि क्या यह आदेश सभी नदियों और उनके अतिक्रमण वाले हिस्सों पर लागू होगा? उससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या नई राजधानी अमरावती को नए आधुनिक मानकों पर बसाने के लिए जिस भारी-भरकम परियोजना से कृष्णा नदी और उसके डूब क्षेत्र को नुकसान की बात हो रही थी, क्या उसका भी दोबारा परीक्षण किया जाएगा।
दिल्ली में नियमों के विरुद्ध 2016 में आर्ट ऑफ लिविंग के जरिए यमुना नदी के डूब क्षेत्र में वैश्विक सांस्कृतिक कार्यक्रम किए जाने के खिलाफ आवाज उठाने वाले यमुना जिए अभियान के संयोजक मनोज मिश्रा ने डाउन टू अर्थ से बताया कि यह अच्छी बात है कि लोगों को अक्ल आ रही है कि नदियों का डूब क्षेत्र खाली होना चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि कृष्णा नदी के डूब क्षेत्र को बचाने के मकसद से ही मौजूदा मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने यह आदेश दिया गया है तो ये स्वागत योग्य है। हम उम्मीद करते हैं कि इस आदेश को बड़े फलक पर भी लागू किया जाएगा और अन्य ऐसे सभी भवनों को जमीदोंज किया जाएगा जो डूब क्षेत्र में हैं। यदि यह एक सियासी पहलू भर है तो उसपर हमें क्या कहना?
आंध्र प्रदेश के गुंतुर निवासी और वरिष्ठ पत्रकार सईद नसीर अहमद बताते हैं कि नदियों के डूब क्षेत्र में अतिक्रमण सिर्फ आंध्र प्रदेश की बात नहीं है बल्कि यह स्थिति देशभर की नदियों के डूब क्षेत्र का है। वे बताते हैं कि नियमों के विरुद्ध यदि कोई भवन नदी किनारे मौजूद है तो उन सभी भवनों को तोड़ा या हटाया जाना चाहिए। साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि आखिर नदी किनारे भवन ही क्यों बनने दिए जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में बड़ी आबादी यह सोचती है कि नदी किनारे घर बनाना वास्तु के हिसाब से बेहतर है। इसलिए भी नदी किनारे घर निर्माण को तरजीह दी जा रही है। ज्यादातर ताकतवर और समृद्ध लोगों ने नदियों किनारे घर बनाए हैं। नदियों के डूब क्षेत्र को खाली रखना हमसभी की जिम्मेदारी है। यदि यह सियासी कदम नहीं है और इसे बड़े फलक पर लागू किया जाएगा तो बहुत ही बेहतर होगा।
2015 से 2017 तक नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में अमरावती परियोजना के पर्यावरणीय खतरे और उसकी पर्यावरण मंजूरी निरस्त करने के मामले पर सुनवाई चली थी। एनजीटी ने 20 अप्रैल, 2017 को इस मसले पर फैसला सुरक्षित करते हुए 17 नवंबर, 2017 को अपना फैसला सुनाया था। एनजीटी ने परियोजना की पर्यावरण मंजूरी को निरस्त करने से इनकार करते हुए कई शर्तों को जोड़कर परियोजना को हरी झंडी दी थी।
30, दिसंबर 2014 को राज्य सरकार ने अधिसूचना जारी कर विजयवाड़ा और गुंटुर के बीच कृष्णा नदी के किनारे अमरावती को नई राजधानी के तौर पर चिन्हित किया था। इस सरकारी अधिसूचना में 7086 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को राजधानी क्षेत्र व 122 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को आंध्र प्रदेश की राजधानी घोषित किया था। राजधानी की पहचान होने के तत्काल बाद सरकार ने बड़े पैमाने पर इसके शहरीकरण का प्रस्ताव तैयार किया। 01 जनवरी, 2015 को आंध्र प्रदेश कैपिटल सिटी लैंड पूलिंग स्कीम (फॉर्मेशन एंड इंप्लीमेंटेशन), 2015 को अधिसूचित किया गया। इस योजना के तहत आंध्र प्रदेश राजधानी क्षेत्र विकास प्राधिकरण ने जमीनों को किसानों और भूस्वामियों से खरीदना शुरु किया। इस दौरान गुंतुर जिले के तुल्लुर मंडल में बेहद उपजाऊ जमीनों को भी परियोजना के लिए कब्जे में लिए जाने का विरोध भी किसानों ने किया। किसानों का कहना था कि इससे संबंधित इलाके में कृषि क्षेत्र ही खत्म हो जाएगा। इसके अलावा कृष्णा नदी के इलाके में गंभीर पर्यावरणीय नुकसान की भी बात कही गई थी।
कृष्णा नदी की बेहद उपजाऊ जमीन नई राजधानी अमरावती को बसाने में जाएगी। सिंगापुर की एजेंसी से बनवाया गया मास्टर प्लान अमरावती को आधुनिक बना देगा लेकिन पर्यावरणीय पहलू से यह परियोजना सवालों के घेरे में थी। अमरावती परियोजना के विरुद्ध पर्यावरणीय मामले पर एनजीटी में कानूनी बहस करने वाले एडवोकेट संजय पारीख ने डाउन टू अर्थ को बताया कि कृष्णा नदी किनारे पूर्व मुख्यमंत्री के घर और हॉल को तोड़ने की कवायद अभी सियासी जान पड़ती है। कार्रवाई का आदेश भले ही पर्यावरणीय हवाले से दिया गया है लेकिन यह सिर्फ पूर्व मुख्यमंत्री के आवास और उनसे जुड़े भवनों पर केंद्रित है। इसलिए ऐसा कम प्रतीत होता है कि वे आगे कुछ और करेंगे। फिर भी नदी और उसके लिए हर एक छोटा कदम भी महत्वपूर्ण है।
उन्होंने बताया कि पूरा अमरावती राजधानी क्षेत्र ही कंकरीट के जंगल में बदला जा रहा है। यह व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं है कि समूचे क्षेत्र को कंकरीट पिलर से भर दिया जाए। यह पूरा निचला क्षेत्र (लो लाइंग एरिया) है। इस काम को करने वालों को भी मुसीबते आ रही हैं। वहीं, नजदीक में ही कोंडावटी नदी का रास्ता बदल दिया गया है। यह बारहमासी नदी थी जो बीच में सूख भी गई थी। परियोजना के चलते पूरे इलाके को तहस-नहस किया जा रहा है। एक केंद्रीय स्तर की समिति ने भी हाल ही में किया था कि यह काम इस पर्यावरणीय संवेदनशील इलाके में नहीं किया जाना चाहिए। हम इसके विरुद्ध एनजीटी में गए थे, हमने बहुत से तर्क रखे लेकिन एनजीटी का फैसला नाउम्मीदी जगाने वाला रहा।