आवरण कथा: जल निकायों को नई जिंदगी

देशभर में कई समुदाय अपने सूख चुके हुए जलस्रोतों को दोबारा जिंदा करने के लिए सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ उठा रहे हैं। इन प्रयासों की वजह से जमीन के जल-स्तर में सुधार हुआ है, सिंचाई आसान हुई है और पारिस्थितिकी तंत्र बहाल हुआ है। ऐसी अनूठी कहानियों की तलाश में सुष्मिता सेनगुप्ता, स्वाति भाटिया, प्रदीप कुमार मिश्रा, विवेक कुमार साह और महक पुरी ने कई राज्यों की यात्रा की और जल निकायों के पुनर्जीवन को नजदीक से देखा
आवरण कथा: जल निकायों को नई जिंदगी
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“पानी फाइलों में नहीं मिलता” डाउन टू अर्थ ने 1990 के दशक की शुरुआत में भारत की नौकरशाही जल संरक्षण नीतियों का वर्णन इसी तरह किया है। उस समय, दिल्ली स्थित गैर-लाभकारी संस्था, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट ने भी पानी के मुद्दे को बेहद जरूरी बताते हुए इसे इसे केवल सरकार पर न छोड़ देने की वकालत की और नारा दिया “जब भी जहां भी बारिश हो, उसके पानी को वहीं जमा करें।” इसका सिद्धांत सरल था “जिस तरह बारिश का कोई एक केंद्र बिंदु नहीं है, उसी तरह पानी की मांग भी एक जगह पर केंद्रित नहीं है।” इसने लोगों और नीति निर्माताओं को देश की जल नीति में आमूल-चूल बदलाव लाने की तरफ कार्य करने के लिए प्रेरित किया।

पिछले कुछ दशकों में हमारे देश ने जल प्रबंधन पर कुछ महत्वपूर्ण सबक सीखे हैं। 1980 के दशक के अंत तक जल प्रबंधन काफी हद तक लंबी दूरी तक पानी का भंडारण और आपूर्ति करने के लिए बांध और नहरों का निर्माण करने जैसे सिंचाई परियोजनाओं तक ही सीमित था। फिर 1980 के दशक के उत्तरार्ध में भयंकर सूखा पड़ा और यह साफ हो गया कि सिर्फ बड़ी परियोजनाओं के माध्यम से जल आपूर्ति में बढ़ोतरी की योजना बनाना काफी नहीं था। 1990 के दशक के आखिर में पड़े सूखे का मुकाबला करने के लिए राज्य सरकारों ने तालाबों, टैंकों, और चेकडैम का निर्माण करवा कर वर्षा जल को एकत्रित करने के लिए बड़े पैमाने पर कार्यक्रम शुरू किए। 2000 के दशक के मध्य तक ये प्रयास ग्रामीण जल संपत्तियों का निर्माण करने में मानव श्रम को शामिल करते हुए महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) योजना में शामिल हो गए।

इस समय तक यह समझ में आ गया था कि भूमिगत जल, जिसे तब तक “मामूली” संसाधन माना जाता रहा था, वास्तव में पीने और सिंचाई दोनों के लिए ही पानी का प्रमुख आपूर्तिकर्ता था। यह भी समझ आ गया कि चूंकि 50 प्रतिशत से अधिक खेती वर्षा पर निर्भर करती है, तो जल संरक्षण और बारिश के पानी को जमा करके रखना बेहद जरूरी है। जिससे कुओं और जल निकायों में पानी की भरपूर उपलब्धता सुनिश्चित हो सके। उत्पादकता और जन कल्याण के लिए लिहाज से यह जरूरी भी था।

2010 के बाद के दशक में शहरों में सूखे का संकट गहरा गया। इस स्थिति में यह बात उभरकर सामने आई कि शहर तेजी से दूर-दराज के जल स्रोतों पर निर्भर होते जा रहे हैं। लेकिन पानी को लंबी दूरी तक ले जाने से न केवल वितरण में नुकसान होता है, बल्कि बिजली की भी भारी खपत होती है, जिसकी वजह से उपलब्ध पानी महंगा हो जाता है और सही कीमत पर नहीं मिलता। चूंकि तालाब और टैंक रियल एस्टेट के फैलाव और लोगों की उपेक्षा की वजह से खत्म होने की कगार पर थे, इसलिए लोग भूजल की ओर मुड़े। लेकिन भूजल को दोबारा भरने की कोई व्यवस्था न होने की वजह से जमीन में जल का स्तर गिर गया है।

पानी के लिए मची इस मारामारी के बीच कुछ नए समाधान उभरे हैं। अब यह समझ आ रहा है कि जल आपूर्ति को किफायती और टिकाऊ बनाने के लिए शहरों को अपनी वितरण पाइपलाइनों की लंबाई में कटौती करने और तालाबों, टैंकों और वर्षा जल के संचयन जैसी स्थानीय जल प्रणालियों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

यह कवर स्टोरी देशभर की उन कुछ झीलों, तालाबों और टैंकों के बारे में है, जिन्हें कई सरकारी कार्यक्रमों की मदद से सफलतापूर्वक दोबारा जिंदा किया गया है। इनमें से हर जल निकाय की पारिस्थितिकी तंत्र में अहम भूमिका है। ये पानी के रीसाइक्लिंग को संभव करते हैं। मुख्य रूप से बारिश पर निर्भर हमारे देश के लिए इनका आर्थिक मूल्य बहुत ज्यादा है। सफलता की ये कहानियां न केवल जल नीति में आमूल-चूल बदलाव को दिखाती हैं, जहां सरकार ने समुदायों को जल संरक्षण में भागीदार बनाया है, बल्कि यह भी बताती हैं कि जल संरक्षण का लोगों के सामाजिक-आर्थिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। ये उन समुदायों की आजादी की कहानियां भी हैं, जो संसाधनों को अब खुद नियंत्रित कर सकते हैं।

कल पढ़ें पहली कड़ी...

स्रोत: “बैक फ्रॉम द ब्रिंक”, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट; प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो; मरम्मत, नवीकरण और पुनरुद्धार योजना का डैशबोर्ड, बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका और तिरुनेलवेली जिले के अधिकारियों से की गई बातचीत
स्रोत: “बैक फ्रॉम द ब्रिंक”, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट; प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो; मरम्मत, नवीकरण और पुनरुद्धार योजना का डैशबोर्ड, बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका और तिरुनेलवेली जिले के अधिकारियों से की गई बातचीत

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