जलवायु परिवर्तन से महिलाओं पर बढ़ रहा दबाव, 26 वर्षों में पानी पर देना होगा 30 फीसदी अतिरिक्त समय

दुनिया में चार करोड़ से ज्यादा लोग ऐसे हैं, जिन्हें साल में कम से कम एक महीने पानी की भारी कमी से जूझना पड़ता है
दिल्ली में टैंकर से पानी लेने के लिए लगी कतार; फोटो: आईस्टॉक
दिल्ली में टैंकर से पानी लेने के लिए लगी कतार; फोटो: आईस्टॉक

जलवायु परिवर्तन एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जो कहीं न कहीं हर किसी के जीवन को प्रभावित कर रही है। कुछ लोगों को इसका आभास है जबकि कुछ को पता भी नहीं कि कब दबे पांव जलवायु में आता बदलाव उनके जीवन में घुसपैठ कर रहा है। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी ऐसी ही एक हकीकत है जल संसाधन पर बढ़ता दबाव, जिसकी वजह से साफ पानी कहीं ज्यादा दुर्लभ होता जा रहा है।

पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च से जुड़े वैज्ञानिकों ने इसकी गंभीरता पर प्रकाश डालते हुए एक नए अध्ययन में जानकारी दी है कि अगले 26 वर्षों में जलापूर्ति पर पड़ने वाले दबाव की वजह से पानी पर करीब 30 फीसदी अतिरिक्त समय देना होगा। इसका सबसे ज्यादा बोझ महिलाओं और बच्चियों पर पड़ेगा।

अंतराष्ट्रीय जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज में प्रकाशित इस रिसर्च के नतीज दर्शाते हैं कि एशिया और दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्सों में बेहद ज्यादा गर्मी की वजह से स्थिति कहीं ज्यादा गंभीर हो सकती है, जहां पानी भरने पर दिया जाने वाला यह समय बढ़कर दोगुना हो सकता है। मौजूदा समय में दुनिया में करीब 200 करोड़ लोगों की साफ, सुरक्षित पानी तक पहुंच नहीं है, ऐसे में इसे एक एकत्र करने की जिम्मेवारी आमतौर पर महिलाओं और बच्चियों की होती है।

दुनिया भर में यह जल संकट कितना गंभीर है इसका अंदाजा आप संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी आंकड़ों से भी लगा सकते हैं, जिनके मुताबिक दुनिया में चार करोड़ से ज्यादा लोग ऐसे हैं, जिन्हें साल में कम से कम एक महीने पानी की कमी से जूझना पड़ता है। अनुमान है कि 2025 तक दुनिया की आधी आबादी उन क्षेत्रों में रह रही होगी, जहां पानी की कमी है।

इतना ही नहीं 2030 तक करीब 70 करोड़ लोग पानी की भारी कमी के चलते अपने घरों को छोड़ने के लिए मजबूर हो सकते हैं। आशंका जताई जा रही है कि अगले 16 वर्षों में दुनिया का हर चौथा बच्चा उन क्षेत्रों में रहने को मजबूर होगा जहां जल संकट है।

बता दें कि अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1990 से 2019 के बीच चार महाद्वीपों के 347 क्षेत्रों में प्रकाशित घरेलू सर्वेक्षणों के आंकड़ों का विश्लेषण किया है ताकि कैसे जलवायु में आता बदलाव जल उपलब्धता और उसको एकत्र करने में लगने वाले समय को प्रभावित कर रहा है, उसे समझा जा सके। शोध से पता चला है कि बढ़ते तापमान और बारिश की कमी ने इस समस्या को कहीं ज्यादा विकराल बना दिया है।

भीषण गर्मी और बारिश जल स्तर को भी प्रभावित करती है, इससे साफ पानी तक पहुंच कठिन हो जाती है। इतना ही नहीं शोधकर्ताओं के मुताबिक गर्मी और उसके तनाव की वजह से पानी के लिए की जाने वाली यात्राएं कहीं ज्यादा मुश्किल और लम्बी हो सकती हैं। अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात पर भी प्रकाश डाला है कि विभिन्न उत्सर्जन परिदृश्यों में जलवायु परिवर्तन की वजह से पानी को इकट्ठा करने में लगने वाला समय कैसे प्रभावित हो सकता है।

इस मुद्दे की गंभीरता पर प्रकाश डालते हुए इस अध्ययन और पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट से जुड़े शोधकर्ता रॉबर्ट कैर ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, जलवायु में आता बदलाव, बारिश के पैटर्न को प्रभावित कर रहा है। नतीजन पानी की उपलब्धता भी प्रभवित हो रही है।"

अध्ययन के मुताबिक जिन क्षेत्रों में जलापूर्ति नहीं है वहां रहने वाली महिलाओं को भविष्य में जलवायु परिवर्तन की वजह से पानी भरने में कहीं ज्यादा समय देना होगा। यदि 1990 से 2019 के आंकड़ों को देखें तो वैश्विक स्तर पर जिन घरों में पानी की सप्प्लाई नहीं है, उन्हें पानी एकत्र करने में हर दिन औसतन 22.84 मिनट का समय लगता है।

यह समय जहां इंडोनेशिया के कुछ हिस्सों में चार मिनट से लेकर इथियोपिया में 110 मिनट तक है। यदि 1990 से 2019 के आंकड़ों को देखें तो वैश्विक रूप से तापमान में हर डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ पानी इकट्ठा करने में लगने वाले इस समय में चार मिनट की वृद्धि हो सकती है।

कैर के मुताबिक 2050 तक, उच्च उत्सर्जन परिदृश्य में महिलाएं को पानी भरने में लगने वाला यह समय 30 फीसदी बढ़ सकता है। हालांकि उन्होंने उम्मीद जताई है कि अगर बढ़ते तापमान को दो डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने में सफल हो जाते हैं तो इस समय में होने वाली इस वृद्धि को 19 फीसदी पर सीमित किया जा सकता है।

प्रभावों से परे नहीं भारत

शोधकर्ताओं के मुताबिक इसका प्रभाव दक्षिण अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया पर कहीं ज्यादा पड़ेगा। अनुमान है कि इन क्षेत्रों में पानी इकट्ठा करने में लगने वाला समय 2050 तक दोगुना हो सकता है। बता दें कि यह गणना उच्च उत्सर्जन परिदृश्य पर आधारित है।

वहीं पूर्वी और मध्य अफ्रीका को देखें तो महिलाओं को पानी एकत्र में कहीं ज्यादा मेहनत करनी पड़ सकती है। अनुमान है कि वहां बढ़ते तापमान के चलते इस समय में 20 से 40 फीसदी तक का इजाफा हो सकता है।

वैज्ञानिकों का अंदेशा है कि इसका भारत, पाकिस्तान और उत्तरी अफ्रीका के देशों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा। हालांकि रिसर्च में यह भी सामने आया है कि जहां बढ़ते तापमान की वजह से भारत में पानी भरने में लगने वाले समय में इजाफा हो सकता है, वहीं जिस तरह से बारिश के पैटर्न में बदलाव हो रहा है, उससे भारत को फायदा हो सकता है।

पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता मैक्सिमिलियन कोट्ज के मुताबिक वैश्विक स्तर पर देखें तो महिलाएं हर दिन करीब 20 करोड़ घंटे पानी भरने पर लगाती हैं। देखा जाए तो यह कहीं न कहीं उनके शिक्षा, काम और खाली समय को प्रभावित करता है। इतना ही नहीं इससे उनपर शारीरिक और मानसिक दबाव भी बड़ रहा है।

अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता लियोनी वेन्ज का प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहना है कि पानी भरने में लगने वाला लम्बा समय महिलाओं के शिक्षा, काम और अवकाश के समय को कम कर देगा। उनके मुताबिक यह आर्थिक रूप से भी बेहद महंगा पड़ेगा। अनुमान है कि इससे देशों को करोड़ों डॉलर का नुकसान हो सकता है।

आशंका है कि बढ़ते तापमान की वजह से पानी एकत्र करने में लगने वाले समय में होने वाली वृद्धि से भारत को भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। रिसर्च के मुताबिक यह कीमत 140 करोड़ डॉलर के बराबर हो सकती है। वहीं पाकिस्तान से जुड़े आंकड़ों को देखें तो उसे करीब 210 करोड़ डॉलर का नुकसान हो सकता है।

हालांकि यदि बढ़ते उत्सर्जन को  पेरिस समझौते के अनुरूप करने से इसकी लागत में काफी हद तक गिरावट आ सकती है। अनुमान है कि इससे पाकिस्तान पर पढ़ने वाले बोझ में 120 करोड़ डॉलर की कमी आ सकती है। वहीं भारत में यह नुकसान फायदे में बदल सकता है।

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