एक प्राचीन पद्धति से खुशहाल जीवन जी रहे हैं इस गांव के लोग

जाबो पद्धति कृषि, वानिकी और पशुपालन का मिलाजुला रूप है जो मिट्टी का बहाव रोकने, जल संसाधन का विकास करने और पर्यावरण संरक्षण मंे मददगार है
किक्रमा गांव की जाबो सिंचाई व्यवस्था का विहंगम दृश्य (सभी फोटो: अमित मित्र / सीएसई)
किक्रमा गांव की जाबो सिंचाई व्यवस्था का विहंगम दृश्य (सभी फोटो: अमित मित्र / सीएसई)
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नगालैंड के किक्रुमा गांव में सिंचाई के लिए जाबो नाम की प्रणाली इस्तेमाल में लाई जाती है। जाबो का मतलब पानी को तालाब में इकट्ठा करना है। यहां इस प्रणाली को रुजा भी कहते हैं। इंडियन जर्नल ऑफ हिल फार्मिंग के मुताबिक, यह एक देसी प्रणाली है जिसमें वन, खेती और पशुपालन का मेल है। इसमें मिट्टी की कटाई पर नियंत्रण रखा जाता है और जल संसाधनों के विकास प्रबंध और पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखा जाता है।

किक्रुमा नगालैंड के फेक जिले में फुटसेरो शहर से 13 किलोमीटर की दूरी पर 1,270 मीटर की ऊंचाई पर बसा है। फुटसेरो गांव में तो सालाना औसत वर्षा 1,613 मिलीमीटर होती है, लेकिन इस गांव में काफी कम वर्षा होती है। यह गांव पहाड़ की ऊंचाई पर एक समतल मैदान के रूप में है। इसके दक्षिण में सेद्जू नदी और उत्तर में खुजा नदी है। ये मौसमी नदियां हैं और इनके पानी का इस्तेमाल सीढ़ीदार खेतों में सिंचाई के लिए किया जाता है। यहां सीढ़ीदार खेती का प्रतिशत काफी कम है। कुल 915 हेक्टेयर कृषि भूमि में से 20 हेक्टेयर में पानी जमाकर धान की फसल ली जाती है, 26 हेक्टेयर में वर्षा के पानी से खेती होती है और 858 हेक्टेयर भूमि में झूम खेती होती है। सीढ़ीदार खेतों में स्थानीय झरनों, प्राकृतिक सोतों और तालाबों के पानी से सिंचाई की जाती है।

इस गांव में खेत काफी ऊंचाई पर स्थित हैं। यहां वर्षा बेहद कम होती है। पीने के पानी की आपूर्ति सबसे बड़ी समस्या है। इसलिए गांव के लोग सिंचाई और पशुओं के पीने के लिए पानी तालाब में इकट्ठा करते हैं। इस तरह इकट्ठा किए गए पानी का इस्तेमाल लोग पीने के लिए भी यदा-कदा करते हैं। ये तालाब मार्च और अप्रैल में सूख जाते हैं और इस दौरान उनकी मरम्मत की जाती है। किक्रुमा गांव के लोग पहाड़ों के जंगलों का संरक्षण करते हैं। उसके नीचे की ढलान पर तालाबों में पानी इकट्ठा करते हैं और पहाड़ों की तलहटी पर धान के खेतों में सिंचाई करते हैं। तलहटी पर ही चरागाह भी हैं।

जाबो प्रणाली के विभिन्न अंग इस प्रकार हैं :

1. वन भूमि: तालाबों के ऊपर 1.5 हेक्टेयर या उससे ज्यादा जल संग्रह क्षेत्र में पेड़-पौधे उगाए जाते हैं। यह क्षेत्र मानसून के दौरान जल संग्रह में योगदान करता है। जल संग्रह क्षेत्र की ढलान आमतौर पर काफी तीखी होती है।

2. जल संचय प्रणाली : जल संचय क्षेत्र के नीचे पानी जमा करने के लिए तालाब खोदे जाते हैं और मिट्टी का बांध बनाया जाता है। तालाब का आकार आमतौर पर 24 मीटर लंबा, 10 मीटर चौड़ा और दो मीटर गहरा होता है। कई जगहों पर छोटे-छोटे तालाब बनाए जाते हैं, ताकि मिट्टी बहकर बड़े तालाब को उथला न बना दे। इस पूरी प्रणाली में आमतौर पर 0.2 हेक्टेयर जमीन लगती है। वर्षा के साथ बहने वाली मिट्टी को थामने के लिए बनाए गए गड्ढों को साल में एक बार साफ किया जाता है। तालाब बनाते समय उसके तल्ले को पुख्ता बनाया जाता है, ताकि पानी के रिसाव को कम किया जा सके।

3. बाड़ेः पशुओं को रखने के लिए बांस या टहनियों की बाड़ बनाई जाती है। तालाब के नीचे बनी इस बाड़ की निगरानी किसानों का एक समूह बारी-बारी से करता है। स्थानीय किसानों के पास आमतौर पर भैंसे होती हैं और एक बाड़ में 20 से 30 भैंसें रखी जाती हैं। इस स्थान को वर्षा के पानी से धोया जाता है और यह पानी बहकर धान के खेतों में खाद के रूप में समा जाता है। जब तालाब का पानी उफनकर बाहर आता है तो बाड़ से होता हुआ आता है और प्राकृतिक खाद नीचे खेतों तक पहंुच जाती है।

4. कृषि भूमिः तालाबों के नीचे धान के सीढ़ीदार खेत होते हैं। इन खेतों का आकार 0.2 से 0.5 हेक्टेयर तक होता है। धान के खेतों में खाद के लिए आमतौर पर भिदुर और मेखुनू के पत्तों से बनी हरी खाद, गोबर और पशुशाला से बहे पानी का इस्तेमाल होता है। मिट्टी की उर्वराशक्ति बढ़ाने के लिए जहां भी प्राकृतिक जल स्त्रोत उपलब्ध हैं, वहां किसान अजोला का इस्तेमाल करते हैं। गीली जुताई के समय पूरे खेत को मथ दिया जाता है। इसके लिए मवेशियों के अलावा छड़ियों का भी इस्तेमाल किया जाता है, ताकि पानी का रिसाव रोका जा सके।

सीढ़ीदार खेतों मेें ढलान के आड़े बने बांध से पानी का रिसाव रोकने के लिए धान की भूसी का इस्तेमाल किया जाता है। जुताई के लिए मुख्य रूप से भैंसों को लगाया जाता है। यहां धान की सिर्फ एक ही फसल तानेकेमुगा उगाई जाती है। फसल तैयार होने में 180 दिन लगते हैं। प्रति हेक्टेयर 60 किलो बीज बोया जाता है और रोपनी जून में होती है। सीढ़ीदार खेतों में दो बार तालाब के खेती की जाती है। यहां धान की प्रति हेक्टेयर उपज तीन से चार टन है। ज्यादातर किसान धान की खेती के साथ-साथ मछली पालन भी करते है और प्रति हेक्टेयर 50 से 60 किलो मछली भी पकड़ते हैं।



सीढ़ीदार खेतों का निर्माण एक ही बार में कर लिया जाता है। नगालैंड के भूमि संरक्षण विभाग के पूर्व निदेशक जे. किरे के मुताबिक, सीढ़ीदार खेत बनाने में पूरा समुदाय जुटता है। ग्रामीणों द्वारा की जाने वाली सीढ़ीदार खेती श्रमसाध्य तो है, पर वैज्ञानिक भी है। इंडियन जर्नल आॅफ हिल फार्मिंग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, “सीढ़ीदार खेत बनाने के लिए जंगलों को काटकर वहां आग लगा दी जाती है। सीढ़ीदार खेतों की चौड़ाई ढलान की प्रकृति पर निर्भर करती है। पहले ऊपर की मिट्टी को हटाकर एक तरफ रख लिया जाता है। भूमि की ऊपरी सतह को खोदकर लकड़ियों के लट्ठों की मदद से जमाया जाता है और बांध का निर्माण किया जाता है। किनारे पत्थर वगैरह जमा किए जाते हैं। फिर मिट्टी को ठोंक-पीटकर बैठा दिया जाता है। फिर किनारे रखी सबसे ऊपरी सतह वाली मिट्टी को सबसे ऊपर, पसार दिया जाता है। सलेटी पत्थर भी किनारे लगा दिए जाते हैं। मिट्टी में हरित खाद वाले पौधे भी लगा दिए जाते हैंै। पहले साल दाल, बींस, आलू, लौकी वगैरह की ही खेती की जाती है।”

एक जाबो प्रणाली, जिसमें 14.5 मी. लंबा, 8 मी. चौड़ा, 2.5 मी. गहरा तालाब और 0.4 हेक्टेयर धनखेत हैं, के अध्ययन से पता चलता है कि इस पर कुल 750 श्रम दिवस यानी लगभग 1,500 रुपए की लागत आती है। ऊपर किक्रुमा गांव में जो सीढ़ीदार खेत बनाने का ब्यौरा बताया गया है, वैसा ही तरीका हर जगह अपनाया जाता है। लेकिन बारीकियों के मामले में थोड़ा-बहुत फर्क जरूर होता है। अगर पानी का स्त्रोत झरना या नदी है तो खेत बनाने के लिए जमीन की ऊपरी परत हटाई नहीं जाती। खेत का निर्माण हो जाने के बाद इस मिट्टी को वापस बिखेर दिया जाता है। इसकी वजह यह है कि झरने के पानी के साथ काफी मिट्टी बहकर आती है और इस तरह खेत के ऊपर इसकी एक सतह बन जाती है। खेतों के निर्माण के समय मिट्टी की ऊपरी परत सिर्फ उन्हीं मामलों में हटाई जाती है जहां प्राकृतिक स्त्रोत झरने या वर्षा हैं।

चखेसांग के सीढ़ीदार खेत अंगामी इलाकों के मुकाबले ज्यादा लंबे-चौड़े होते है। इसकी वजह यह है कि चखेसांग इलाकों में पहाड़ियां ऊंची होने के बावजूद इनकी ढलान उपेक्षाकृत मामूली होती है। दूसरी ओर, अंगामी इलाके में पहाड़ियों की ऊंचाई तो कम है, लेकिन ढलान तीखी है। इसलिए इन इलाकों में सीढ़ीदार खेत बेहद संकरे होते हैं। चखेसांग क्षेत्र में लंबे-चौड़े खेतों की वजह से कृषि कार्यों में मवेशियों का इस्तेमाल संभव हो पाता है, जबकि अंगामी क्षेत्र में यह असंभव है।

किक्रुमा गांव में कम वर्षा होने की वजह से पानी का संकट रहता है। चूंकि पानी कम है, इसलिए सिंचाई में इसके इस्तेमाल पर सख्त नियम लागू होते हैं। गांव के पास दो नदियां हैं, लेकिन सिर्फ सेद्जू नदी के पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता है। चूंकि यह मौसमी नदी है, इसलिए पानी की हमेशा किल्लत रहती है। इसलिए, पानी का वितरण पहले से तय कर लिया जाता है। किसी व्यक्ति ने अगर नदी के किसी हिस्से में अवरोध खड़ा करके पानी निकालने का इंतजाम किया है तो नदी में उसके ठीक ऊपर कोई दूसरा व्यक्ति अवरोध खड़ा नहीं कर सकता। अगले व्यक्ति को पहले अवरोध से कम-से-कम दो फर्लांग की ऊंचाई पर अवरोध बनाने की इजाजत है। वैसे पहले अवरोध के नीचे नदी पर अवरोध बनाने के लिए कोई पाबंदी नहीं है।

नदी पर अवरोध बनाने के अलावा नहर बनाने पर भी कुछ नियम लागू होते हैं। मिसाल के तौर पर, किसी दूसरे कबीले की जमीन से होकर नहर ले जाने की इजाजत नहीं हैं। किक्रुमा समुदाय ने जल संग्रह की बेहद उन्नत प्रणाली विकसित की है। इस प्रणाली के माध्यम से पानी का प्रवाही प्रबंध किया जाता है। इस प्रणाली में वनभूमि को जल संग्रह क्षेत्र बनाया जाता है। उसके बाद तालाब बनाए जाते हैं और जल संग्रह क्षेत्र से छोटी-छोटी नहरों के माध्यम से पानी यहां इकट्ठा किया जाता है। तालाबों पर निजी या परिवार का स्वामित्व हो सकता है।

किक्रुमा के लोग जल संरक्षण में इतने अभ्यस्त हैं कि गांव आने वाली सड़क के किनारे के पानी को भी वे इकट्ठा कर लेते हैं। उसे तालाब तक ले जाकर सिंचाई के काम में लगा लेते हैं। गांववालों ने सड़क पर कई गति अवरोधक खड़े किए हैं, जो हर दस मीटर की दूरी पर वर्षा के पानी को रोक लेते हैं। यह पानी सड़क किनारे लगी नाली में पहुंच जाता है और एक पत्थर लगाकर अवरोध पैदा किए जाने से इसका प्रवाह आड़ा हो जाता है। वहां से पानी को तालाबों तक पहुंचाया जाता है। परिवारों और कुनबों के बीच इस पानी का बंटवारा परस्पर बातचीत से तय होता है। पर्वतीय ढलानों पर कटे हुए बांस रखकर पानी को सड़कों के नीचे से होकर सड़क की दूसरी ओर ले जाया जाता है और वहां से पानी खेतों तक पहुंच जाता है।

अगर पानी का स्रोत झरना हो तो गांव वाले इस पर अधिकार के लिए किसी व्यवस्था का निर्माण करते हैं। अगर झरना ऐसी सीढ़ीदार जमीन में हो जिस पर अभी तक खेती नहीं की जा रही है तो उसके नीचे की जमीन पर सीढ़ीदार खेत बनाने के लिए कोई व्यक्ति उसके पानी का इस्तेमाल कर सकता है। ऊपरी खेतों के स्वामी नीचे के लोगों के वैध अधिकारों का हनन नहीं कर सकते। तमाम नालियों और तालाबों के जल प्रवाह क्षेत्र की साल में एक बार आमतौर पर मानसून आने से पहले मरम्मत की जाती है। नहर का आखिर में इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति उसकी सफाई के लिए लोगों को जुटाता है। स्थानीय तौर पर उसे नीपू यानी स्वामी कहते हैं।

किक्रुमा गांव की विशेषता गांव भर में फैले छोटे-छोटे तालाब हैं। नए तालाबों का निर्माण निरंतर चलता रहता है और 1995 में उनकी संख्या 150 थी। गांव के पास एक स्थान पर तालाब पर पांच व्यक्तियों का स्वामित्व है। ये व्यक्ति पास के खेतों में खेती करते हैं। पहाड़ी के किनारे बने लगभग एक किलामीटर लंबी दो नालियों से आसपास के इलाके का पानी तालाब तक पहुंचता है। गांववालों ने नाली की तली को काफी पुख्ता बनाया है, ताकि पानी का रिसाव कम हो सके। धान की रोपनी के लिए जब पानी की जरूरत होती है तो गांववाले तालाब के निचले हिस्से को खोद देते हैं। जल वितरण और जल पर अधिकार की पद्धति खोनोमा की तरह की है। सीढ़ीदार खेती में पानी जब खेतों में पहुंचता है तो किसान पैर से कीचड़ तैयार करते हैं।

पानी एक खेत से दूसरे खेत में पहुंचता है। पानी निकलने का मार्ग सतह से करीब 15 सेंटीमीटर ऊंचा होता है ताकि खेत में करीब 15 सेंटीमीटर पानी जमा रह सके। आखिरी खेत में भी ऐसा ही इंतजाम किया जाता है और उसके बाद फालतू पानी को बहा दिया जाता है। सीढ़ीदार खेती में बुआई का मौसम आमतौर पर अप्रैल से मई तक होता है और रोपनी जून-जुलाई में की जाती है। पौधों के बढ़ने की पूरी अवधि में खेत में पानी जमा रहने दिया जाता है। कई बार तो कटनी से ठीक पहले उसे बहाया जाता है। निराई की कोई जरूरत नहीं पड़ती और अक्टूबर-नवम्बर में फसल काट ली जाती है।

सिंचाई के लिए झरनों पर अवरोध खड़ा करने के अलावा छोटे प्राकृतिक तालाबों का भी इस्तेमाल किया जाता है। इन तालाबों में वर्षा का पानी इकट्ठा होता है और लोग उनके किनारों पर सब्जियां उगाते हैं। घरेलू पानी के मुख्य स्त्रोत झरने और सोते हैं। ऐसा माना जाता है कि केले के पेड़ों में पानी थामने की क्षमता होती है, इसलिए इन जल स्त्रोत की हिफाजत का सारा इंतजाम किया जाता है और उनके आसपास पेड़-पौधे, खासकर केले के पेड़ उगाए जाते हैं। यहां नहाना और कपड़े धोना सख्त मना है।

(बूंदों की संस्कृति पुस्तक से साभार)

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