वैज्ञानिकों को पहली बार ग्रीनलैंड की बर्फ में मिले विशाल विषाणु, जानिए कैसे दूसरे विषाणुओं से हैं अलग

वैज्ञानिकों को पहली बार ग्रीनलैंड में जमा बर्फ में विशाल वायरसों की मौजूदगी के सबूत मिले हैं। यह वायरस आकार में बैक्टीरिया से भी बड़े हैं।
 ग्रीनलैंड की बर्फ में मिले 'जायंट वायरस' के नमूनों को दर्शाते वैज्ञानिक, पहली नजर में यह गंदे पानी जैसा दिखता है, लेकिन इसमें सूक्ष्मजीवों की भरमार है। इसमें बर्फ पर पनपने वाले शैवाल भी मौजूद हैं जो बर्फ को धूमिल बना देते हैं। फोटो: लॉरा पेरीनी
ग्रीनलैंड की बर्फ में मिले 'जायंट वायरस' के नमूनों को दर्शाते वैज्ञानिक, पहली नजर में यह गंदे पानी जैसा दिखता है, लेकिन इसमें सूक्ष्मजीवों की भरमार है। इसमें बर्फ पर पनपने वाले शैवाल भी मौजूद हैं जो बर्फ को धूमिल बना देते हैं। फोटो: लॉरा पेरीनी
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वैज्ञानिकों को पहली बार ग्रीनलैंड में जमा बर्फ में विशाल वायरसों की मौजूदगी के सबूत मिले हैं। यह वायरस आकार में बैक्टीरिया से भी बड़े हैं। हालांकि इसके बावजूद इन विषाणुओं को माइक्रोस्कोप की मदद के बिना नहीं देखा जा सकता।

ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजिमी है कि जब यह वायरस आकार में इतने छोटे होते हैं कि उन्हें बिना माइक्रोस्कोप की मदद से नहीं देखा जा सकता तो इन्हें ‘जायंट वायरस’ क्यों कहा जाता है। एक और बड़ा सवाल यह है कि कैसे यह जायंट वायरस, दूसरे विषाणुओं से अलग होते हैं।

आमतौर पर वायरस, बैक्टीरिया से बहुत छोटे होते हैं। एक सामान्य वायरस का आकार 20 से 200 नैनोमीटर के बीच होता है, जबकि दूसरी तरफ एक आम बैक्टीरिया आकार में करीब दो से तीन माइक्रोमीटर के बीच होता है। सरल शब्दों में कहें तो एक वायरस आकार में बैक्टीरिया से करीब 1,000 गुना छोटा होता है। वहीं दूसरी तरफ विशाल वायरस इससे बिलकुल अलग होते हैं। एक विशाल (जायंट) वायरस ढाई माइक्रोमीटर तक बड़े हो सकते हैं, जोकि आकार में अधिकांश बैक्टीरिया से बड़े होते हैं।

यह वायरस न केवल आकार में बड़े होते हैं साथ ही इनके जीनोम भी सामान्य वायरसों से बेहद बड़ा होता है। उदाहरण के लिए, बैक्टीरिया को संक्रमित करने वाले वायरस, जिन्हें बैक्टीरियोफेज कहा जाता है, उनके जीनोम में करीब एक से दो लाख जेनेटिक अक्षर होते हैं। एक सामान्य फ्लू वायरस में 15000 जेनेटिक अक्षर होते हैं। इसके विपरीत, इन विशाल वायरसों के जीनोम में करीब 25,00,000 जेनेटिक अक्षर होते हैं। वहीं यदि इंसानों की बात करें तो उनके जीनोम में करीब 300 करोड़ जेनेटिक अक्षर मौजूद होते हैं।

जायंट वायरस के बारे में एक और चिंताजनक बात यह है कि ये वायरस ना केवल जेनेटिकली ज्यादा बड़े होते हैं, साथ ही वातावरण में लंबे समय तक जीवित रहने की इनकी क्षमता भी बहुत अधिक होती है।

इन जायंट वायरसों को पहली बार 1981 में देखा गया था, जब वैज्ञानिकों को इनकी समुद्र में मौजूदगी का पता चला था। यह वायरस समुद्र में हरे शैवाल को संक्रमित करने में माहिर थे। बाद में इन्हें जमीन, मिट्टी और यहां तक की मनुष्यों में भी खोजा गया था। हालांकि शोधकर्ताओं के मुताबिक यह पहला मौका है जब इन विशाल वायरसों को सूक्ष्म शैवाल से ढकी बर्फ और उसके बीच रहते देखा गया है।

इन विशाल वायरसों के केंद्र में डीएनए का एक समूह होता है। इस डीएनए में प्रोटीन के निर्माण के लिए आवश्यक सभी आनुवंशिक जानकारी या नुस्खे होते हैं, जो वायरस में अधिकांश काम करते हैं। लेकिन इन नुस्खों का उपयोग करने के लिए, वायरस को डबल-स्ट्रैंडेड डीएनए को सिंगल-स्ट्रैंडेड एमआरएनए में बदलने की आवश्यकता होती है।

हालांकि सामान्य वायरस ऐसा नहीं कर सकते। इसके बजाय, उनके पास आरएनए के स्ट्रैंड होते हैं जो वायरस द्वारा कोशिका को संक्रमित करने और उसकी मशीनरी पर कब्जा करने के बाद सक्रिय होने की प्रतीक्षा करते हैं। वहीं दूसरी तरफ जायंट वायरस स्वयं ऐसा कर सकते हैं, जो उन्हें सामान्य वायरस से बहुत अलग बनाता है।

चूंकि यह विशाल वायरस अपेक्षाकृत नई खोज है, ऐसे में इनके बारे में ज्यादा जानकारी मौजूद नहीं है। ज्यादातर वायरसों से अलग, इनके पास कई सक्रिय जीन होते हैं, जो उन्हें डीएनए की मरम्मत करने के साथ-साथ प्रतिकृति तैयार करने और उनका उपयोग करने की अनुमति देते हैं। हालांकि उनके पास ये जीन क्यों हैं और वे उनका उपयोग कैसे करते हैं, यह अब भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है।

आपकी खोज के बारे में अध्ययन से जुड़ी शोधकर्ता लॉरा पेरीनी ने प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए लिखा है कि, "हमें गहरे और लाल रंग की बर्फ के नमूनों में सक्रिय अवस्था में मौजूद विशाल वायरसों के संकेत मिले हैं।" उनके मुताबिक यह पहला मौका है जब बर्फ और रंगीन सूक्ष्म शैवाल युक्त बर्फ में इनकी मौजूदगी के सबूत मिले हैं। 

इन वायरस की खोज के लिए शोधकर्ताओं ने नमूनों में सभी डीएनए का विश्लेषण किया था। इसमें से उन विशिष्ट जीन की पहचान की, जो अब तक ज्ञात विशाल वायरसों के सीक्वेंस से मेल खाते हैं। साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिए कि यह डीएनए जीवित और सक्रिय वायरसों से मिला था। शोधकर्ताओं ने नमूनों से एमआरएनए भी लिए थे। गौरतलब है कि इन एमआरएनए की मौजूदगी इस बात का सबूत है कि वायरस जीवित अवस्था में थे।

कई साल पहले लोगों को लगता था कि दुनिया के जो हिस्से वीरान पड़े हैं वहां कोई जीवन नहीं है। लेकिन यह सही नहीं है। आर्कटिक, अंटार्कटिक जैसे निर्जन स्थानों पर भी कई सूक्ष्मजीव रहते हैं, जिनमें विशाल वायरस भी शामिल हैं।

क्या तेजी से पिघलती बर्फ को बचाने में मददगार हो सकते हैं यह वायरस

उनका आगे कहना है कि इन शैवाल के चारों और एक पूरा पारिस्थितिकी तंत्र विकसित हो चुका है। इसमें बैक्टीरिया, कवक और यीस्ट के अलावा, इन शैवालों को खाने वाले प्रोटिस्ट मौजूद थे। इन सभी के ऊपर निर्भर रहने वाली कवक की मौजूदगी भी दर्ज की गई। साथ ही वो विशाल वायरस भी मौजूद थे जो इन शैवालों पर पलते हैं और इन्हें संक्रमित करके इनकी वृद्धि को नियंत्रित करने की क्षमता रखते हैं। ऐसे में वैज्ञानिकों को भरोसा है कि इन विशाल वायरसों को नियंत्रित करके हम बर्फ के पिघलने की दर को धीमा कर सकते हैं।

लेकिन यह कैसे मुमकिन है इसे समझने से पहले हमें आर्कटिक में पनपते जीवन को समझना पड़ेगा। हर बसंत में जब आर्कटिक में महीनों के अंधेरे के बाद आखिरकार सूरज चमकता है, तो जीवन एक बार फिर से सक्रिय हो जाता है। ध्रुवीय भालू अपनी मांद से निकल पड़ते हैं। आर्कटिक टर्न दक्षिण की अपनी लंबी यात्रा से वापस लौटे आते हैं। मौसम में यह बदलाव केवल जानवरों को ही जीवंत नहीं करता।

इसके साथ ही बर्फ पर लम्बे समय से निष्क्रिय पड़े शैवाल दोबारा पनपने लगते हैं। इसकी वजह से बर्फ का एक बड़ा हिस्सा धूमिल नजर आने लगता है। हालांकि शैवाल से धूमिल पड़ चुकी यह बर्फ सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने की अपनी क्षमता खो देती है, जिससे उसके पिघलने की प्रक्रिया तेज हो जाती है। इनका तेजी से पिघलना ग्लोबल वार्मिंग की रफ्तार को और बढ़ा देता है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक यह विशाल वायरस बर्फ पर उगने वाले शैवालों पर पलते हैं और उन्हें संक्रमित कर उनकी वृद्धि को नियंत्रित करते हैं। ऐसे में इन वायरसों को कैसे नियंत्रित किया जाए यह जानकारी बर्फ के पिघलने की दर को धीमा करने में मददगार साबित हो सकती है। शोधकर्ताओं को भरोसा है कि यह जायंट वायरस, बर्फ पर पनपने वाले शैवालों के विकास को प्राकृतिक तौर पर नियंत्रित कर सकते हैं, जिससे बर्फ के पिघलने की रफ्तार को धीमा किया जा सकता है।

शोधकर्ता लॉरा पेरीनी ने प्रेस विज्ञप्ति में लिखा है कि, "हम अभी तक इन वायरसों के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते, लेकिन शैवाल से जुड़े होने के कारण यह बर्फ के पिघलने की गति को धीमा करने में मदद कर सकते हैं।" हालांकि यह कितने प्रभावी हो सकते हैं इसे समझने के लिए और ज्यादा अध्ययन करने की जरूरत है।

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