क्या दिल्ली की लैंडफिल्स में बार-बार लगने वाली आग की घटनाओं को रोक सकती है बायो माइनिंग

एनजीटी गठित समिति का कहना है कि दिल्ली के डंपिंग स्थलों पर बार-बार लगने वाली आग की समस्या को हल करने के लिए बायो माइनिंग पद्दति कारगर साबित हो सकती है
क्या दिल्ली की लैंडफिल्स में बार-बार लगने वाली आग की घटनाओं को रोक सकती है बायो माइनिंग
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दिल्ली के डंपिंग स्थलों पर बार-बार लगने वाली आग की समस्या को हल करने के लिए बायो माइनिंग पद्दति कारगर साबित हो सकती है। यह नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) के समक्ष गाजीपुर लैंडफिल में लगी आग पर समिति द्वारा जमा अंतरिम प्रगति रिपोर्ट का कहना है। रिपोर्ट के अनुसार सालों से जमा इस कचरे का शत-प्रतिशत जैव-खनन समस्या को हल कर सकता है।

हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक  गाजीपुर डंपसाइट पर लम्बे समय से जमा कचरे की बहुत धीमी रफ्तार में बायो माइनिंग की जा रही है। जानकारी मिली है कि जुलाई, 2019 से अब तक वर्षों से जमा इस कचरे का केवल 7 फीसदी हिस्सा ही प्रोसेस किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार गाजीपुर लैंडफिल में हर रोज 2,200 से 2,300 टन कचरा डाला जा रहा है जिसका केवल नाममात्र का हिस्सा ही अलग छांटा गया होता है। देखा जाए तो यह इस कचरे की समस्या को और बढ़ा रहा है।

पूर्वी दिल्ली नगर निगम (ईडीएमसी) के अधिकारियों के अनुसार 28 मार्च, 2022 की दोपहर को गाजीपुर लैंडफिल में भीषण आग लग गई थी। इसके बाद 20 अप्रैल को दोबारा इस लैंडफिल में आग लग गई थी। इसके बाद 27 अप्रैल को भलस्वा लैंडफिल साइट में आग लग गई थी, जो कई दिनों तक जलती रही थी। इस मामले में  दिल्ली सरकार ने एक्शन लेते हुए नॉर्थ दिल्ली एमसीडी पर 50 लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। 

गौरतलब है कि टाइम्स ऑफ इंडिया ने इस मामले को 22 अप्रैल, 2022 को एक खबर प्रकाशित की थी, जिसपर संज्ञान लेते हुए 22 अप्रैल, 2022 को एनजीटी के आदेश द्वारा एक समिति का गठन किया गया था। समिति ने इस मामले में कदम उठाते हुए पूर्वी दिल्ली नगर निगम (ईडीएमसी) के मुख्य अभियंता संदीप शर्मा से गाजीपुर लैंडफिल डंपसाइट और आग की घटनाओं के बारे में जानकारी देने का निर्देश दिया था।

इस लैंडफिल के बारे में समिति ने कोर्ट को जानकारी दी है कि गाजीपुर लैंडफिल इस क्षेत्र के सबसे बड़े और पुराने लैंडफिल्स में से एक है। यह न ही कोई वैज्ञानिक डंप साइट है और न ही इंजीनियर्ड सेनेटरी लैंडफिल (एसएलएफ) है। इतना ही नहीं इस लैंडफिल को नगरपालिका ठोस अपशिष्ट (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियम, 2000 की अनुसूची III और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 की अनुसूची I के अनुसार डिजाईन भी नहीं किया गया है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के दिशा-निर्देशों के अनुसार बायोमाइनिंग, डंपसाइट्स में सालों से पड़े पुराने म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट के उत्खनन, उपचार, अलगाव और उसके बेहतर उपयोग की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इस कचरे को आमतौर पर 'विरासती कचरे' के रूप में जाना जाता है।

2019 के बाद से 9.5 लाख मीट्रिक टन कचरे का किया गया है जैव-खनन

रिपोर्ट से पता चला है कि पहले यहां वर्षों से जमा कचरे के बायो माइनिंग की मदद से निपटान के लिए दो प्रकार के ट्रॉमेल्स (30 मिमी और 6 मिमी स्क्रीन आकार) का उपयोग किया जा रहा था जबकि वर्तमान में इसके लिए 25 ट्रॉमेल्स लगाए गए हैं।

रिपोर्ट से पता चलता है कि यहां अक्टूबर, 2019 के बाद से लगभग 9.5 लाख मीट्रिक टन पुराने कचरे का जैव-खनन किया गया है। इस बारे में ईडीएमसी के चीफ इंजीनियर ने जानकारी दी है कि ईडीएमसी द्वारा घोंडा गुजरां में एनटीपीसी के साथ मिलकर 2,000 टीपीडी क्षमता के एक एकीकृत ठोस अपशिष्ट प्रबंधन सुविधा को विकसित करने का प्रस्ताव रखा गया था, हालांकि, एनजीटी के आदेश से गठित प्रधान समिति ने अपनी बैठक में इस परियोजना को खारिज कर दिया है।

इस परियोजना को लेकर समिति ने 14 जनवरी, 2022 को मीटिंग की थी जिसमें उसका कहना था कि यह सुविधा यमुना फ्लड प्लेन के अंतर्गत आ रही थी, इसलिए इसपर रोक लगा दी गई थी। इस मामले में ईडीएमसी वैकल्पिक भूमि के आबंटन के लिए डीडीए से संपर्क कर रही है। समिति को यह जानकर हैरानी हुई कि गाजीपुर डंपसाइट पर जितना म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट डाला जा रहा है वो उसके द्वारा संसाधित और निपटान किए गए कचरे से भी ज्यादा है।

गौरतलब है कि भलस्वा लैंडफिल साइट पर अब तक 22 व गाजीपुर लैंडफिल साइट पर 21 बार आग लग चुकी है। इसका खामियाजा लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को झेलना पड़ रहा है। इसका खामियाजा लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को झेलना पड़ रहा है।

जानकारी मिली है कि कूड़े के अंदर पैदा होने वाली मीथेन जैसी ज्वलनशील गैसों की वजह से यह आग लग रही है। वहीं विशेषज्ञों का कहना है कि यहां कचरे का 'अवैज्ञानिक' तरीके से किया जा रहा निपटान, गाजीपुर लैंडफिल में लगने वाली भीषण आग की वजह है।

जानकारी मिली है कि ईडीएमसी क्षेत्र से हर रोज पैदा होने वाले 2,700 टन म्युनिसिपल सॉलिड वेस्ट में से करीब 74 फीसदी को वहां बिना अलग किए ही फेंक दिया जाता है। इस बारे में निगम ने 2020 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को सूचना दी थी कि ईडीएमसी द्वारा केवल 26 फीसदी कचरे को ही प्रोसेस या वैज्ञानिक रूप से ट्रीटमेंट किया जाता है।

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